३२७ १८७
अत्र चैवं विवेचनीयम्, -तत्तन्मार्गे सिद्धा महान्तो द्विविधा दर्शिताः । अत्र च विविध मुक्ति का द्वार स्वरूप है । और स्त्री सङ्गी का सङ्ग, नरक का द्वार स्वरूप है । उक्त महापुरुष वृन्द विविध होते हैं। एक ज्ञानी महापुरुष, अपर भक्त महापुरुष । उस के मध्य में ज्ञानी मह पुरुष का लक्षण है -विद्या विनय सम्पन्न ब्राह्मण, गो, हस्ती, कुक्कुर, श्वपाक, प्रभृति में निविशेष ब्रह्म सत्ता की उपलब्धि करने के कारण, समचित्त एवं हेय उपादेय बुद्धि रहित होना । द्वितीय लक्षण, रागद्वेष अभिनिवेश शून्य होने के कारण प्रशान्त, अतएव कहीं पर द्वेष बुद्धि न होने से विमन्यु, सर्वभूत हित कारी होने से सुहृद् एवं सदाचार सम्पन्न हेतु साधु है ।
में
द्वितीय, - भक्ति साधक महापुरुष का लक्षण यह है- मुझ में सिद्ध सौहाद्दर्य रूप प्रेम विद्यमान है, एवं यह प्रेम हो परम पुरुषार्थ का मूल प्रयोजन है । यह सब मुझ में प्रेम को छोड़कर अपर किसी में प्रयोजन बुद्धि नहीं रखते हैं । अतएव वे विषय वार्त्तानिष्ठ जन समाज में एवं स्त्री पुत्र बन्धु वर्गयुक्त गृह प्रीति पोषण नहीं करते हैं । किन्तु श्रीभगवद् भजन हेतु जितने परिमाण में विषय ग्रहण आवश्यक है, उतने परिमाण में विषय ग्रहण करते हैं। निज ऐन्द्रियक सुख हेतु वा देहिक सुख भोग हेतु विषय ग्रहण नहीं करते हैं । उक्त उभयविध महापुरुषों के मध्य में अर्थात् ज्ञानी महत् एवं भक्त महत् के मध्य में ‘पूर्व विधि से परविधि बलवान् ‘इस न्याय से ज्ञानी महत् से भी भक्तमहत् श्रेष्ठ हैं । उभय विध विभाग के द्वारा महत् की व्याख्या करने का तात्पर्य यह है कि- मूल श्लोक में ‘ये वा मयोशे" प्रयोग ‘वा’ शब्द का उल्लेख पूर्वक पक्षान्तर की सूचना की गई है।
ज्ञानी एवं भक्त, उभयविध साधकों को महत् कहने का तात्पर्य यह है कि -महाज्ञानी होने के कारण ज्ञान साधक का महत्व है, एवं महाभागवत होने के कारण भक्ति साधक का महत्त्व है । किन्तु ज्ञानी साधक एवं भक्त साधक का समान धर्म होने के कारण महत्त्व का निर्देश नहीं हुआ है। ज्ञान मार्ग में ब्रह्मानुभवी व्यक्ति महत् शब्द वाच्य है, अर्थात् जो निविशेष ब्रह्मानुभव किये हैं, वे ज्ञान मार्ग में महापुरुष हैं, उनके सङ्ग से वहिर्मुख जीव की उन्मुखता निर्विशेष स्वरूप में होती है । और भक्ति मार्ग में भगवत्
। प्रेमवान् भक्त ही महत् पद वाच्य है । उन के सङ्ग से वहिर्मुख जीव की उन्मुखता श्रीभगवान् में होती है । जिन्होंने प्रेम लाभ नहीं किया है। उन भक्त के सङ्ग से भगवद् वहिर्मुख जीव की भगवच्चरणों में उन्मुखता नहीं हो सकती है। इस अंश में ज्ञानी एवं भक्त महापुरुषों के मध्य में लक्षण साम्य विद्यमान है । यह समझना होगा ।
श्रीऋषभदेव - निज पुत्र वर्ग को कहे थे ॥१८६॥श्रीभक्ति सन्दर्भः
[ ३८ε
