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ततः सत्सङ्गस्यैव तत्र निदानत्वं सिद्धम्, तच्च युक्तम् । अनादिसिद्ध-तदज्ञानमय- तद्व मुख्यवतामन्यथा हि तदसम्भवः । तदुक्तम् (महा-भा० वन प० ३१२।११७) - “तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रतयो विभिन्ना, नासावृषियंस्य मत न भिन्नम् । धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां, महाजनो येन गतः स पन्थाः ॥ ५२८ ॥ इति ।
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में करुणा जगी थी, एवं यह सब जीवों के दुःख से कातर होकर श्रीनृसिंह चरणों में प्रार्थना किये थे । अतएव उन सब जीवों का उद्धार ही हुआ था । मूल श्लोक में भी “नैतान् विहाय” कहा गया है । अर्थात् यह सब जीव को उद्धार करें । यहाँ ‘एतत्’ शब्द का प्रयोग हुआ है। इस से समीपवर्ती जीवों की कथा व्यक्त होती है । किन्तु समस्त जीवों के दुःख से कातर होकर प्रह्लाद उन सब को मुक्त करने निमित्त प्रार्थना नहीं किये थे ।
किन्तु जिस के विषय में श्रीप्रह्लाद ने प्रार्थना नहीं की उन सब का मङ्गल प्रह्लाद कृत स्त्रोत्र का स्मरण एवं कीर्तन से ही होगा । भा० ७ १०।१४। में श्रीनृसिंह देवने भी कहा है
“य एतत् कीर्तयेन्मह्यं त्वया गीतमिदं नरः ।
त्वाञ्च माञ्च स्मरन् काले कर्म्मबन्धात् प्रमुच्यते ॥ “५२७॥
टीका-किञ्च य इति । त्वाञ्च माञ्च इदं मच्चरितञ्च स्मरन् एतत् स्त्रोत्रं यः कोर्त्तयेत् । सोऽपि कर्मबन्धाद्विमुच्यते कुतस्तव बन्ध शङ्क ेत्यर्थः ॥
हे प्रह्लाद ! मेरी सन्तुष्टि हेतु तुमने जो स्तव किया। इस का कीर्त्तन जो करेगा, एवं तुम को एवं मुझ को स्मरण करता हुआ उक्त स्तव का कीर्तन करेगा, वह कर्म बन्ध से मुक्त होकर मोक्ष लाभ करेगा, अर्थात् मेरे चरणों में पराभक्ति लाभ करेगा । अतएव परदुःख को देखकर तुम जो दुःखी हुये, एवं प्रार्थना ने श्री किये थे, सब दुःखी लोक मुक्त हो जायें, इस विषय में सन्देह ही क्या ? अतएव मुचुकुन्द महाराज कृष्ण की स्तुति के अवसर पर जा कहा - “भवापवर्गो भ्रमतो यदा भवेत् " अर्थात् जीव का संसार क्षय उपस्थित होने के समय साधुसङ्ग होता है - यह अत्युत्तमकथन है ।
मुचुकन्द श्रीभगवान् को कहे थे ॥ १७६ ॥
३१५ १८०
अतएव भगवत् वहिर्मुख जीव की भगवत् उन्मुखता के प्रति सत्सङ्ग ही एक मात्र कारण है। विचार पूर्वक यह सुसिद्ध हुआ । वह युक्ति युक्त भी है। कारण, अनादि काल से भगवद् विषयक अज्ञान रूप भगवद् वैमुख्य विशिष्ट जीव वृन्द की अपर किसी भी उपाय से भगवदुन्मुखता नहीं हो सकती है । तज्जन्य ऋषि ने कहा है-
“तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्ना, नासावृषिर्यस्य मतं न भिन्नम् ।
धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां, महाजनो येन गतः स पन्थाः ॥ ५२८ ॥
तर्क की प्रतिष्ठा नहीं है, एक व्यक्ति विचार पूर्वक वस्तु स्थापन करने पर अपर व्यक्ति उस को
[[३७८]]
तथैव श्रीप्रह्लादवाक्यम् (भा०७।५।३०-३२ ) – “मतिर्न कृष्णे परतः स्वतो वा, मिथोऽभिपद्यत गृहव्रतानाम्” इत्युपक्रम्य —
“नैषां मतिस्तावदुरुक्रमाङ्घ्रि, स्पृशत्यनर्थापगमो यदर्थः ।
महीयसां पादरजोऽभिषेक, निष्किञ्चनानां न वृणीत यावत् ॥ ५२६ ॥ इति । तथा तद्विमुख कर्मादिभिस्तत्साम्मुख्य-प्रतिपत्तेश्चात्यन्तायोगः (वट० १ २।१४ ) “अन्यत्र धर्मादन्यत्राधर्मादन्यत्रास्मात् कृताकृतात् । अन्यत्र भूताच भव्याच” इति श्रुत्यादेः, ( वृ० खण्डन करके निज मत स्थापन करता है । इस रीति से तर्कका स्थायित्व नहीं हो सकता है। एवं ऋषि गण के मध्य में भी ऐकमत्य है ही नहीं। धर्म का यथार्थ स्वरूप महानुभव गण के हृदय गुहा में निहित है, अतएव जिस साधन पथ को अवलम्बन करके महापुरुष वृन्द निज अभीष्ट लाभ किये हैं, उन महाजन गण कर्त्तृक प्रवत्तितपन्था ही अभीष्ट वस्तु लाभ का अभ्रान्त उपाय है । उस प्रकार ही भक्त प्रवर श्रीप्रह्लाब महाशय ने भी कहा है–भा० ७१५१३०-३२
“मतिर्न कृष्णे परतः स्वतो वा, मिथोऽभिपद्य ेत गृहव्रतानाम्
अदान्तगोभिविशतां तमित्रां पुनः पुनश्चवित चर्वणानाम् ॥
टीका - “आस्तामियं वार्त्ता । स्वादृशानां विषयासक्तानां अत्रानधिकारादित्याशयेनाह मतिरिति । परतो गुरोः स्वतो वा मिथो वा अन्योन्यतः नाभिपद्य ेत न संपद्येत । केषां गृहव्रतानां, गृह एवं व्रतं संकल्प इति कर्त्तव्यता चिन्ता येषाम् । अतएव, अदान्तै रनुपरते गोभिरिन्द्रियै हेतुभूतैस्त मित्रं संसारं विशताम् । तत्र चर्वितस्यैवचर्वणं येषाम् ॥”
श्रीकृष्ण में मति, दूसरे के द्वारा नहीं होती है, स्वयं भी नहीं होती है, और परस्पर समालोचना द्वारा भी नहीं होती है। गृह सुख अर्थात् स्त्री पुत्र प्रभृति भरण पोषण करना ही जिस का एकमात्र लक्ष्य वा व्रत है, वे सब इन्द्रियावेग से अज्ञानमय नरक के और द्रुत गति से धावित होते रहते हैं, वे सब चिर काल से विषय भोग करते आ रहे हैं, एवं पुनर्वार उसी का चव्वित चर्वण करने में समुत्सुक भी हैं। यह सब जीव, जब तक निष्किञ्चन महापुरुष वृन्द की चरण रजः के द्वारा स्वयं को अभिषिक्त करने की प्रार्थना नहीं कहते हैं, तब तक उनकी मति, श्रीकृष्ण चरण कमल को स्पर्श नहीं कर सकती है । इस से महापुरुषों का सङ्ग वा उनकी कृपा ही जो भगवदुन्मुखता के प्रति कारण है—यह सिद्ध हुआ। इस प्रकार उपक्रम करके ही कहा गया है-
