३२२ १८४
सत्सङ्गमस्यैव परमसंस्कार हेतुत्वात्तदर्थं न पुरुषस्य संस्कार- हेत्वन्तरमपेक्ष्यश्व,
यत आह (भा० १०२८४।११)-
की
(१८४) " न ह्यन्मयानि तीर्थानि न देवा मृच्छिलामयाः ।
ते पुनन्तु रुकालेन दर्शनादेव साधवः ॥ " ५३५ ॥ इति ।
श
ते कथं नाद्रियन्ते, गौणत्वादित्याह - ‘ते पुनन्ति’ इति ॥ श्रीभगवान् मुनिवर्गम् ॥ १८५ । तदेवं सत्सङ्गमात्रस्य तत्साम्मुख्यमात्र निदानत्वमुक्तम् । एतदेव व्यतिरेकेणाह
की किसी प्रकार अपेक्षा नहीं रहती है । जिस प्रकार नल कुत्रर मणिग्रीव के प्रति देवर्षि नारद की कृपा हुई । इस में नल कुवर मणिग्रीव के द्वारा देवर्षि नारद जी की सेवा का कुछ भी प्रसङ्ग नहीं है। किन्तु अवज्ञा करने का ही संवाद सुनने में आता है । भा० ११।२।६ में उक्त है-
।
(१८३) “भजन्ति ये यथा देवान् देवा अपि तथैव तान् ।
छायेव कर्म्मसचिवाः साधवो दीनवत्सलाः ॥ ५३४ ॥
टीका-किश्च सुखं कुर्वन्तोऽपि देवा भजनानुसारेण कुर्वन्ति न तथा साधव इत्याह भजन्तीति । छायेव- यथा पुरुषो यावत् करोति, तावदेव तस्य छायादि तथा । कर्मसचिवाः - कर्मसहायाः ॥
श्रीवसुदेव श्रीनारद को कहे थे- जो देववृन्द का भजन जिस भाव से करते हैं, देववृन्द भी उसका भजन, छाया के समान करते रहते हैं । साधुगण किन्तु दीनवत्सल हैं, अर्थात् दीन जन के दुःख से दुःखित होते हैं।
श्रीमान् आनक दुन्दुभि कहे थे ॥ १८३ ।
३२३ १८४
सत्सङ्ग ही परम संस्कार स्वरूप है, अतः चित्त संस्कार के निमित्त मानव के पक्ष में हेत्वन्तर की अपेक्षा नहीं है। अर्थात् निज अभीष्ट भिन्न अपर वस्तु में आवेश जन्य जो चित्त मालिन्य होता है, उक्त मालिन्य दोषापसारण एकमात्र सत् सङ्ग से ही होता है । अतः चित्त शुद्धि के निमित्त अपर कुछ अनुष्ठान की आवश्यकता नहीं है। वस्तुतः सत्सङ्ग के द्वारा जिस प्रकार अन्यावेश विदूरित होता है, उस प्रकार अपर साधन के द्वारा नहीं होता है, एवं निज अभीष्ट में वस्तु चित्त का आवेश उत्पन्न भी नहीं होता है । कारण - भा० १०२८४।११ में उक्त है, -
(१८४) " न ह्यम्मयानि तीर्थानि न देवा मृच्छिलामयाः ।
ते पुनन्तु रुकालेन दर्शनादेव साधवः ॥ " ५३५॥ इति ।
।
TRE
by
की
श्रीकृष्ण श्रीअक़र को कहे थे- जलमय तीर्थ मृण्मय एवं प्रस्तर मय देवता वृन्द निरपराध से सेवित होने पर बहु काल के पश्चात् चित्त शोधन करते हैं । किन्तु भगवान् के भक्त वृन्द-दर्शन मात्र से ही प्रवित्र मृण्मय एवं प्रस्तर मय देवता वर्ग का समादर क्यों नहीं करगें ? उत्तर दीर्घ काल में प्रवित्र करते हैं, अतः यह गौण हेतु है । साधुसङ्ग सत्त्वर
करते हैं । यहाँ जल मय तीर्थ एवं में कहते हैं - तीर्थ एवं देवता वृन्द
[[३८६]]
( भा० ५।१२।११-१२ ) -
(१८५) “ज्ञानं विशुद्धं परमार्थमेक, - मनन्तरं त्ववहिर्ब्रह्म सत्यम् ।
प्रत्यक् प्रशान्तं भगवच्छन्दसंज्ञ, यद्वासुदेवं कवयो वदन्ति ॥५३६॥ रहूगणैतत्तपसा न याति न चेज्यया निर्व्वपणाद्गृहाद्वा ।
न छन्दसा नैव जलाग्निसूय्यै-, विना महत् पादरजोऽभिषेकम् ॥ ५३७ । टीका च–“तह तत्राह-ज्ञानं
- “तह कि सत्यम् ? तत्राह - ज्ञानं सत्यम् । व्यवहारिक सत्यत्वं व्यावर्तयति परमार्थम् । वृत्तिज्ञानव्यवच्छेदार्थानि षड् विशेषणानि, – विशुद्धम्, तत्तु आदिकम् एवम्, तत्तु नानारूपम्, अनन्तरं त्ववहिर्वाह्याभ्यन्तरशून्यम्, तत्त विपरीतम, ब्रह्म परिपूर्णम्, तत्त हो चित्त को पवित्र करते हैं- अतः यह मुख्य हेतु है ॥ १८४॥