ज्ञानिसिद्धाः, (भा० १११३०३६) - देहश्च नश्वरमवस्थितमुत्थितं वा, सिद्धो न पश्यति यतोऽध्यगमत् स्वरूपम्" इत्यादौ वर्णिताः । अथ भक्तसिद्धा स्त्रिविधाः, - प्राप्तभगवत् पार्षद देहाः, निर्धू तकषायाः, मूच्छितकषायाश्च । यथा श्रीनारदादयः, श्रीशुकदेवादयः, प्राग्जन्मगत–
नारदादयश्च, (भा० ११६/२६) -
“प्रयुज्यमाने मयि तां शुद्धां भागवतों तनुम् ।
।
प्रारब्धकर्मनिर्वाणो न्यपतत् पाञ्चभौतिकः ॥ ५३८ ॥
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साधु सङ्ग प्रसङ्ग में यहाँ इस प्रकार विवेवचन करना आवश्यक है। पूर्वोक्त ज्ञान मार्ग एवं भक्ति मार्ग यह द्विविध मार्ग में द्विविध महत् का वृत्तान्त वर्णित हुआ है । उस के मध्य में ज्ञानि सिद्ध का वर्णन भा० ११।१३।३६ में इस प्रकार है-
“देहञ्च नश्वरमवस्थितमुत्थितं वा, सिद्धो न पश्यति यतोऽध्यगमत् स्वरूपम् ।
दैवादपेतमुतदेववश दुपेतं वासोयथाप रकृतं मदिरा मदान्धः ॥ "
टीका- एतदेवोपपादयति देहमिति । आसनादुत्थितं उत्थाय तत्ववस्थितं ततः वव चदपेतं निर्गतं पुनस्तत्रैवोपेतं वा देहमपि नानु सन्धत्ते । कुतोऽन्यत् । यतोयेन देहेन स्वरूपमध्यगमत् ज्ञातवान् तं देहम् । यतः कारणादिति वा । परिकृतं परिहितं वासो गतस्थितं वा यथा न वेत्ति तद्वत् ।
ज्ञान मार्ग में सिद्धि प्राप्त महापुरुष वृन्द - जिस देह के द्वारा स्वरूपानन्द का अनुभव किये हैं, वह नश्वर देह, आसन से उत्थित वा आसन में ही अवस्थित है - यह सब कुछ भी नहीं जानते हैं । अथवा आसन ये अन्यत्र गत किंवा पुनर्वार आसन में ही अवस्थित है, इस का अनुसन्धान करने में वे असमर्थ हैं । इत्यादि रीति से ज्ञान मार्गस्थ सिद्ध महापुरुष का लक्षण वर्णित हुआ है । अनन्तर भक्ति मार्ग में महापुरुष का लक्षण वर्णन करते हैं । भक्ति मार्ग में सिद्ध महापुरुष, त्रिविध हैं । प्रथम - प्राप्त भगवत् पार्षद बेह, द्वितीय-निर्धूतकषाय, तृतीय- मूच्छित कषाय । उस में जो भक्ति सिद्ध महापुरुष मायिक पाश्चभौतिक देह त्यागकर श्रीभगवान् के निकट अवस्थान करने के उपयोगी सच्चिदानन्द मय पार्षद देह लाभ किये हैं, वह उत्तम भागवत वृन्द के मध्य में श्रेष्ठ हैं । जो पाचभौतिक देह में अवस्थित हैं, किन्तु प्रापश्चिक किसी प्रकार वासना हृदय में विद्यमान नहीं है, वह निर्धूतकषाय हैं। यह उत्तम भागवत वृन्द के मध्य में मध्यम हैं। और जिस भक्ति सिद्ध महापुरुष के हृदय में सूक्ष्म रूप में सात्त्विक कषाय (वासना-संस्कार) विद्यमान है, किन्तु भक्ति के प्रभाव से मूच्छिन होकर ही है । यथा समय भगवान् उनको वासना भोग कराकर निज समीप में स्थान प्रदान करेंगे, वे उत्तम भागवत वृन्द के मध्य में कनिष्ठ हैं। उस के मध्य में प्राप्त भगवत् पार्षद देह का दृष्टान्त - देवर्षिनारद हैं, निर्धूत कषाय- उत्तम भागवत का दृष्टान्त श्रीशुकदेव प्रभृति हैं। मूच्छित कषाय-उत्तम भागवत का दृष्टान्त- दासी पुत्र रूप श्रीनारद प्रभृति हैं । भा० १।६।२६ में वर्णित है-