“नैषां मतिस्तावदुरुक्रमाङ्घ्रि, स्पृशत्यनर्थापगमो यदर्थः ।
महीयसां पादरजोऽभिषेकं निष्किञ्चनानां न वृणीत यावत् ॥ “५२६ ॥
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टीका - ननु चैकोदेवः सर्व भूतेषु गूढ़ः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा । इत्यादि श्रुति प्रतिपादितं विष्णु टोका-ननु कथं न विदुः कुतो वा तेषां तमिस्र प्रवेश, तत्राह - नैषामिति । निष्क्रिञ्चनानां, निरस्त विषयाभिमानानां, महत्तमानां पादरजसाभिषेकं यावन्न वृणीत, तावत् श्रुति वाक्यतो ज्ञातेऽपि एषां मतिरुरुक्रमाङ्घ्रिन स्पृशति, न प्राप्नोति । असम्भावनाविभि विहन्येत इत्यर्थः । अनर्थस्य संसारस्यापगमो यदर्थः, यस्या अङ्घ्रिस्पर्शिन्या मतेरर्थः प्रयोजनम् । महदनुग्रहाभावान तत्त्व निश्चयो नापिमोक्षस्तेषामित्यर्थः ।
अतएव उस प्रकार भगवत् वहिर्मुख जड़ीय कर्मादि द्वारा भी श्रीभगवत् उन्मुखता लाभ करना
[[३७९]]४।४।२२) “तमेतमात्मानं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञ ेन दानेन तपसाऽनाशकेन’ इति श्रुत्यादिकन्तु तत्साम्मुख्येनैव प्रयुक्तानि कर्माण्यभिदधाति । तहि तदेव साम्मुख्यं कथं स्यादिति पुनरपि हेतुरेव प्रष्टव्यः स्यात् । अथ भगवत् कृपैव तत्साम्मुख्ये प्राथमिक कारण- मिति च गौणम् । सा हि संसारदुरन्तानन्त सन्तापसन्तप्तं ष्वपि तद्विमुखेषु स्वतन्त्रा न प्रवर्तते, तदसम्भवात् । कृपारूपश्चेतोविकारो हि परदुःखस्य स्वचेतसि स्पर्शे सत्येव जायते । तस्य तु सदा परमानन्दैकरसत्वेनापहत- कल्मषत्वेन च श्रुतौ जीवविलक्षणत्वसाधनात् तेजोमालिन-
सर्वथा असम्भव है । कारण श्रुति कहती है- “अन्यत्र धर्मादन्यत्राधर्मादन्यत्रास्मात् कृतः कृतात् । अन्यत्र भूताच्च भव्याच्च” वह परतत्त्व वस्तुलाभ धर्म से भी नहीं होता है, अधर्म से भी वस्तु लाभ नहीं होता है, क्रियमाण कर्म से अथवा करिष्यमाण कर्म से भी लाभ करना असम्भव है । अर्थात् श्रीभगवान्, धर्म, अधर्म, कृत कर्म, क्रियमाण कर्म एवं करिष्यमाण कर्मका अविषय हैं, श्रीभगवान्, एकमात्र भक्ति गम्य हैं । बृहदारण्यक श्रुति भी इस प्रकार है-
“तमेवमात्मानं वेदानुवचनेन
।
ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञ ेन दानेन तपसाऽनाशकेन” ब्राह्मण वृन्द, उन चैतन्य स्वरूप निर्विषय आत्मा को वेदानुकूल वचन के द्वारा जानने के इच्छ ुक हैं। आत्मा को यज्ञ द्वारा, दान द्वारा, तपस्या द्वारा, अनशन द्वारा प्राप्त करने के इच्छक वे नहीं हैं । अतएव उक्त स्वमस्त आचरण यदि भगवत् साम्मुख्य लाभ हेतु विनियुक्त होते, हैं, तो उक्त साधन समूह के द्वारा आत्मा को अवगत हो सकते हैं ।
