१७६

३१२ १७६

अथ तस्या एव प्रकारान्तरेण स्थापनाय प्रकरणान्तरं यावत्तल्लक्षणप्रकरणम् । तदेवं परमदुर्लभस्वरूपं परमदुलभफलञ्च किञ्चनाख्य- साक्षाद्भत्ति रूपं

किञ्चनाख्य-साक्षाद्भत्ति साम्मुख्यं कथं स्यादिति वक्तुं साम्मुख्यमात्रस्य निदानमुपलक्षयति, (भा० १०/५११५३) -

द्वारा आवृत होता है, उसी प्रकार श्रीभगवान् से वहिर्मुख जीव भी माया द्वारा अभिभूत होता है । जीव जो भगवान् का अंश है, उस विषय में हेतु गर्भ विशेषण रूप में ’ अवहिसंवरणं" पदोल्लेख किया गया है । अर्थात् जिस के बाहर भीतर कोई आवरण नहीं है, किन्तु उपाधि द्वारा संवृत हैं । यहाँ उपाधि शब्द का अर्थ-शक्ति है, कारण, भगवान् का विशेषण, “अखिल शक्ति धर” पद है । इस से प्रति पादित होता है कि भगवान् कभी भी निःशक्तिक- अथवा निर्द्धम्मिक नहीं हैं। उन में अनन्त शक्ति हैं, यह शक्ति समह- अन्तरङ्गा वहिरङ्गा एवं तटस्था भेद से त्रिविध हैं। उस के मध्य में जीव, उनकी तटस्था शक्ति है, इस रीति से कवि, पण्डित जीव के स्वरूप को जान कर श्रद्धायुक्त हृदय में आप के चरणों की उपासना करते रहते हैं । जो विश्वास उन सब का है, उस के प्रति हेतु गर्भ विशेषण उल्लेख करते हैं- “निगमावपनं” अर्थात् समस्त वेदों के वीज उज्जीवन का आश्रय क्षेत्र हैं, अर्थात् समस्त वेद वीजोद्गमन का मुख्य आश्रय क्षेत्र हैं । अर्थात् शास्त्र योनि हैं । अतएव नित्य एकमात्र आप के आश्रय जीवन होकर भी, अर्थात् आप के आश्रय के विना जिस जीव का जीवत्व स्वतन्त्र रूप से रक्षित हो ही नहीं सकता, यह सब जीव आप के वैमुख्य दोष हेतु संसार दुःख ग्रस्त हैं। यह संसार दुःख भी आप के चरणों की उपासना का प्रभाव से स्वयं पलायन करता है । श्रुतियों ने श्रीभगवान् के श्रीचरणों के विशेषण रूप में ‘अभवन्" पद का उल्लेख किया है । जिस चरणों का आश्रय ग्रहण करने से संसारभय नहीं रहता है । इस प्रकार आपके श्रीचरण युगल हैं । अथवा भजनीय पदार्थ श्रीभगवान् के श्रीचरण युगल हैं, जो नित्य हैं, साधक वृन्द के हितार्थ ब्रह्म की रूप कल्पना के समान नहीं हैं, इस को प्रकाश करने के निमित्त-भक्ति का अनश्वरत्व प्रतिपादन करते हैं। “अभवम्” जन्म रहित आप के श्रीचरण हैं । अतएव श्रुति वाक्य के द्वारा अकिञ्चन संज्ञक भक्ति ही सर्व श्रेष्ठ अभिधेय है - यह प्रतिपादित हुआ ।

श्रुति वृन्द श्रीभगवान् को कही थीं ॥ १७८ ॥

श्रुति

३१३ १७६

अनन्तर उस विशुद्धा अहैतुकी निर्गुणा भक्ति को प्रक रान्तर से स्थापन करने के निमित्त अन्य एक प्रकरण आरम्भ करते हैं। यह प्रकरण विशुद्ध भक्ति का लक्षण वर्णन पर्थ्यन्त होगा । ऐसा होने पर अर्थात् परम दुर्लभ स्वरूप, परम दुर्लभ फल अकिञ्चन ख्या भक्ति ही यदि साक्षात् भगवत् साम्मुख्य रूप होती है, तो उस प्रकार भक्ति लाभ का उपाय क्या है ? इस के उत्तर में परतत्त्व साम्मुख्य मात्र का मूल निदान को कहते हैं । भा० १० ५१।५३ में उक्त है-

श्रीभक्ति सन्दर्भः

[[३७०]]

(१७६) “भवापवर्गो भ्रमतो यदा भवे, ज्जनस्य तर्हच्युत सत्समागमः ।

सत्सङ्गमो यहि तदैव सद्गतौ, परावरेशे त्व य जायते मतिः ॥ ५२१ ॥

यदा भ्रमतः संसरतो जनस्य भवापवर्गो भवेत् संप्राप्तकालः स्यात्, तदा सत्सङ्गमो भवेत् । अत्र च यदा सत्सङ्गमो भवेतदा भवापवर्गो भवेदिति वक्तव्ये वैपरीत्येन निद्दशरतत्र सत्सङ्गमस्य शीघ्रतयावश्यकतया च हेतुत्वविवक्षया । अतएवातिशयोक्तिनामालङ्कारश्य चतुर्थो भेदोऽयमित्यालङ्कारिकाः, तदुक्तं तद्विवृत्तौ - “चतुर्थी सा कारणस्य गदितु शीघ्र-

