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पूर्वोक्त रीति से भगवत् साम्मुख्य के विषय में सत् सङ्ग मात्र का कारणत्व निद्दिष्ट हुआ है । सत्सङ्ग के विना अपर किसी भी कारणों से भगवत् साम्मुख्य हो ही नहीं सकता, इस का प्रदर्शन भा० ५।१२।११-१२ के द्वारा व्यतिरेक मुख से करते हैं ।
- (१८५) “ज्ञानं विशुद्धं परमार्थमेक–, मनन्तरं त्वव हिब्रह्म सत्यम् ।
प्रत्यक् प्रशान्तं भगवच्छन्दसंज्ञ, यद्वासुदेवं कवयो वदन्ति ॥ ५३६ ॥ रहूगणैतत्तपसा न याति न चेज्ययः निर्व्वपणाद् गृहाद्वा ।
न छन्दसा नैव जलाग्निसूय्यै, -विना महत्पादरजोऽभिषेषम् ॥ “५३७॥
भरत रहूगण को कहे थे-ज्ञान हो सत्य वस्तु है । व्यवहारिक ज्ञान की सत्यता निवृत्ति हेतु कहते हैं- वह ज्ञान पारमार्थिक है, अर्थात् पारमार्थिक सत्य है, काल रूप में हो वह ज्ञान अधिकृत रूप में विद्यमान है। उक्त ज्ञान का इन्द्रिय वृत्तित्व निरास हेतु छं विशेषण द्वारा ज्ञान का वर्णन करते हैं । (१) वृत्ति ज्ञान अविद्या कल्पित है, किन्तु पारमार्थिक ज्ञान स्वयं प्रकाश है। पारमार्थिक ज्ञान एक प्रकार है- एकम् । (२) अर्थात् उसका प्रकार भेद नहीं है । व्यवहारिक ज्ञान नील पीतादि प्रकार भेद से विविध हैं । पारमार्थिक ज्ञान अनन्तर एवं अवहिः (३) अर्थात् बाह्याभ्यन्तर भेद शून्य है । व्यवहारिक ज्ञान किन्तु उसका विपरीत अर्थात् वाह्य आभ्यन्तर भेद युक्त है। पारमार्थिक ज्ञान ब्रह्म (४) अर्थात् परिपूर्ण है, जो ज्ञान प्राप्त करने से किसी विषय में अज्ञान नहीं रहता है। व्यवहारिक ज्ञान - परिच्छिन्न अर्थात् सीमाबद्ध है । एक वस्तु का ज्ञान होने पर अपर वस्तु का अज्ञान रह ही जाता है। पारमार्थिक ज्ञान प्रत्यक् (५) अर्थात् स्वयं प्रकाश अन्य निरपेक्ष स्वयं प्रकाश वा निविषय है । व्यवहारिक ज्ञान - किसी एक विषय को अवलम्बन कर उत्पन्न होता है । पारमार्थिक ज्ञान प्रशान्त है (६) अर्थात् निर्विकार है, व्यवहारिक ज्ञान सविकार है । यह षट् विशेषणों के द्वारा इन्द्रिय वृत्ति ज्ञान से पारमार्थिक ज्ञान का पार्थिवय प्रदर्शित हुआ एवं स्वरूप एवं ज्ञान का भी सत्यत्व प्रदर्शित हुआ। वह ज्ञान किस प्रकार है- उस को कहते हैं- बड़ विध ऐश्वय्यादि गुणशाली होने के कारण भगवत् संज्ञा से अभिहित है। उक्त स्वरूप ज्ञान षड़े श्वय्र्य पूर्ण होने # के कारण भगवान् है । उक्त षड् विध ऐश्वयं शाली ज्ञ नी को कविगण वासुदेव कहते हैं। उस वासुदेव की प्राप्ति भी महत् सेवा भिन्न अपर किसी भी उपायों से नहीं होती है। हे गहू गण ! यह वासुदेव विषयक ज्ञान की तपस्या, वैदिक कर्म, प्रचुरतर अन्नादि दान, परोपकार, अग्नि जल प्रभृति उपासना के द्वारा लभ्य नहीं है । यह है टीका का अभिप्राय । यहाँ ज्ञातव्य यह है कि-ज्ञान पद का विशेषण रूप से ब्रह्म पद का उल्लेख
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परिच्छिन्नम्, प्रत्यक्, तत्त विषयाकारम्, प्रशान्तं निर्विकारम्, तत्त सविकारम्, तदेवस्वरूपं ज्ञानं सत्यमित्युक्तम् । कीदृशं तत् ? ऐश्वर्य्यादि षड़, गुणत्वेन भगवच्छन्दः संज्ञा यस्य, यच्च ज्ञानं वासुदेवं वदन्ति । तत्प्राप्तिश्च महत्सेवां विना न भवतीत्याह हे रहूगण ! एतज्ज्ञानं तपसा पुरुषो न याति, इज्यया वैदिककर्मणा, निर्वपणात् अन्नादिसंविभागेन, गृहाद्वा तन्निमित्तपरोपकारेण, छन्दसा वेदाभ्यासेन, जलाग्न्यादिभिरुपासितैः” इत्येषा । अत्र
जीवस्वरूपं
ब्रह्मत्वादिना श्रीब्राह्मणो रहूगणम्
सूक्ष्म
त्वादिधर्मकं ज्ञानमपि
ज्ञानमपि निरस्तं वेदितव्यम् ।