जब तक सत्सङ्ग नहीं होगा, तब तक अनुष्ठित साधन समूह भगवटुन्मुखता सम्पादन में सक्षम नहीं होते हैं, किन्तु साधुसङ्ग लाभ के पश्चात् भी जब भगवत् प्राप्ति नहीं होती है, तब भगवत् प्राप्ति का उपाय की जिज्ञासा कहाँ की जायगी ? जिज्ञासा उत्पन्न होने पर अभ्रान्त प्रमाण रूप वेद वचन को मानना कर्त्तव्य है। अभीष्ट वस्तु प्राप्ति के अनुकूल में वेद वचन के अनुशीलन करने पर वेद विहित दान तपस्या प्रभृति भगवत् प्राप्ति हेतु सहायक होते हैं। साधुसङ्ग व्यतीत भगवत् प्राप्ति हेतु यथार्थ आकाङ्क्षा भी नहीं होती है । एवं साधनानुष्ठान जनित गर्व उत्पन्न होकर निविड़ भगवत् वहिर्मुखता हो जाती है ।
ि
ऐसा होने पर पुनर्वार भगवत् साम्मुख्य का हेतु जिज्ञास्य हो जाता है, अर्थात् कैसे भगवत् साम्मुख्य होगा ? उत्तर में कहते हैं- भगवत् कृपा ही भगवत् साम्मुख्य का मूल कारण है, यदि यह निश्चय होता है, तो असम्भव ही होगा । कारण, भगवदुन्मुखता के प्रति भगवत् कृपा गौण कारण है । कारण, भगवत् कृपा सांसारिक दुरन्त अनन्त सन्ताप से सन्तप्त अत्यन्त भगवद् वहिर्मुख व्यक्ति के प्रति स्वतन्त्र भाव से प्रवृत्त नहीं होती है । कारण, भगवद् वहिर्मुख जन के प्रति भगवत् कृपा होना असम्भव है । हृदय विकार विशेष को कृपा कहते हैं, दूसरे का दुःख से हृदय विभोर होने पर जो चित्त द्रव होता है उस से कृपा का आविर्भाव होता है । अर्थात् अपर का दुःख यदि हृदय को स्पर्श नहीं करता है तो, पर दुःख कातरता रूप कृपा का उद्भव कैसे हो सकता है ?
श्रीभगवान् को श्रुति प्रति पादन करती है- भगवान् परमानन्दैक स्वरूप, अव्हत पाप्मा एवं जीव स्वरूप से विलक्षण स्वरूप हैं। जीव जिस प्रकार दुःखादि एवं पापादि से मलिन वा लिप्त होता है, भगवान् उस प्राकृत दुःख वा पापादि से लिप्त नहीं होते हैं एवं मलिन भी नहीं होते हैं ॥ तेज स्वरूप सूर्थ्य को जिस प्रकार अन्धकार स्पर्श करने में अक्षम है। उस प्रकार अखण्ड आनन्द स्वरूप श्रीभगवान् के चित्त में अन्धकार
[[३८०]]
श्रीभक्तिसन्दर्भ
स्तिमिरायोगवत्तच्चेतस्यापि तमोमयदुःखस्पर्शनासम्भवेन तत्र तस्या जन्मासम्भवः । अतएव सर्व्वदा विराजमानेऽपि कर्तुमत्तमन्यथाकत्त ं समर्थे तस्मिंस्तद्विमुखानां न संसारसन्ताप- शान्तिः । अतः सत्कृपैवावशिष्यते । सन्तोऽपि तदानों यद्यपि संसारदुःख न स्पृश्यन्त एव, तथापि लब्धजागराः स्वप्नदुःखवत्त्वे कदाचित् स्मरेयुरपीत्यत स्तेषां सांसारिकेऽपि कृपा भवति, यथा श्रीनारदस्य नलकूवरमणिग्रीवयोः । तस्मात् प्रस्तुतेऽपि सांसारिकदुःखस्य