I

(१७६) “भवापर्गो भ्रमतो यदा भवे, ज्जनस्य तर्ह्यच्युत सत्समागमः ।

सत्सङ्गमो यहि तदैव सद्गतौ, परावरेशे त्वयि जायते मतिः ॥ ५२१॥

टीका - तदेवमष्टभिः श्लोकैरी शवहिर्मुखानां संसारं प्रपञ्चच भक्तचा तन्निवृत्ति क्रममाहभवापवर्ग इति । भो अच्युत ! भ्रमतः संसरतो जनस्य यदा त्वदन ग्रहेण भवस्य बन्धस्य अपवर्गोऽन्तो भवेत्, प्राप्तकालः स्यात्, तदा सतां सङ्गमो भवेत् । यदा च सत् सङ्गमो भवेत्, तदा सर्वसङ्गः निवृत्त्या कार्य कारण नियन्तरित्वयि भक्तिर्भवति ततो मुच्यत इत्यर्थः ।

श्रीमुचुकन्द महाराज श्रीभगवान् को कहे थे - हे नाथ ! संसार चक्र में भ्रमण शील जीव का जब भवापवर्ग होता है, अर्थात् संसार क्षय काल उपस्थित होता है, तब साधु समागम होता है । तात्पर्य यह है कि-अनादि वहिर्मुख जीव में ऐसा कोई साधन सम्पत्ति नहीं है, जिस से उसकी संसार निवृत्ति हो, जीव-सम्पत्ति द्वय से सर्वदा धनी है । यह सम्पत्ति स्थावर अस्थावर भेद से द्विविध हैं, भगवद् वहिर्मुखता स्थावर सम्पत्ति है, जो अनादि काल से भगवद् वहिर्मुख जीव में अचश्चल भाव से विद्यमान है, उस वहिर्मुखता दोष मूलक पाप पुण्य रूप सम्पत्ति के द्वारा क्षय एवं सञ्चग्र होता रहता है, भोग से क्षय, एवं अ.चरण से सञ्चय होता है । उक्त सम्पत्ति के द्वारा संसार निवृत्ति नहीं होती है, अतः जीव अनादि काल से भगवद् वहिर्मुख होकर संसार में भ्रमण करता रहता है। कारण निर्णय करते हैं-संसार क्षय के अति ऐकान्तिक कारण, सत्सङ्ग ही है । किन्तु “भवापवर्गो भ्रमतो यदाभवेत् जनस्य तर्ह्य च्युतसत् समागमः ॥ श्लोक में कहा गया है- पहले संसार क्षय एवं पश्चात् सत् सङ्गम होता है ! उत्तर में कहते हैं - सत्सङ्ग हो संसार क्षय प्राप्ति का एकमात्र अव्यभिचारि कारण है, उस को दर्शाने के निमित्त ही विपरीत क्रमसे अर्थात् पहले संसारक्षय को कह कर पश्चात् सत् सङ्गम का वृत्तान्त कहा गया है। इस श्लोक में साधुसङ्ग को संसार बन्धन मोचन का मूल कारण कहा गया है। अतएव आलङ्कारिकगण इस को चतुर्थ प्रकार अतिशयोक्ति अलङ्कार कहते हैं, चतुथ प्रकार अतिशयोक्ति अलङ्कार का लक्षण इस प्रकार है-

“चतुर्थी सा कारणस्य गदितुं शीघ्रकारिताम् ।

या हि कार्य्यस्य पूर्वोक्तिः ॥ "

अर्थात् कारण की शीघ्रकारिता कथन हेतु जहाँपर कारण उल्लेख करने के पूर्व में कार्य का उल्लेख किया जाता है- उसको चतुर्थ प्रकार अतिशयोक्ति अलङ्कार कहते हैं । प्रस्तुत श्लोक में वर्णित यद्यपि संसार क्षय प्राप्ति का मूल कारण साधुसङ्ग है, एवं संसार क्षय, — उसका कार्य्य है, तथापि साधुसङ्ग इतन सत्वर संसार क्षय कर देता है, जिस से अनुसन्धान का अवसर ही नहीं मिलता है कि- पहले संसार क्षय हुआ, अथवा पहले साधुसङ्ग हुआ। इस अभिप्राय से ही पूर्व में संसार क्षय की कथा का उल्लेख करके अनन्तर साधुसङ्ग को कहा गया है । यहाँ ज्ञातव्य यह है कि -संसार क्षय करना साघुरुङ्ग का मुख्य कार्य्यं

[[३७१]]

कारिताम् । या हि कार्य्यस्य पूर्वोक्तिः” इति । तथोक्तं नल- कूवर-मणिग्रीवौ प्रति श्रीभगवता ( भा० १०१११४१ ) -

‘साधूनां समचित्तानां सुतरां मत्कृतात्मनाम् ।

दर्शनान्नो भवेद्बन्धः पुंसोऽक्ष्णोः सवितुर्यथा ॥” ५२२॥ इति ।

तत्र हेतुः - यह यदा सत्सङ्गमस्तदैव परावरेशे त्वयि मतिर्भवति । तद्वौ मुख्यकरानादि- सिद्धतज्ज्ञानसंसर्गाभावान्ते तत्साम्मुख्यकरं तज्ज्ञानं जायत इत्यर्थः । अतएवोक्तं श्रीविदुरेण