“प्रयुज्यमाने मयि तां शुद्धां भागवतीं तनुम् । प्रारब्धकर्मनिर्वाणो न्यपतत् पाञ्चभौतिकः ॥ ५३६ ॥
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टीका - प्रयुज्यमाने इत्यस्यायमर्थः-हित्वादद्यमिमं लोकं गन्ताज्जन्तामसि, इति । भागवतो भगवत् पार्षद रूपा शुद्धा सत्वमयी तनूः, तां प्रतिश्रुतां तन् प्रति भगवता प्रयिप्रयुज्यमाने नीयमाने । आरब्धं यत् कर्म तन्निर्वाणं समाप्त यस्य, आरब्ध कर्मणो निर्वाणमेव निर्वाणं यस्येति वा । पञ्चभूतात्मको देहोन्यपतत् । अनेन पार्षदतनूनामकर्म्मारब्धत्वं नित्यत्वं शुद्धत्वश्व सूचितं भवति ।
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श्रीभक्ति सन्दर्भः
इत्यादौ, (भा० १२।१२।६६) ‘स्वसुख निभृतचेतास्तद्व्युदस्तान्यभावोह, प्यजितरुचिरलीला कृष्टसारः’ इत्यादौ, (भा० १६२२)-
“हन्तास्मिन् जन्मनि भवान् मा मा द्रष्टुमिहार्हति ।
अविपक्वकषायाणां दुर्दर्शोऽहं कुयोगिनाम् ॥ ५४० ॥
इत्यादौ च प्रसिद्धेः, श्रीनारदस्य पूर्व्वजन्मनि स्थितकषायस्य प्रेम वर्णितं स्वयमेव (भा० ३१६/१८)
देवर्षि नारद श्रीकृष्ण द्वैपायन को कहे थे - भगवान् कर्तृके प्रदत्त विशुद्ध सत्त्वस्वरूप पार्षद देह में मेरा प्रवेश होने से प्रारब्ध कर्म की परि समाप्ति जिस देह में हुई, मेरा वह पाञ्चभौतिक देह निपतित हुआ । इस से प्राप्त भागवत पार्षद देह उत्तम भागवत का दृष्टान्त प्रस्तुत हुआ । भा० १२।१२।६६ में श्रीसूत
शौनकादि को कहे थे-
“स्व सुखनिभृतचेतास्तद्व्युदर तान्यभावोऽ, व्यजितरुचिरलीला कृष्टसार स्तदीयम् । व्यतनुत कृपया यस्तत्त्वदीपं पुराणं
तमखिल वृजिनधनं व्याससूनुं नतोऽस्मि ॥”
टीका - श्रीगुरु नमस्करीति । स्व सुखेनैव निभृतं पूर्णं चेतोयस्य । तेनैव व्यूदस्तोऽन्यस्मिन् भावोयस्य तथाभूतोऽपि अजितस्य रुचिराभिललाभिराकृष्टः सारः स्व सुखगतं स्थैय्यं यस्य सा । तत्त्वदीपं परमार्थ प्रकाशकं श्रीभागवतं योव्यतनुत तं नतोऽस्मीति ॥
जो निज सुखानुभव से पूर्ण मानस थे - अर्थात् आत्माराम थे । एवं स्वरूप नन्द अनुभव जनित आस्वादन से विषयान्तर में वासना शून्य थे, अर्थात् पूर्ण काम थे । वे इस प्रकार आत्माराम आप्तकाम होकर भी श्रीकृष्ण के मधुर लोला माधुर्य्यं से आकृष्ट होने के कारण निखिल जीवों के प्रति करुणा करके निखिल साध्य साधन सम्बन्ध तत्व का उज्ज्वल प्रकाशक श्रीमद् भागवत महापुराण को विस्तार किये थे। उन निखिल वहिर्मुखता दोषापहारी व्यासनन्दन को मैं प्रणाम करता हूँ । इस श्लोक से श्रीशुकदेव जो निर्धूत कषाय उत्तम भागवत थे, उसका दृष्टान्त प्रस्तुत हुआ । भा० १।६।२२ में वर्णित है-
“हन्तास्मिन् जन्मनि भवान् मा मां द्रष्टुमिहार्हति ।
।