स्वरूप दुःख का स्पर्श होना असम्भव है । अतएव श्रीभगवान के हृदय में सांसारिक जीव के प्रति कृपा का उदय होना असम्भव है । अतएव प्रभु भगवान् - कर्त्तुमतुमन्यथा कत्तुं समर्थ भगवान् अर्थात् करने में न करने में अन्यथा करने में समर्थ भगवान् जीव के हृदय में सर्वदा अन्तर्यामी रूप में विद्यमान होने पर भी भगवद् वहिर्मुख जन निकर की संसार दुःख निवृत्ति नहीं होती है। यदि भगवान् का हृदय सांसारिक जीव के दुःख से दुःखी होता तो समर्थ एवं कृपा स्वभाव भगवान् अवश्य ही जीव के दुःख को विदूरित कर देते । अतएव श्रीभगवत् कृपा भगवदुन्मखता हेतु कारण नहीं है । अतएव साधु कृपा ही भगवद् उन्मुखता के प्रति प्राथमिक कारण है । यहाँ प्रश्न हो सकता है कि-साधु कृपा से भगवदुन्मुखता होती है, किन्तु साधु के हृदय में परमानन्द कन्द श्रीभगवान् नित्य विराज मान हैं, सुतरां साधु हृदय को सांसारिक जीव का दुःख, स्पर्श कैसे करेगा ? अर्थात् जड़ीय वस्तु के सहित रचित मानस सम्बन्ध जनित जो सुख दुःख उपस्थित होते हैं - वे जिन के हृदय में आनन्दमय श्रीभगवान् की चरण नख चन्द्रिका के किरण द्वारा निखिल सन्ताप विदूरित हो गये हैं, सांसारिक जीव का दुःख उनके हृदय को कंपे स्पर्श करेगा ? चन्द्रोदय होने से जिस प्रकार सूर्य्य सन्ताप स्पर्श नहीं होता, उस प्रकार जिन के हृदय गगन निरन्तर श्रीहरि चरण नख ज्योत्स्ना से सुशीतल है, उनके हृदय में कैसे संसार ताप उपस्थित होगा ? उत्तर में कहते हैं, - सत्य है, यद्यपि साधु के हृदय में सांसारिक दुःख प्रविष्ट नहीं हो सकता है । तथापि जिस का जागरण निद्रा से हुआ है, उस के हृदय में स्वाप्निक दुःखानुभव रहता है, जाग्रत अवस्था में स्वाप्निक दुःख का अनुभव होता है, उस प्रकार, जो लोक महत् कृपा से संसार दुःख से मुक्त होकर भगवदनुभवानन्द में विभोर हैं, उन के हृदय में विगत सांसारिक दुःख का स्मरण समय समय पर होता है। उस से ही भगवद् वहिर्मुख जीवों के प्रति हृदय विगलित होकर कृपा होती है। जिस प्रकार भा० १० ६ नल कुवर मणिग्रीव के प्रति महर्षि नारद को कृपा वर्णित है । महापुरुष वृन्द की कृपा के प्रति सांसारिक दुःखानुभव की कारणता नहीं है, इसका कथन पूर्व में हुआ है। तथापि जिस प्रकार जल मग्न व्यक्ति, तीर में दैवात् उपस्थित होकर स्वास्थ्य लाभ करने पर भी अपर को तरङ्गवती नदी में निमज्जित होते देख कर स्वीय दुःखानुभव के द्वारा करुणा का उद्र ेक होता है, एवं जल मग्न व्यक्ति को उद्धार करने के निमित्त सक्रिय प्रचेष्ट भी होती है। उस प्रकार संसार दुःख से उत्तीर्ण होकर भगवदनुभवानन्द में विभोर होने