नहीं है, किन्तु आनुषङ्गिक कार्य्य अवान्तर कार्य्य है । किन्तु साधुसङ्ग का मुख्य कार्य्यं श्रीहरिचरणोंमें प्रीति उत्पन्न कराना है । पाककार्य्यं हेतु चुल्ली प्रज्वालित करने से जिस प्रकार शीत भय निवृत्ति एवं वस्तु प्रकाश प्रभृति कार्य्य आनुषङ्गिक रूप से होते रहते हैं, उस प्रकार ही जानना होगा ।

पहले साधुसङ्ग की कथा लिखित होने पर उस का मुख्य कार्य्य संसार निवृत्ति होती । वस्तुतः जड़ीय वस्तु के सहित मानसिक सम्बन्ध स्थापन को संसार कहते हैं, उक्त सम्बन्ध का ध्वंस को संसार क्षय कहते हैं, संसार क्षय-अन्धकार तुल्य है, एवं साधुसङ्ग सूर्य्य तुल्य है । सूर्योदय के आभास से ही जिस प्रकार अन्धकार अपसारित होता है, उस प्रकार सूर्य्य स्थानीय साधुसङ्गाभास से ही अन्धकार स्थानीय संसार क्षय होता है, उक्त अलङ्कार प्रयोग का हेतु है- जब सत्सङ्ग होगा तभी उसका मुख्य कार्य्यं रूप श्रीहरिचरणों में प्रीति का उदय होगा । इस अभिप्राय से ही श्लोक में कहा गया है-

“सत्सङ्गमो यहि तदैव सद् गतौ, पराव रेशेत्वयि जायते रतिः ।”

अर्थात् जिस समय सत्सङ्ग होगा उसी समय परावरेश आप में रति का आविर्भाव होगा। इस से सूचित होता है कि- भगवद् विमुखता रूप अनादि सिद्ध भगवद्विषयक ज्ञान का प्रागभाव ध्वंस होकर भगवत् साम्मुख्य रूप भगवद्विषयक ज्ञान आविर्भूत होता है । अभाव द्विविध हैं, अन्योन्याभाव एवं संसर्गाभाव । संसर्गाभाव भी त्रिविध हैं, प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, एवं अत्यन्ताभाव । ध्वंसाभाव एवं अत्यन्ताभाव नित्य है, प्रागभाव, अनादि काल सिद्ध होने पर भी विनाशी है । तज्जन्य भगवत्तत्त्व ज्ञान का अभाव जीव में अनादि काल से विद्यमान होने पर भी साधुसङ्ग रूप कारण के द्वारा उक्त वैमुख्य दोष विनष्ट होता है। विनष्ट होने के पश्चात् पुनर्वार वैमुख्य दोषोद्गम नहीं होता है । उस प्रकार ही भा० १०० १०.४१ में नल कूवर मणिग्रीव के प्रति श्रीभगवान् ने कहा है

है-

“साधूनां समचित्तानां सुतरां मत्कृतात्मनाम् ।

दर्शनान्नो भवेद्बन्धः पुंसोऽक्षणोः सवितुर्यथा ॥ ५२२ ॥

टीका - युक्तमेवैतदित्याह - साधूनां स्वधर्म वत्तिनां समचित्तानां आत्मविदां सुतरां मत्कृतात्मनां मर्थ्यापितचित्तानाम् । तेषां कृपातिरेकात् सुतरामित्युक्तम् । सवितुर्दर्शनाद् अक्ष्णोर्यथा बन्धो न भवेत् तद्वत् ।

मुझ में अर्पित चित्त, स्वर्गापवर्गनरक में तुल्य दृष्टि सम्पन्न साधुवृन्द का दर्शन से सूर्योदय होने से जिस प्रकार नेत्र का अन्धकार जनित बन्धन विनष्ट होता है । उस प्रकार जीव का भवबन्धन विनष्ट होता है । अर्थात् जिस समय साधुसङ्ग होता है, उस समय ही भगवद् वैमुख्य दोष निवृत्ति होकर भगवत् साम्मुख्य होता है, एवं परमेश्वर में रति का आविर्भाव होता है । भगवद् वैमुख्य कर भगवद् ज्ञानाभाव, अर्थात् अनादि परम्परासिद्ध भगवत्तत्त्व ज्ञान का प्रागभाव, साधुसङ्ग के द्वारा विदूरित होने से ही भगवतत्त्व ज्ञान अर्थात् भगवत् साम्मुख्य होता है । अतएव श्रीविदुर ने भा० ३।५।३ में कहा है ।

[[३७२]]

( भा० ३।५।३) -

श्रीभक्तिसन्दर्भ

“जनस्य कृष्णाद्विमुखस्य देवा - दधर्म्मशीलस्य सुदुःखितस्य ।

अनुग्रहायेह चरन्ति नूनं, भूत नि भव्यानि जनार्द्दनस्य ॥ ५२३ ॥

अत्र देवात् प्राचीनकर्म्मणो हेतोस्तदावेशादधर्म्मशीलस्य भगवद्धर्म्मरहितस्येत्यर्थः । मूलपद्ये ‘यहि तदैव’ इति निद्दशान्न कालविलम्बेन । तत्र चैवकारान्नान्यदा कदाचिदपीत्यर्थः । तेन तन्नतौ हेतुः, – सत्गतौ, यत्र यत्र सन्तः सङ्गच्छन्ते, तत्र तत्र गतिः स्फुरणं यस्य तस्स्त्वियोति । तथा चेतिहास-समुच्चये-