अविपक्वकषायाणां दुर्दर्शोऽहं कुयोगिनाम् ॥ “५४० ॥
।
टीका- हन्तेति सानुकम्प सम्बोधने । मा इति । मां द्रष्टु ं अर्हति मार्हति । यतोऽविपक्वा अदग्धाः कषाया मलाः कामादयो येषां तेषां कुयोगिनाम्- अनिष्पन्नयोगानाम् ।
दासी पुत्र नारद एकबार श्रीभगवत दर्शन लाभ करके भी निज अपवव कषाय दोष से खो गये थे । एवं पुनर्वार दर्शन लालसा से व्यग्र होकर जब विलाप करने लगे थे, तब नभोवाणी से श्रीभगवान् कहे थे- नारद ! बड़ी दुःख की बात है कि, तुम इस जन्म में पुनर्वार मुझ को देख नहीं सकोगे । कारण, जिस की भोगवासना परिपक्व नहीं हुई है, वह सब कुयोगियों के पक्ष में मैं सुदुद्दर्श हूँ । यहाँ समझना पड़ेगा कि- देवर्षि नारद के हृदय में अन्य कुछ भोग वासना नहीं थीं, किन्तु तृणचर पशुवृन्द के सहित वन में रहना सुखप्रद एवं शान्तिद है, इस प्रकार भोग लालसा थी, यह सात्त्विक होने पर भी भगवान् उनको अविपक्व कषाय कुयोगी कहे थे। इस से उत्तम भागवत के मध्य में “मूच्छित कषाय " भागवत, का दृष्टान्त प्रस्तुत हुआ ।
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हा
“प्रेमातिमरनिभित्र पुल काङ्गोऽति निर्वृतः ।
आनन्दसंप्लवे लीनो नापश्यमुभयं मुने ॥ “५४१॥
श्रीभरत एवात्रोदाहरणीयः । तस्य च भूतपिपालयिषारूपः प्रारब्धालम्बनः सात्त्विक - कषायो निगूढ़ आसीत्, प्रेमा च वर्णित इति । तदेवं समानप्रेमणि त्रिविधे पूर्व्वपूर्वाधिक्यं ज्ञेयम् । क्वचित् स्थितेऽपि प्राकृतदेहादित्वे यदि प्रेम्णः परिमाणतः स्वरूपतो वाधिवयं दृश्यते, तदा प्रेमाधिक्येनैवाधिक्यं ज्ञयम् । तच्च भजनीयस्य भगवतोऽ शांशित्वभेदेन भजतश्च दास्य सख्यादिभेदेन स्वरूपाधिक्यं प्रेमाकुरप्रेमादिभेदेन परिमाणाधिक्यं च प्रीतिसन्दर्भ विवृत्य दर्शयिष्यामः । साक्षात्कारमात्रस्यापि यद्यपि पुरुषप्रयोजनत्वम्, तथापि तस्मिन्नपि
उक्त त्रिविध भक्ति सिद्ध भागवत के मध्य में जिस किसी के सङ्ग से ही भगवद् वहिर्मुख जीव की भगवदुन्मुखता हो सकती है । महर्षि नारद के पूर्व जन्म में यद्यपि सात्त्विक कषाय विद्यमान था, तथापि श्रीभगवान् में उनकी प्रीति भी थी। अतएव भगवत् साक्षात् कार में जो भक्त जिस परिमाण में श्रीभगवान् के प्रियताधर्म प्रभृति अनुभव करते हैं, उस परिमाण में भगवत् साक्षात् कार का उत्कर्ष प्रकाश होता है । मा० १।६।१८ में देवर्षि नारद की भगवत् प्रीति वर्णित है-
“प्रेमातिभ र निभिन्न पुल काङ्गोऽति निर्वृतः ।
आनन्दसंप्लवे लीनो नापश्यमुभयं मुने ॥ " ५४१ ॥
टीका - प्रेम्नोऽति भरेण निर्भिन्न पुलकानि अङ्गानि यस्य । आनन्दानां संप्लवे महाप्लवे परमानन्दे । उभयम्, अत्मानं परश्च ।
行
अतिशय भगवत् प्रेमोद्र ेक होने से नारद के अङ्ग पुलकाग्रित हो गया था, एवं आनन्द सागर में निमग्न हो जाने के कारण नारद-देह दैहिक समस्त विषयों को भूल ही गये थे ।
