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तदेवं सत्सङ्ग एव तत्साम्मुख्यद्वारमित्युक्तम् । ते च सतस्तत्सम्मुखा एवात्र गृह्यन्ते, न तु वैदिकाचारमात्रपराः, अनुपयोगित्वात् । तत्न यादृशः सत्सङ्गस्तादृशमेव साम्मुख्यं भवतीति वक्तु तेषु सत्सु ये महान्तस्तेषां द्वैविध्यमाह सार्द्धन (भा० ५।५।२-३).

(१८६) “महान्तस्ते समचित्ताः प्रशान्ता, विमन्यवः सुहृदः साधवो ये ॥

ये वा मयोशे कृतसौहृदार्था, जनेषु देहम्भरवात्तिकेषु । ।

गृहेषु जायात्मज रातिमत्सु, न प्रीतियुक्ता यावदर्थाश्च लोके ॥ “५३८ ।

ये समचित्ता निव्विशेषब्रह्मनिष्ठास्ते महान्तस्तेषां शीलमाह-प्रशान्ता इत्यादि,

होने के कारण, जीव स्वरूप का ज्ञान निषिद्ध हुआ है । कारण, जीव स्वरूप, अणु है, एवं जिस ज्ञान में सूक्ष्मत्वादि धर्म है उस ज्ञान का भी निरास किया गया है । अर्थात् जीव स्वरूप ज्ञान, अथवा, अणुत्व धर्म युक्त ज्ञान परम प्रयोजन धर्म नहीं है । इस श्लोक में महत् कृपा व्यतीत अपर किसी भी उपायों से भगवदुन्मुखता नहीं हो सकती है, उसका वर्णन हुआ है ।

श्रीब्राह्मण - रहूगण को कहे थे ॥१८५॥

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उक्त रीति से सत्सङ्ग को ही भगवत् साम्मुख्य का द्वारा निर्णीत हुआ है । जो सब साधु सङ्ग से वहिर्मुख जीव, भगवत् साम्मुख्य लाभ कर सकता है, यह सब साधु सतत भगवदुन्मुख न होने से भगवद् वहिर्मुख जीव को भगवदुन्मुख करने में सक्षम नहीं होंगे । केवल मात्र वेद विधि के अनुसार सदाचार परायण साधु सङ्ग भगवदुन्मुखता सम्पादन करने में अनुपयोगी है। उस में भी जिस का जिस जातीय साधु सङ्ग होगा, उस का उस जातीय भगवत् साम्मुख्य भी होगा । अतएव

जो साधु शास्त्रीय महापुरुष लक्षणाक्रान्त है, अर्थात् जिन के हृदय में अनवरत श्रीभगवत् स्फूत्ति होती रहती है, उन लौकिक रीति के महापुरुष व्यतीत शास्त्रीय लक्षणाक्रान्त महापुरुष के सङ्ग से ही भगवदुन्मुखता होती है। उस प्रकार महापुरुष वृन्द द्विविध होते हैं, स लक्षण उसका वर्णन भा० ५।५।२-३ के सार्द्ध श्लोक के द्वारा करते हैं ।

(१८६) " महान्तस्ते समचित्ताः प्रशान्ता, विमन्यवः सुहृदः साधवो ये । ये वा मयोशे कृतसौहृदार्था, जनेषु देहम्भरवात्तिकेषु । गृहेषु जायात्मजरातिमत्सु न प्रीतियुक्ता यावदर्थाश्च लोके ॥ ५३८ ॥ भगवान् ऋषभदेव, - निज पुत्र वृन्द को उपदेश देते हुए कहे थे - हे पुत्र गण । महत्

सेवा ही

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महद्विशेषमाह - ये वेति । वा-शब्दः पक्षान्तरे । उत्तरपक्षत्वादस्यैव श्रेयम् । मयि कृतं सिद्धं यत् सौहृदं प्रेम तदेवार्थः परमपुरुषार्थो येषां तथाभूता ये ते महान्त इति पूर्वेणान्वयः । यतो मयि सौहृदार्था स्तव एव देहम्भरवातिकेषु विषयवार्त्तानिष्ठेषु जनेषु तथा गेहेषु जग्यात्मजः बन्धुवर्गयुक्तेषु न प्रीतियुक्ताः, किन्तु यावदर्था यावानर्थः श्रीभगवद्भजनानुरूपं प्रयोजनं तावानेवार्थो धनं येषां तथाभूता इत्यर्थः । उभयोर्महत्वश्च महाज्ञानित्वान्महाभागवतत्वाच्च, न तु द्वयोः साम्याभिप्रायेण (भा० ६।१४।५) - " मुक्तानामपि सिद्धानां नारायणपरायणः " इत्याद्य ुक्तेः । अत्र ज्ञानमार्गे ब्रह्मानुभविनो महान्तः, भक्तिमार्गे लब्धभगवत्प्रेमाणो महान्त इति लक्षणसामान्यमिति ज्ञेयम् ॥ श्रीऋषभदेवः स्वपुत्रान् ॥

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