यत्र रागादिरहिता वासुदेवपरायणाः । तत्र सन्निहितो विष्णुर्नृपते नात्र संशयः ॥ ५२४ ॥ इति । सतां गतावित्यत्र व्याख्यानेऽपि असतां त्वसौ न गतिः, अतरतद्द्वारैवान्येषां तल्लाभो

“जनस्य कृष्णाद्विमुखस्य दवा, - दधर्मशीलस्य सुदुःखितस्य ।

अनुग्रहायेह चरन्ति नूनं, भूतानि भव्यानि जनार्द्दनस्य ॥ ५२३ ॥

टीका - देवात् प्राचीनात् कर्मणो निमित्तभूतात् कृष्णाद्विमुखस्य, अतः अधर्मशीलस्य, अतः सुदुःखितस्यानुग्रहाय भव्यानि मङ्गलानि भूतानि चरन्ति । भवन्त परोपकार स्वभावा एव इत्यर्थः ।

प्रभो ! प्राक्तन कर्महेतु कृष्णवहिर्मुख जीव अधर्म शोल होता है, अतः आप सब श्रीकृष्ण के मङ्गलमय भक्त वृन्द, उस प्रकार जीव को अनुग्रह करने के निमित्त इस संसार में विचरण करते रहते हैं । यहाँ, अधर्म शील शब्द से भगवद्धर्म शून्य अर्थ को ही जानना होगा । अर्थात् भगवद् भक्ति शून्य जीव के हृदय में भक्ति भाव उबुद्ध करने के निमित्त आप के समान भगवद् भक्त जन इस जगत् में विचरण करते रहते हैं । साधु कृपा से ही भगवद् वहिर्मुख जन श्रीभगवान् में उन्मुखला को प्राप्त करता है, इस श्लोक के द्वारा वह प्रमाणित हुआ ।

मूल श्लोक में अर्थात् “भवादवर्गोभ्रमतो यदा भवेत्” श्लोक में “यह तदेव” इस प्रकार उल्लेख होने के कारण, - अर्थात जिस समय सत्सङ्ग होगा, उस समय ही श्रीहरि चरणों में उन्मुखता होगी, इस प्रकार निर्दोश होने के कारण, सत्सङ्ग समकाल में ही जो श्रीहरि चरणों में उन्मुखता होती है । काल विलम्ब नहीं होता है, यह सूचित हुआ । उस में भी ‘तदेव” एव कार का प्रयोग होने से अन्य किसी भी समय में चित्त की भगवदुन्मुखता नहीं हो सकती है, यह प्रदर्शित हुआ । सत्सङ्ग से श्रीभगवदुन्मुखता क्यों होती है । उस के प्रति हेतु गर्भ विशेषण प्रयुक्त हुआ है- ‘सद्गतौ’ अर्थात् जहाँ जहाँ साधुगण एकत्र होते हैं, वहीं श्रीभगवान् की स्फूति होती है, एवं जहाँ साधुगण, मिलित नहीं होते हैं, वहाँ श्रीभगवान् की स्फूर्ति नहीं होती है, इस को सूचित करने के निमित्त श्रीभगवान् के विशेषण रूप में सद्गतौ’ पदोल्लेख किया गया है, इतिहास समुच्चय में लिखित है-

‘यत्र र गादिरहिता वासुदेवपरायणाः ।

तत्र सन्निहितो विष्णुन पते नात्र संशयः ॥ “५२४॥

हे राजन् ! जहाँपर रागद्वेष शून्य वासुदेव परायण भक्त गण गमन करते हैं। वहाँ श्रीविष्णु भी गमन करते हैं । इस में सन्देह नहीं है । कतिपय व्यक्ति- ‘सद्गति’ पद में षष्ठी तत् पुरुष समास करके साधु वृन्द के जो प्राप्य, इस प्रकार अर्थ करते हैं, इस पक्ष में भगवान् साधु गण की ही गति हैं, असाधु

को

श्रीभक्ति सन्दर्भः

[[३७३]]

युक्त इनि पूर्व्ववदेव । पिङ्गलाया अपि सत्सङ्गो (भा० ११८ ३४ ) - " विदेहानां पुरे ह्यस्मिन्नहमेकैव मूढधीः” इत्यत्र व्यक्तोऽस्ति । टीका च - “सत्सङ्गतौ सत्यामध्यहो मम मोह इत्याह-विदेहानामिति” इत्येषा । तदेवं यत्र नोपलभ्यते सत्सङ्गस्तत्राप्याधुनिकः प्राक्तनो वा पारम्परिको वानुमेय एव । अत्र कृत श्रीनारदादि दर्शनादेरपि देवतादेः श्रीनल- कूवरादिवत्त दृशत्वप्राप्तिर्न श्रूयत इत्यत एवं विवेचनीयम् - यद्यप्यपराधसद्भावो वर्त्तते पुरुषे, तदा तद्दोषेण सत्सु निरादराणां साधारण-पुण्यादि दृष्टीनाश्च तद्दोषशान्त्यर्थं सत्सङ्गस्य भगवत्साम्मुख्यकारणत्वेऽपि तत्कृपा साहाय्यमपेक्ष्यते, निरपराधत्वे सति सत्सङ्गेनैव जात- परमोत्तमदृष्टीनां तु तेषां मनो ऽवधानाभावेऽपि सत्सङ्गमात्र तत्कारणमिति । अतः सापराधानेवाधिकृत्यं क्तमजानज देवैः (भा० ३।५।४४ ) -