इस विषय में श्रीभरत -चरित्र भी उदाहरण हो सकता है, कारण, प्राणी प्रति पालन कर्त्तव्य रूप प्रारब्धाबलम्बन से सात्त्विक कषाय निगूढ़ रूप में भरत का था, जिससे दयार्द्रचित्त होकर मृगशिशु की सेवा में आत्मनियोग करने में बाध्य हुये थे । उस के साथ भगवत् प्रीति भी समधिक थी। कारण, निरन्तर भगवन्नाम ग्रहण, भरत करते थे । अतएव उक्त त्रिविध सिद्ध भक्त मे भगवत् प्रेमांश में समानता होने पर भी पूर्व पूर्व भक्त में प्रेमाधिक्य सुस्पष्ट रूप से है । अर्थात् मूच्छित कषाय की अपेक्षा निरपेक्ष भक्त में प्रेमाधिक्य है, एवं तदपेक्षा प्राप्त पार्षद देह में प्रेमाधिक्य है । स्थल विशेष में प्राकृत देहादि वर्तमान होने से भी यदि भगवत् प्रीति का परिमाण एवं स्वरूप आधिवय दृष्ट होता है तो, प्रेम के अधिकच से ही भक्त का श्रेष्ठत्व जानना होगा । अतएव भजनीय के भेद से एवं दास सख्यादि भाव भेद से भी प्रेम का आधिकच होता है, इस प्रकार प्रेमाकुरादि भेद सभी प्रेमगत परिमाण का अधिकय होता है । इस विषयका वर्णन प्रीति सन्दर्भ में होगा ।
निरुपाधि प्रीत्यास्पद स्वभाव श्रीभगवान् के प्रियत्व धर्म का अनुभव के विना भगवत् साक्षात् कार भी असाक्षात् कार में पर्थ्यवसित होता है । प्रियता भगवान् के स्वरूप गत धर्म है, समस्त धर्म के मध्य में भगवान् प्रियत्व धर्म ही मुख्य धर्म है। जब तक प्रियत्व धर्म का अनुभव नहीं होता है, तब तक जानना होगा कि श्रीभगवदनुभव ही नहीं हो रहा है । जिस प्रकार पित्त दुष्ट जिह्वा में मिष्ट द्रव्य का आस्वादन
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साक्षात्कारे यावान् यावान् श्रीभगवतः प्रियत्वधम्र्मानुभ वस्तावांस्तावानुत्कर्षः । निरुपाधि- प्रीत्यास्पदतास्वभावस्य प्रियत्वधर्मानुभवं विना तु साक्षात्कारोऽप्यसाक्षात्कार एव । माधुर्य्यं विना दुष्टजिह्वया खण्डस्येव । अतएवोक्तं श्रीऋषभदेवेन (भा० ५१५२६) “प्रीतिर्न यावत्मयि वासुदेवे, न मुच्यते देहयोगेन तावत्” इति । ततः प्रे मतारतम्येनैव भक्त– महत्तारतम्यं मुख्यम् । अतएव ‘मयोशे कृतसौहृदार्थाः इत्येव तल्लक्षणत्वेनोक्तम् । यत्र तु
। प्रेमाधिक्यं साक्षात्कारः कषायादि-राहित्यादिकमप्यस्ति स परमो मुख्यः ।
自灣
तत्र कै काङ्गवैकल्ये न्यून न्यून इति ज्ञ ेयम् । तदेवम् (भा० ५५ ७) – “ये वा मयीशे” इत्यादिना
। ५।५।७) –“ये
ये उक्तास्ते तु प्राप्तपार्षददेहा न भवन्ति तथा विषय-वैराग्येऽपि गूढ़ संस्कारवन्तोऽपि सम्भवन्ति । ततस्तद्विवेचनाय प्रकरणान्तरमुत्थाप्यते । यथा राजोवाच, (भा० ११।२।४४)
“अथ भागवतं ब्रूत यद्धम्म यादृशो नृणाम् ।
नृणाम्।
यथाचरति यद्व ते यैलिङ्गर्भगवत् प्रियः ॥ “५४२॥ यथाचरति
नहीं होता है, खण्ड का स्वरूप गत धर्म है । मधुरता के आस्वादन के विना खण्डका साक्षात्कार असाक्षात् कार में ही पर्थ्यवसित होता है। अतएव भा० ५।५२६ में श्री ऋषभ देवने कहा है-