पर भी सांसारिक जन के दुःख को देखकर महत् का कोमल चित्त विगलित होता है, एवं उस को उद्धार भी करते हैं। उस का ही दृष्टान्त श्रीपाद देवर्षि नारद की नलकुवर मणिग्रीव के प्रति अहैतुकी करुणा । अतएव कृपा के प्रति सांसारिक दुःखानुभव की कारणता प्रस्तुत दृष्टान्त में नहीं है । किन्तु परमेश्वर की कृपा, - “श्रीभगवान् ही मेरा एक मात्र आश्रय है” इस प्रकार दैन्यात्मिका भक्ति के सम्बन्ध में ही होती है। अर्थात् जब तक भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों में ऐकान्तिक भाव से शरणागत होकर “श्रीकृष्ण को छोड़कर मेरा अन्य आश्रय नहीं है” इस प्रकार दोन भाव का उदय नहीं होता है, तब तक श्रीकृष्ण कृपा का उदय नहीं होगा। जिस प्रकार गजेन्द्र प्रभृति के प्रति दैन्योदय होने के कारण ही कृपा हुई है । किन्तु नारकी प्रभृति के प्रति भगवत् कृपा नहीं होती है । कारण, नारको प्रभृति क्लिष्ट जीवों में गजेन्द्र प्रभृति के समान ऐकान्तिकी भगवत् शरणा गति
श्रभक्तिसन्दर्भः
[[३८१]]
तद्धेतुत्वाभावात् परमेश्वरकृपा तु, स एवात्र मम शरणमित्यादिदैन्यात्मक भक्तिसम्बन्धेनैव जायते, यथा गजेन्द्रादौ व्यतिरेके नारक्यादौ । भक्तिहि भक्तकोटिप्रविष्ट तदार्द्रीभावयितृ- तच्छक्तिविशेष इति विवृतं विवरिष्यते च । दैन्य-सम्बन्धेन च साधिकमुच्छ लिता भवतीति तत्र तदाधिक्यम् । तस्माद् या कृपा तस्य सत्सु वर्त्तते, सा सत्सङ्गवाहनैव वा सत्कृपावाहनव वा सती जीवान्तरे संक्रमते, न स्वतन्त्रेति स्थितम् । तथैव चाहुः (भा० १०।२।३१)
।
(१८०) “स्वयं समुत्तीर्य्यं सुदुस्तरं द्यमन्, भवार्णवं भीममदासौहृदाः ।
भवत्पदाम्भोरुहनावमन्त्र ते, निधाय याताः सदनुग्रहो भवान् ॥ " ५३० ॥
नहीं है । भगवद् गीता में भी इस प्रकार अभिप्राय सुव्यक्तहुआहैISPIRE
“तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत !
ए
तत् प्रसादात् परां शान्ति स्थानं प्राप्स्यसि शाखतम् ॥”
हे अर्जुन ! सर्व भाव से उन सर्व नियामक परमेश्वर की शरण ग्रहण करो । निष्किञ्चन भाव से शरण ग्रहण करने पर परमेश्वर के हृदय में कृपोद्र के होगा एवं उस करुणा से पराशान्ति एवं शाश्वत स्थान लाभ करोगे ।
इस से सुस्पष्ट प्रतीत होता है कि-शरणागति के द्वारा ही श्रीभगवत् कृपा को प्राप्त कर सकते हैं। भक्त के प्रति श्रीभगवान् की जो कृपा होती है, उसका कारण ही है-भक्ति । “भक्तिहि भक्त कोटि प्रविष्ट तदाद्र भावयित तच्छक्ति विशेषः " भक्ति, श्रीभगवान् को एक विशेष शक्ति है । यह शक्ति जब तक श्रीभगवत् स्वरूप में अवस्थान करती है, तब उस को शक्ति कहते हैं । वह शक्ति भक्त हृदय रूप आधार के साद्गुण्यसे एक अनिर्वचनीय क्षमता मण्डित होती है। जो श्रीभगवान् के हृदयको भक्तके प्रति विशेष रूप से विगलित कर देती है। इसका वर्णन पहले हुआ है, एवं प्रीति सन्दर्भ में भी इस का विशेष वर्णन होगा ।