“तात् वै ह्यसद्वृत्तिभिरक्षिभिर्ये, पराकृतान्तर्मनसः परेशः ।

अथो न पश्यन्तु रुगाय नूनं, ये ते पदन्यासविलास लक्ष्म्याः ॥ " ५२५॥ इति ।

गति नहीं हैं, इस प्रकार अर्थ ध्वनित होता है । अतएव साधुसङ्ग द्वारा ही वहिर्मुख जीव श्रीभगवान् को प्राप्त कर सकता है, तद् भिन्न उपाय से भगवद् प्राप्ति नहीं हो सकती है, इस प्रकार अर्थ होता है । यहाँपर कह सकते हैं कि भा० १२८।३४ में वर्णित है “विदेहानां पुरे ह्यस्मिन्नहमेकैव मूढधीः

[[11]]

विदेहनगरवासिनी पिङ्गला नाम्नी वेश्या का अनुराग श्रीकृष्ण में हुआ था । किन्तु सत्सङ्ग का वर्णन नहीं है, अतः कैसे कहा जा सकता है कि- श्रीभगवदुन्मुखता के प्रति सत्सङ्ग ही कारण है ? समाधान हेतु कहते हैं पिङ्गला का भी सत्सङ्ग हुआ था । भा० ११३८ । ३४ “विदेहानां पुरे ह्यस्मिन्नह मे कंव मढ़धी : " इस श्लोक को टोका में स्वामिपादने लिखा है “सत्सङ्गतौ सत्यामय हो मम मोहः " अर्थात् सत्सङ्ग होने पर भी पिङ्गला का मोह हुआ था । “अहो ! मैं मूढ़ बुद्धि हूँ” अतएव पिङ्गला का सत्सङ्ग नहीं था, अथच श्रीकृष्णानुराग हुआ था, इस प्रकार सन्देह का अवसर नहीं है । सत्सङ्ग हो जब कारण है, तब जहाँ सत्सङ्ग दृष्ट नहीं होता है, अथच, भगवदुन्मुखता है, वहाँ जन्मान्तरीय, वा वर्तमान जन्म में हो, अज्ञात रूप से साधु सङ्ग सम्पन्न हुआ है, किंवा परम्परा क्रम से साधुसङ्ग हुआ है, इस प्रकार अनुमान करना चाहिये । उक्त कार्य कारण भाव में सुमहान् संशय हो सकता है । यदि सत्सङ्ग ही भगवत्स्मृति के प्रति कारण है तो, इन्द्रादि देवगण - श्रीनारद प्रभृति महापुरुष वृन्द के दर्शन लाभ करके भी श्रीभगवान् में भक्ति लाभ करने में सक्षम नहीं हैं ? अथच नल कवर मणिग्रीव, देवर्षि की कृपा से श्रीकृष्ण दर्शन करने में सक्षम हुये थे । एवं भक्ति लाभ भी किये थे । यहाँ का समाधान यह है-यदि अपराध रूप प्रत्यवाय हो तो, साधु वृन्द के प्रति आदर बुद्धि नहीं होती है, महापुरुष के प्रति साधारण पुण्यवान् जन दृष्टि होती है । इससे महत् का अनादर एवं साधारण पुण्यात्मा बुद्धि होने से उभय विध अपराध होता है । अतएव साधु सङ्ग - भगवदुन्मुखता सम्पादन करने में अक्षम होता है, उक्त दोष निवृत्ति हेतु एवं भगवदुन्मुखता सम्पादन हेतु उन महापुरुष वृदि का रुङ्ग, एवं उन महापुरुषों की कृपा अपेक्षणीय है । और यदि कोई अपराध न हो तो, साधुङ्ग मात्र से ही जिन की महापुरुषों के प्रति परम उत्तम दृष्टि हुई है, उनके मन का अवधान महापुरुषों के प्रति न होने से भी सत्सङ्ग मात्र से श्रीभगवान् में उन्मुख भाव उदित होता है । अतएव अपराधी जनको लक्ष्य करके अजानज देववृन्दने भा० ३।५।४५ में कहा है-

तावं ह्यसद्वृत्तिभिरक्षिभिर्ये, पराकृतान्तर्मनसः परेशः ।

[[३७४]]

ते तव पदन्यास विलासलक्ष्म्याः सम्बन्धिनो ये भक्ता इत्यर्थः । ते तान् नूनं प्रायो न पश्यन्ति, न कृपादृष्टिविषयीकुर्व्वन्तीत्यर्थः । कान् ? ये असद्वृत्तिभिः सापराधचेष्टैरक्षिभि- रिन्द्रियैः पराकृतान्तर्मनसो दूरीकृतान्तर्मुखचित्तवृत्तयो वहिग्मुखा इत्येवं व्याख्यानमप्यत्रानु- सन्धेयम् । अत्र साधारणासद्वृत्तित्वं न गृह्यते सर्व्वस्य तत्कृपायाः प्राक् तथाभूतत्वात् ‘जनस्य कृष्णाद्विमुखस्य देवात्’ इत्यादिकमविषयं स्यादिति । तस्मादनपर धासवृत्तौ तेषां कृपा प्रवर्त्तत एव । कथश्चिदवधानाभावेन तदप्रवृत्तावपि सङ्गमात्र णैव तेषां सन्मतिः स्यात् ।

