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सतां कृपा च दुरवस्थादर्शनमात्रोद्भवा, न स्वोपासनाद्यपेक्षा, यथा श्रीनारदस्य

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मदनुग्रहस्थ, मम अनुग्रहो यस्मात् तत्, मदनुग्रहं, तस्य, किञ्च स्वेच्छा मयस्य स्वीयानां भक्तानां यथा यथा इच्छा तथा तथा भवतः । तहि किं ज्ञातु

ं न शक्यते-अत आह, नतु भूतमयस्य । अचिन्त्य शुद्ध सत्त्वात्मकस्य यदा अस्यैव तदा कथं पुनः साक्षात् तव केवलस्य आत्मसुखानुभूतेरेव स्वसुखानुभवमात्रस्यावतारिणो गुणातीतस्य, महिमानम् - आन्तरेण, निरुद्धेनापि मनसा को वा ज्ञातुं समर्थो भवेत् । अथवा, भूतमयस्य अपितु विराट् रूपस्य तव तन्नियम्यस्य वपुषो महिमानमेवावसितु कोऽपि नेशे तदा साक्षात् तवैवासाधारणस्य नियम्यनियन्तृभेद रहितस्योक्त लक्षणस्यास्य महिमानमवसितुं कोऽपि नेश इति किमुवक्तव्यमित्यर्थः

‘यहाँ पर ‘स्वेच्छा मयस्य’ पद का प्रयोग उन अर्थ में ही हुआ है । अर्थात् भक्त वृन्द की जैसी इच्छा होती है, तदनुसार आप प्रकाशित होते हैं। भा० ६।४।६३ में भी श्रीभगवान् कहे हैं-

“अहं भक्त पराधीनो ह्यस्वतन्त्र इव द्विज । साधुभिर्ग्रस्त हृदयो भक्तैर्भक्तजनप्रियः ॥”

अर्थात् मैं सब प्रकार से भक्त पराधीन हूँ, इस उक्ति से सुस्पष्ट प्रकाश हुआ है कि श्रीभगवान् की इच्छा, भक्त की इच्छा के अधीन ही है।

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भा० ६।१४।१४ में भी लिखित है-

श्रीनारद कहे थे ॥ १८१॥

कि

(१८२) “तस्यैकदा तु भवनमङ्गिरा भगवानृषिः ।

लोकाननुचरन्नेतानुपागच्छद्यदृच्छया ॥ ५३३ ॥

श्रीशुकदेव परीक्षित को कहे थे— एक समय भगवान् अङ्गिराऋषि इस लोक में विचरण करते करते यदृच्छाक्रम से चित्रकेतु महाराज के भवन में आये थे । यहाँ पर भी जिस समय श्रीअङ्गिरा ऋषि चित्रकेतु महाराज के भवन में आये थे, उस समय में ही उनका भगवत् साम्मुख्य हुआ था । कालान्तर में अर्थात् पुत्र को मृत्यु के पश्चात् श्रीपाद नारद के सङ्गसे वही उद्वीप्त अर्थात् प्रादुभूत हुआ था। यह जानना होगा । अतएव पुत्र की मृत्यु के पश्चात् जव चित्रकेतु महाराज विलाप कर रहे थे तब श्रीअङ्गिरा ऋषि कहे थे-

“ब्रह्मण्यो भगवद्भक्तो नावसीवितुमर्हति "

ब्राह्मण हितकारी भगवद् भक्त आप हैं, आप के पक्ष में अवसन्न होना उचित नहीं है । आप के पक्ष

श्रीशुकदेव कहे थे ॥ १८२ ॥

में पुत्रशोकाकुल होना अत्यन्त अनुचित है ।

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दुर्गत जनों की दुर्गति को देखकर ही सज्जनवृन्द की कृपा होती है, इस में निज उपासनादि

श्रीभक्ति सन्दर्भः

नलकूवर - मणिग्रीवयोः । तदाह भा० १११२२६) -

(१८३ ) " भजन्ति ये यथा देवान् देवा अपि तथैव तान् ।) ॥३४॥ श्रछायेव कर्म्मसचिवाः साधवो दीनवत्सलाः ॥ “५३४ ॥

स्पष्टम् ॥ श्रीमानानकदुन्दुभिः ॥

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