यह
विशेष शक्ति- दैन्य सम्बन्ध में अत्यधिक उच्छलिता होती है । जहाँ जितने परिमाण में दैन्याधिक्य प्रकट होता है । वहाँ उतने परिमाण में भक्ति का अधिवय प्रकट होता है । दैन्य ही भक्ति का परिमापक है । दैन्य के द्वारा ही भक्ति के न्यनाधिक्य का परिचय लाभ होता है । अतएव श्रीभगवान् की जो कृपा साधु वृन्द में विद्यमान है, वह भगवत् कृपा ही सत् सङ्ग वाहना होकर ही हो अथवा सत् कृपा वाहना होकर ही हो, भगवद् वहिर्मुख जीव गण में संक्रमित होती रहती है । किन्तु स्वतन्त्र रूप से भगवत् कृपा वहिर्मुख जीव के प्रति सङ्गता नहीं होती है । उस प्रकार ही भा० १० २।३१ में ब्रह्मादि देवगण कंस कारागार में श्री देवकी देवी के हृदय गगन में श्रीकृष्ण नवजलधर को लक्ष्य करके कहे थे-
(१८०) “स्वयं समुत्तीर्य्य सुदुस्तरं द्य मन्, भवार्णवं भीममदचसौहृदाः ।
भवत्पदाम्भोरुहनावमत्र ते, निधाय याताः सदनुग्रहो भवान्
॥ “५३० ॥
टोका-ननु तेन पोतेन पूर्वेचेत् पारं गतास्तदानीन्तनानां का गतिस्तत्राहुः । स्वयमिति । अयमर्थः । हे द्यमन् ! स्व प्रकाश ! त्वत्पादपोतसा शिध्यमात्रेण भवाम्बुधौ वत्सपदमावेजाते अतस्तनिरपेक्षं स्वय- मेवान्येषां भीमं दुस्तरमपि भवार्णवं समुत्तीर्य्यं भवत् पदाम्भोरुहरूपां नावमत्रैव निधाय भक्तिमार्गसम्प्रदायं प्रवर्त्स्न्येत्यर्थः । पारं याताः । तत् किम् ? यतोऽदासौहृदाः सर्व भूतेषु अति प्रीति युक्तः । अतस्ते अन्येषां
[[1]]
FR
[[३०२]]
हे द्यमन् ! स्वप्रकाश ! भवत्पदाम्भोरुह-लक्षणा या नौर्भवार्णवतरणोपायस्तामत्र भवार्णवपारे निधाय उत्तरोत्तरजनेषु प्रकाश्येत्यर्थः । ननु कथं तां न स्वयं प्रकाशयामि, कथमिव तेषामपेक्षा ? तबाह, - सद्भिरेव द्वारभूतैरन्याननुगृह्णाति यः स सदनुग्रहो भवानिति, यद्वा, सन्त एवानुग्रहो यस्य सः । तवानुग्रहो यः प्रापञ्चिके चरति, स तदाकारतयैव चरति, नान्य- रूपतयेत्यर्थः । यथोक्तं रुद्रगीते (भा० ४।२४।५८) -
“अथानघाङ्घ्रस्तव कीत्तितीर्थयोरन्तर्वहिःस्नानविधूतपाप्मनाम् ।
भुतेष्वनुक्रोशसुसत्त्वशीलिनां, स्यात् सङ्गमोऽनुग्रह एष नस्तव ॥ " ५३१ ॥ इति । सत्स्वनुग्रहो यस्येति व्याख्यानेऽपि तद्विमुखेष्वसत्सु तवानुग्रहो नास्तीति प्राप्त ेः सद्द्वारंव तत्प्रकाशनमुचितमित्येवायाति, तदेवस्-
तरणाय निधायेति । कथं तत् पाद पोतश्रयण मात्रेण तीर्णा अत उक्तम् भवान् सदनुग्रहः । सतो भक्तानुगृह्णातीति ।