a

अथो न पश्यन्त्युरुगाय नूनं, ये ते पदन्यासविला सलक्ष्म्याः ॥ ५२५॥

टीका - ननु यदि हृदिस्थस्यापि पदाब्जं केषाञ्चित् सुदूर तहि अन्येषामपि तथैव स्यात् अविशेषादित्या शङ्कयाहुः - तानिति । असद्वृत्तिभिर्वाहमुखैः अक्षिभिरिन्द्रियैः पर हृतं दूरमपहृतम् अन्तःस्थं मनोयेषां ते अथो अतएव ते नूनं तान् न पश्यन्ति । वे प्रसिद्धम् । कुतः पुनस्तेषां तत् सङ्गः स्यात् । कान् ? ते तव

। । पदन्यासो गमनं तस्य विलासो विभ्रमस्तस्य लक्ष्मीः शोभा तस्या ये । लीला कथनादिभिः शोभमानां- स्त्वद्भक्तानित्यर्थः । पथ इति लक्ष्या इति च पाठे त्वत्पदन्यास विलासो लक्ष्मी येषाम् तान पथः, स्वमार्ग- भूतात् सतः, मार्गान् वा श्रवणादीन् न पश्यन्तीत्यर्थः । यद्वा ये एवम्भूत भागवतास्ते तानुन्मत्तान् नूनं नैव पश्यन्तीत्यन्वयः । सत्सङ्गाभावेन हरिकथा श्रवणाभावात् हृविस्थितमपि तेषां सुदूरमिति भावः ॥

हे नाथ ! जो लोक, विषयाभिमुख इन्द्रिय वृत्ति समूह के द्वारा सतत हृदय में अन्तर्य्यामि रूप में विद्यमान आप से विमुख होकर अर्थात् सतत विषयोन्मुख एवं आप से पराङ्मुख होकर रहते हैं वे सब अपराधी होते हैं एवं भगवद् वहिर्मुख होते हैं। उन सब को आप के श्रीचरण कमल युगल के अनवरत विलास हेतु अनिर्वचनीय शोभा युक्त महापुरुष वृन्द कभी भी अवलोकन नहीं करते हैं। अतएव सत्सङ्ग के अभाव से वे सब आप के चरित्र श्रवण कीर्तनादि करने के सौभाग्य से वञ्चित होते हैं, अतऐव उन सब को उद्धार प्राप्त करने की कोई सम्भावना ही नहीं है । अभिप्राय यह है कि-जिन महापुरुषों के हृदय में श्रीभगवच्चरण कमलों की स्मृति विलसित है, वे सब महापुरुष वृन्द अपराधी भगवद् वहिर्मुख जन के प्रति कृपादृष्टि नहीं करते हैं । यह कथन साधारण जनगण को लक्ष्य करके नहीं हुआ है, कारण, जब तक मनुष्य के प्रति महत् की कृपादृष्टि निपतित नहीं होती है तब तक मनुष्य स्वाभाविक देहेन्द्रिय वृत्ति में अभ्यस्त रहते हैं, यह उन सब के पक्ष में दोषावह नहीं है, किन्तु महापुरुषों की कृपालाभ के पश्चात् ही भगवद् उन्मुखता एवं विषय वितृष्णा होती है । किन्तु यहाँपर भा० ३१५/३ में उक्त विदूर के कथन के सहित उक्त कथन का विरोध उपस्थित होता है-

e

“जनस्य कृष्णाद्विमुखस्य देवादधर्मशीलस्य सुदुःखितस्य ।

अनुग्रहायेह चरन्ति नूनं भूतानि भव्यानि जनार्दनस्य ॥

टीका- दैवात् प्राचीनात् कर्मणो निमित्तभूतात् कृष्णाद्विमुखस्य, अतः अधर्म शीलस्य, अतः सुदुःखितस्यानुग्रहाय भव्यानि मङ्गलानि भूतानि चरन्ति । भवतः परोपकार स्वभावा एव इत्यर्थः ।

विदुर महाशय ने मैत्रेय को कहा -भगवद् वहिर्मुख जनगण को अनुग्रह करने के निमित्त ही महा- पुरुष गण विचरण करते हैं, किन्तु ३१५३४५ के कथित है-भावद् वहिर्मुख जनगण के प्रति महापुरुषवृन्द अनुग्रह नहीं करते हैं । उभय वाक्य में विरोध सुस्पष्ट है । अतः समाधान करते हैं-यदि कोई व्यक्ति, अपराध शून्य होकर भगवद् वहिर्मुखता दोष युक्त होता है तो, साधु सङ्ग मात्र से ही उसकी भगवदुन्मुखता

[[३७५]]यत्र तु सापराधेऽपि स्वैरतयैव कृपां कुर्व्वन्ति, तस्यैव तन्मतिः स्यान्नान्यस्य, नलकूबरवत् साधारण-देवता वच्चेति । यथा श्रीभरतस्य रहूगणे यथा चोपरिचरवसोवृत्तं दिष्णुधर्मे । स हि देवसाहाय्यायैव दैत्यान् हत्वा विरज्य च भगवदनुध्यानाय पातालञ्च प्रविष्टवान् । तञ्च

