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ततः सत्सङ्गहेतुश्च सतां स्वैरचारितेव, नान्यः, यथाह (भा० ११/२/२४) -

(१८१) “त एकदा निमेः समुपाजग्मुर्यदृच्छया” इति ।

ते नवयोगेश्वरा यदृच्छ्या स्वरतया, न तु हेत्वन्तरप्रयुक्ततयेत्यर्थः, “यदृच्छा स्वैरिता” इत्यमरः । सत्सु परमेश्वरप्रयोक्तृत्वञ्च सदिच्छानुसारेणैव, तदुक्तम्, (भा० १०।१४ २) होता है - साधु गण ही अनुग्रह हैं । किन्तु भगवद् विमुख असाधु गण के प्रति आप का अनुग्रह नहीं होता है, साधुगण के द्वारा ही भगवत् कृपा का प्रकाश होना उचित है। इस प्रकार तात्पर्य प्रकाशित होता है । मोक्षधर्म में भी उक्त है-

“जायमानं हि पुरुषं पश्येद् यं मधुसूदनः ।

सात्त्विकः स तु विज्ञ ेयो भवेन्मोक्षार्थनिश्चितः ॥ “५३२॥ 1

भगवान् मधुसूदन – देहधारी जिस को देखते हैं, समझना होगा कि वह सात्विक व्यक्ति निश्चय ही मुक्त होगा। इस में भी कथित है- सत्सङ्ग प्राप्त करने के बाद जो जन्म ग्रहण करते हैं, उस जन्म को लक्ष्य करके ही इस प्रकार कहा गया है ।

देव गण श्रीभगवान् को कहे थे ॥ १८० ॥

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अतएव सत्सङ्ग हो भगवद् वहिर्मुख जीव की भगवदुम्मुखता के प्रति अव्यभिचारी कारण है, यह निश्चित

हुआ है । किन्तु सत्सङ्ग के प्रति हेतु क्या है ? उत्तर में कहते हैं-साधुवृन्द की स्वरता ही सत्सङ्ग के प्रति कारण है । अर्थात् साधुगण निजेच्छा प्रेरित होकर ही वहिर्मुख जीव के सहित मिलित होते हैं । अपर कुछ भी कारण नहीं है । अपर कारण प्रयुक्त होने से उस से भक्ति लाभ की सम्भावना नहीं है । भा० ११।२।२४ में उक्त है-

(१८१)” त एकवा निमेः सत्रमुपाजग्मुर्यदृच्छया ॥” टीका–महात्मनो निमेः । वितायमानं - अनुष्ठियमानम् । अजनाभे भारतवर्षे ।

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यह सब महापुरुष वृन्द किसी एक समय में यहच्छ क्रम से निमिमहाराज के यज्ञ स्थल में आगमन किये थे । वे नव योगेश्वर यदृच्छा क्रम से ही निमिमहाराज के सत्र में आये थे । यहाँ ‘यदृच्छा’ पद से स्वैरिता अर्थ को जानना होगा । अन्य किसी प्रकार हेतु प्रेरित होकर नहीं आये थे । ‘यदृच्छा शब्द का अर्थ अमर कोष कार के मत में ‘स्वरिता’ है । साध वृन्द के प्रति परमेश्वर का प्रेरण कर्तृत्व, साधुगण की इच्छा से ही होता है । अर्थात् परमेश्वर कर्त्तृक प्रयोजित होकर साधुगण वहिर्मुख जीव के निकट आते हैं, इस प्रकार अर्थ समीचीन नहीं है । कारण, भक्तेच्छा वशवर्ती होकर ही भगवान् समस्त कार्य्यं करते हैं । तद् व्यतीत स्वतन्त्रभाव से श्रीभगवान् में किसी प्रकार इच्छा का उद्गम नहीं होता है । अतएव भा० १०।१४।२ में उक्त है-

“अस्यापिदेव वपुषो मदनुग्रहस्य स्वेच्छामयस्य न तु भूतमयस्यकोऽपि

नेशे महि त्ववसितुं मनसान्तरेण साक्षात् तवैव किमुतात्मसुखानुभूतेः ॥ "

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टीका ननु नौमीति प्रतिज्ञाय कि स्वरूपानुवादमात्रं क्रियते । अत आह— अस्यापीति । भो बेच ! अस्यापि तुलभत्वेन प्रकाशितस्यापि तव वपुषोऽवतारस्य महि-महिमानम्, अवसित ज्ञातु, कोऽपि, को ब्रह्मा, अहमपि, नेशे न शक्नोमि । यद्वा कश्चिदपि नेशे, न समर्थ आसीत्, सुलभत्वाय विशेषण द्वयम् ।

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“स्वेच्छा मयस्य” इति, (भा० ६१४६३) “अहं भक्तपराधीन.” इति च ॥ श्रीनारदः ॥