ए
हे चुमन् ! स्व प्रकाश, आप की चरण कमल लक्षणा जो तरणी, संसार सागरोत्तीर्ण होने का उपाय है, उस को संसार सागर के पार में रख कर ही अर्थात् जो सब जीव, भविष्य में आयेंगे, उन सब के निकट आप के चरण कमल को साधन भक्ति रूपी तरणी को प्रकाश कर, अर्थात् साधन भक्ति सम्प्रदाय को जगत् में प्रवर्तन करके माया उत्तीर्ण होकर निज अभीष्ट भगवत् धाम में गमन करते हैं, प्रश्न हो सकता कि- श्रीभगवान् स्वयं निज चरण कमल को साधन भक्ति का प्रचार क्यों नहीं करते हैं ? एवं साधु वृन्द की अपेक्षा क्यों करते हैं ? अर्थात् साधन भक्ति का प्रचार जगत् में वे सब ही करेंगे, इस प्रकार अपेक्षा क्यों करते हैं ? उत्तर में कहा है- “सदनुग्रहो भवान्” अर्थात् साधु गण को निमित्त करके अन्य जीव अनुग्रह करते हैं, अतः भगवान् का अपर नाम सदनुग्रह है । अथवा साधु गण हो जिनका अनुग्रह हैं, अर्थात् वृन्द को साधुगण ही भगवान् की कृपा की मूर्ति हैं। साघुसङ्ग हो श्रीभगवत् कृपा है। श्रीभगवान् के जो अनुग्रह जगत्
जीवों के प्रति प्रकाशित होता है, वह साधु सङ्ग के आकार में ही प्रकटित होता है, अपर किसी प्रकार से प्रापश्चिक जीव के प्रति आप की कृपा प्रकटित नहीं होती ।
अतएव (भा० ४।२४।५८) रुद्रगीत में उक्त है-
“अथानघाङ्घ्र स्तव कीत्तितीर्थयो-, रन्त र्वहिःस्नान विधूतपाप्मनाम् । भूतेष्वनुक्रोशसु सत्त्वशीलिनां, स्यात् सङ्गमोऽनुग्रह एष नस्तव ॥ " ५३१ ॥
टीका-अत अतो हेतोः । अनघो अघहरौ, अङ्घ्री यस्य तस्य । तव कीर्त्तिर्यशः तीर्थं गङ्गा, तयोः क्रमेण अन्तर्वहिः स्न नाभ्यां विधूतं पाप्मा येषाम्, अतएव भूतेषु अनुक्रोशः कृपा सुसत्त्वञ्च रागादिरहितं चित्तं शीलञ्च अ. जवादि विद्यते येषां तेषां सङ्गमोऽस्माकं स्यात् एष एव नः त्वदनुग्रहः ।
हे नाथ ! आप के चरण युगल सर्व पाप हारी हैं, आप की कीत्ति हो तीर्थ है, उस में स्नान कर जिन्होंने अन्तर बाहर के निखिल पापों को विधौत किया है । अतएव प्राणि मात्र के प्रति कृपा एवं सारल्य प्रभृति गुणों से जो सब विभूषित हैं, उन के सङ्ग हो आप का अनुग्रह है । अर्थात् आप का भक्त सङ्ग हो आप का अनुग्रह है । कतिपय व्यक्ति “स्वयं समुत्तीर्य्य” श्लोकस्थ “सवनुग्रहो भवान्” पद का अर्थ करते हैं- “सत्सु अनुग्रहो यस्य " अर्थात् साधु वृन्द में अनुग्रह है, जिस का। इस प्रकार व्याख्या करने पर भी अर्थ
प्र
[[३८३]]” जायमानं हि पुरुषं पश्येद् यं मधुसूदनः । सात्त्विकः स तु विज्ञ ेयो भवेन्मोक्षार्थनिश्चितः ॥ ५३२॥ इति मोक्षधर्म्मवचनमपि सत्सङ्गानन्तरजन्मपरमेव बोद्धव्यम् ॥ देवाः श्रीभगवन्तम् ॥