। निवृत्तमपि हन्तु लब्धच्छिद्रा दैत्याः समागत्य तत्प्रभावेणोद्यत शस्त्रा एवातिष्ठन् । ततश्च

होती है, और यदि भगवद् वहिर्मुख एवं भगवदपराधी होता है तो महत् सङ्ग प्राप्त होने पर भी भगवद् बहिर्मुखता दोष विनष्ट होकर भगवदुन्मुखता नहीं होती है । किन्तु यदि कदाचित् महत् की कृपादृष्टि निपतित हो तो अपराधादि दोष विदूरित होकर श्रीभगवदुन्मुख हो सकता है ।

अतएव यदि अपराध न हो, तो महापुरुष वृन्द की कृपा अवश्य ही होगी, निरपराधस्थल में किसी प्रकार अवधान न होने से भी अर्थात् ‘यह मह पुरुष हैं’ इस प्रकार अनुसन्धान न होने से भी एवं महापुरुष के मन में ‘यह दुर्गत है. इसका उद्धार होना चाहिये। इस प्रकार सङ्कल्प न होने पर भी महत् सङ्ग मात्र से ही भगवच्चरणों में मति होती है । किन्तु कदाचित् महद् गण अपराधी को भी कृपा करते यह महत् की स्वाभाविक करुणा है, उस से श्रीभगवच्चरणों में सुनिश्चित मति होती है । अतएव महत् कृपा व्यतीत अपराधी जन की मति श्रीभगवच्चरणों में नहीं होती है । उक्त उभय प्रकार का ही दृष्टान्त स्थल-नल कूवर मणिग्रीव एवं साधारण देवतावृन्द हैं। नलकूवर- पतित पावनी श्रीहरिप्रिय गङ्गा में स्वबंधूवृन्द के सहित काम क्रोड़ा में प्रवृत्त हुआ था, इस से श्रीहरि सम्बन्धि वस्तु श्रीगङ्गा का अवमानय रूप प्रथम अपराध, द्वितीय देवर्षि नारद की अवहेलना जन्ति द्वितीय अपराध विद्यमान द्वये थे । किन्तु देवर्षि अपराध के और दृष्टि न देकर स्वभाविक करुणा से प्रेरित होकर उस के प्रति कृपा किये थे। इस से पूर्व स्मृति लाभ, श्री- वृन्दावन वास गोपाल कृष्ण का दर्शन एवं श्रीकृष्ण चरणों में अचला भक्ति प्राप्त कर कृतार्थ हुये थे । महद् मय्र्यादा लङ्घन कारी इन्द्रादि देवगण, देवष को बारम्बार दर्शन करने पर भी श्रीहरि चरणों में भक्ति लाभ करने में अक्षम थे । किन्तु स्वार्थ सिद्धि हेतु समय समय पर श्रीभगवान् का स्तव करते हैं । उस में भी भगवान् यदि उनके प्रतिकूल आचरण कर बैठते हैं तो देवगण अवज्ञा सूचक भाषा के द्वारा श्रीभगवान् की अवज्ञा भी करते रहते हैं ।

भा० १०।२५ अध्याय में इसका विवरण है-इन्द्र याग भङ्ग होने पर इन्द्र क्रुद्ध होकर कहे थे-

“वाचालं बालिशं स्तब्ध मज्ञं पण्डित मानिनम् ।

कृष्णं मर्त्यमुपाश्रित्य गोपा में चक्र रप्रियम् ॥”

इस प्रकार दुरुक्ति का प्रयोग स्वार्थ हानि को देखकर हुई थी, एवं श्रीभगवदवज्ञा सुस्पष्ट रूपसे हुई । रहू गण के प्रति श्रीभरत की कृपा स्वभावतः ही हुई थी। इस प्रकार विष्णु धर्मोत्तर में उपरिचर वसु का चरित्र वर्णित है । उस में अपराधी जन के प्रति कृपा का निदर्शन दृष्ट होता है । उपरिचर वसु, देववृन्द के साहाय्यर्थ दैत्य कुल को विनष्ट कर निर्विण्ण होकर भगवद् भजन करने के अभिलाष से पाताल में प्रवेश किये थे । इस विवरण को दैत्यगण जान गये थे, अवसर प्राप्त कर प्रतिहिंसा की वृत्ति से प्रेरित होकर दैत्यगण पाताल में प्रविष्ट ह कर उपरिचर वसु का मस्तक च्छेदन करने के निमित्त असि उद्यत किये थे, कि तु भगवत् भक्ति के प्रभ व से उद्यत अस्त्र उत्तोलित होकर ही रहा, उपरिचर वसु का अङ्गरपर्श करने में दैत्य वन्द सक्षम नहीं हुये ।

विफल उद्यम होकर दैत्य वृन्द, शुक्राचार्य के निकट निवेदन किये थे । अनन्तर आचार्य के उपदेशानुसार दैत्यगण, पाताल में पाषण्ड धर्म का प्रचार प्रारम्भ किये थे । पाषण्ड धर्म प्रचार कराने का

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श्रीभक्तिसन्दर्भ

व्यर्थोद्यमाः पुनः शुक्रोपदेशेन तं प्रति पाषण्डमार्गमुपदिशन्तोऽपि जातया तत्कृपया भगवद्भक्ता बभ्रुवुरिति । अत उक्तं विष्णुधर्म एव-