“प्रीतिर्न यावन्मयि वासुदेवे, न मुच्यते देहयोगेन तावत् ॥”
"
जब तक वासुदेव स्वरूप मुझ में प्रीति नहीं होती है, तब तक देह के सहित जीव का सम्बन्ध विनष्ट नहीं होता है, अर्थात् जीवाशय रूप लिङ्ग शरीर विनष्ट नहीं होगा । अर्थात् जन्म मरण प्रवाह विनष्ट नहीं होता है। अतएव प्रेम तारतम्य से ही भक्तमहत् का मुख्य तारतम्य है । अतएव भा० ५ ५। ३ में भगवान् ऋषभ देवने कहा है-
“ये वामयीशे कृत सौहृदार्या जनेषु देहम्भर वातिकेषु
गृहेषु जायात्मजरातिमत् सु न प्रीति युक्ता यावदर्थाश्च लोके ॥ "
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अर्थात् जो लोक मुझ में प्रीति युक्त हैं वे ही महदू भक्त नाम से अभिहित हैं । किन्तु जिस व्यक्ति में प्रेमाधिक्य है एवं भगवत् साक्षात् कार तथा कषायादि शून्यता भी है वही भक्त ही परम श्रेष्ठ है । उसमें भी एक एक अङ्ग की विफलता से न्यून न्यूनता की जानना होगा । अर्थात् किसी का भगवत् प्रेमाधिक्य है । किन्तु भगवत् साक्षात् कार नहीं है एवं कषायादि राहित्य भी नहीं है । वह भक्त न्यून है । और किसी में कषायादि नहीं है, किन्तु भगवद् साक्षात् कार है, प्रेमाधिक्य नहीं है, वह भक्त पूर्वोक्त न्यून भक्त से श्रेष्ठ है । इस प्रकार से ही न्यून न्यूनता की जानना होगा । अएव महत् के निर्णय विषय में समाधान यह है कि- श्रीभगवान् में प्रीति युक्त भक्त वृन्द के मध्य में जिन्होंने भगवत् पार्षद देह लाभ नहीं किया है, अथच विषय वितृष्णा भी समधिक है किन्तु हृदय में किसी प्रकार भोग वासना संस्कार की विद्यमानता की सम्भावना भी है । इस प्रकार लक्षणा क्रान्त भक्तमहत् को ही श्रीऋषभ देवने भा० ५।५।२ में ‘ये वा मयोशे’ श्लोक के द्वारा भक्त महत् कहा है । अतः उक्त भक्त लक्षण की विवेचना हेतु स्वतन्त्र प्रकरण की अवतारणा की जा रही है । भा० ११।२।४४ में निमिमहाराज ने श्रीहवि योगीद्र के निकट प्रश्न किया था-
“अथ भागवतं ब्रत यद्धम्र्म्मो यादृशो नृणाम् । यथाचरति यदून ते यलिङ्गर्भगवत् प्रियः ॥ ५४२॥
श्रीभक्ति सन्दर्भः
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अथ अनन्तरं भागवतं ब्रूत । तज्ज्ञानार्थं स च नृणां मध्ये यद्धम्र्म्मो यत्स्वभावतं स्वभावं ब्रूत, यथा च स आचरत्यनुतिष्ठति तदनुष्ठानं ब्रूत, यवन ते तद्वचनश्च ब्रूत, इति मानस - कायिक- वाचिक लिङ्गपृच्छा । ननु पूर्व्वम् (भा० ११ २ ३६) “शृण्वत् सुभद्राणि रथाङ्गपाणेः” इत्यादिना ग्रन्थेन तत्तल्लिङ्ग श्रीकविनैवोक्तम् ? सत्यम्, तथापि पुनस्तदनुवा तेषु लिङ्गेषु यैलिङ्गः स भगवत् प्रियो यादृश उत्तम मध्यमतादिभेद-विविक्तो भवति, तान लिङ्गानि विविच्य ब्रूतेत्यर्थः ॥
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