HASIDE PE

“अनेकजन्मसंसारचिते पापसमुच्चये । नाक्षीणे जायते पुंसां गोविन्दाभिमुखी मतिः ॥ ५२६ ॥ इति ।

ननु (भा० ७६४४) “नेतान् विहाय कृपणात् विमुमुक्ष एको, न न्यस्त्वदस्य शरणं भ्रमतो- ऽनुपश्ये” इत्येवं श्रीप्रह्लादस्य सर्व्वस्मिन्नपि संसारिणि कृपा जाता, तहि कथं न सर्वमुक्तिः स्यात् ? उच्यते - जीवानामनन्तत्वान्न ते सर्व्वे मनसि तरयारूढास्ततो यावन्तो दृष्टश्रुता- स्तच्चेतस्यारूढास्तावतां तत्प्रसादाद्भविष्यत्येव मोक्षः, नेता नित्ये तच्छब्दप्रयोगात् । ये चान्ये, तेषामपि तत्कीर्तन - स्मरणमात्रेणैव कृतार्थतावरं स्वयमेव कृपया दत्तवान् श्रीनृसिंहदेवः आचार्य का उद्देश्य यह था कि- जब तक हृदय में भगवत् चिन्ता रहती है, तब तक उस को विनष्ट नहीं किया जा सकता है, किन्तु यदि किसी प्रकार श्रीभगवान् के प्रति अनादर बुद्धि आ जाती है तो, उसको विनष्ट करना सहज होता है । दैत्यगण चतुद्दिक में निरीश्वर वाद का प्रचार करने लगे थे, वे सब समझे थे कि- इस से उपरिचर वसु का ध्यान भङ्ग होगा, उस से उस को हत्या हम कर सकेंगे । कोलाहल से उपरिचर वसु का मन चल हुआ, वसु ने पाषण्ड वाद को सुना, जो दैत्यों के द्वारा प्रचार हो रहा था, सुन कर एवं दैत्यगणों की दुर्गति को देखकर बसु का हृदय करुणा से विगलित हो उठा । उपरिचर वसु ने चिन्ता की - अहो दैत्यों की कैसी दुर्गति हुई है ? मुझ को मारने के निमित्त सर्वेश्वर सर्वनियन्ता, सर्व कारण श्रीभगवान् की सत्ता को विलुप्त करने के निमित्त यह सब प्रवृत्त हुए हैं । हे परम करुण प्रभो ! दैत्यगण की दुर्गति को विनष्ट करके निज पादाब्ज भक्ति से इन सबको कृतार्थ करो । उपरिचर वसुकी करुण प्रार्थना से दैत्यगण भगवद् भक्त हो गये थे । इस से प्रतिपन्न हुआ कि - दुर्गत अपराधी जन के प्रति भी यदि भगवत् कृपा होती है तो उस व्यक्ति की दुर्गति विनष्ट होती है, एवं अपराध दोष की भी शान्ति होकर श्रीभगवत् पदारविन्द में भक्ति होती है

इस अभिप्राय को व्यक्त करने के निमित्त विष्णु धर्म के कथित है- 15

“अनेकजन्मसंसारविते पापसमुच्चये ।

नाक्षीणे जायते पुंसां गोविन्दाभिमुखी मतिः ॥ ५२६ ॥

अर्थात् अनेक जन्म पर्थ्यन्त संसार वासना द्वारा सञ्चित पाप राशि का क्षय न होने से मानववृन्द

को मति श्रीगोविन्द चरणों में उन्मुख नहीं होती है ।

यहाँ पर संशय हो सकता है कि भा० ७६४४ में श्रीप्रह्लाद ने कहा है-

“नैतान् विहाय कृपणान् विमुमुक्ष एको,

नान्यस्त्वदस्य शरणं भ्रमतोऽनुपश्ये ॥ "

कि

हे नाथ ! मैं इस संसार चक्र में भ्रमण शील सुदुःखित जीवगण को परित्याग करके एकाकी मुक्त होना नहीं चाहता हूँ। यह सब निराश्रय संमारी जीव, हैं, आप कृपालु हैं, आप को छोड़कर यह सब जोवों का आश्रय कोई नहीं हैं । प्रह्लाद भक्तोत्तम थे, संसारी जीवों के प्रति उनकी सहज कृपा होने पर भी सब जीव मुक्त क्यों नहीं हुये ? उत्तर में कहते हैं— जीव अनन्त परिमाण में हैं, समस्त जीवों की कथा श्रीप्रह्लाद के हृदय में उदित नहीं हुई थी, किन्तु समीपवर्ती जितने जीवों को देखे थे, अथवा सुने थे उनके प्रति

हृदय में

(भा० ७/१०/१४) -

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FileT) P

“य एतत् कीर्त्तयेन्मह्य

ं त्वया गीतमिदं नरः ।

त्वाञ्च माञ्च स्मरन् काले कर्म्मबन्धात् प्रमुच्यते ॥ “५२७॥ इति । यस्त्वां कीर्त्तयेदपि किं पुनस्त्वं यान् कृपया स्मरसीति भावः । तस्मात् साधूक्तम्- “भवापवर्गो भ्रमतो यदा भवेत्” इति ॥ मुचुकुन्दः श्रीभगवन्तम् ॥