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इयमकिञ्चनाख्या भक्तिरेव जीवानां स्वभावत उचिता । स्वाभाविक - तदाश्रया हि जीवाः (श्वे० ६६) “स कारणं करणाधिपाधिपः” इति श्रुतेः । अंशत्वेऽपि वहिरङ्गत्व-

टीका – उपसंहरति - एत इति । साधु मोक्षोपयोगितया । एतच्च सर्वं गुण दोषयोविवेकाय उद्धवेन दृष्टमिति तयोः संक्षेपतो लक्षणमाह । कि बहुना वर्णितेन गुणदोषयोर्लक्षणमेतावदेव । तदाह गुणदोषयो दृ’शिर्दर्शनं दोषः, गुणस्तु तदुभय दर्शनविर्वाजितः स्वभाव एवेति ।

इस श्लोक में कहा गया है कि, - जिन्होंने श्रीभगवन्माधुर्य्यानु भव किया है, उन में विधि एवं निषेध से उद्भूत गुण दोष होने की सम्भावना नहीं है, कारण- भा० १११२०/३६ में कहा है-

(१७७) “न मध्येका तभक्तानां गुणदोषोद्भवा गुणाः ।

साधुनां समचित्तानां बुद्धेः परमुपेयुषाम् ॥ “५१३॥

टीका-अनेन प्रकारेण । सिद्धानां न गुण दोषा इति विरोध परिहार मुपसंहरति- न मयाति । गुण दोषं विहित प्रतिषिद्धेरुद्भवोयेषां ते गुणा पुण्य पापादयः । साधूनां निरस्त र. गादीनामतः समचित्तानामत एव बुद्धेपरमीश्वरं प्राप्तानाम् ।

अर्थात् जो लोक, मुझ में एकान्त भक्तिमान् हैं, उनके गुण दोष से उद्भूत अर्थात् विधि निषेध से उद्भूत गुण दोष नहीं हैं, उनके गुण-स्वरूप धर्म निष्ठ हैं । यहाँ का तात्पर्थ्य यह है कि, जो लोक भजन माधुर्य अनुभव करके भजन में प्रवृत्त होते हैं, उनको, प्रेरक रूप में विधि निषेध की आवश्यकता नहीं है, कारण, वे सब रुचि प्रेरित होकर ही समस्त भजनाङ्ग का अनुष्ठान करते रहते हैं । अतएव इस श्लोक की टीका में स्वामिपाद ने कहा है- “गुण दोष शब्द से विहित निषिद्ध आचरण से जिन में पापोद्गम नहीं होता है, अर्थात् पुण्य पापादि कुछ भी नहीं होते हैं, कारण वे सब मुझ श्रीकृष्ण में एकान्त भक्त अर्थात् प्रीति युक्त भक्त हैं ।

श्रीभगवान् कहे थे - ॥१७७॥

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यह अकिञ्चना संज्ञा प्राप्ता भक्ति का स्वभावतः अनुष्ठान करना मानव मात्र का एकान्त कर्तव्य है । कारण, स्वाभाविक भक्ति हो जीवको एकान्त आश्रयणीया है, जीव श्रीभगवान् का नित्य सेवक है, एवं श्रीभगवान् ही जीव का नित्य सेव्य हैं । अतएव नित्य सेवक जीव की नित्य सेव्य भगवत् में भक्ति स्वाभाविकी है । श्वेताश्वतर उपनिषद् में उक्त है-

“स कारणं करणाधिपाधपः” श्रीभगवान् ही सर्व कारणों के कारण हैं, एवं निखिल करण इन्द्रियादि के अधिपति हैं, जीव का भी आप अधीश्वर अर्थात् परमाराध्य हैं । जीव भगवान् के अंश होने पर भी उस को विभिन्नांश होने के कारण वहिरङ्ग स्वीकार किया गया है, उस में भी सूर्य मण्डल के वहिर्देश में अवस्थित सूर्य्य रश्मि के परमाणु के समान जीव सर्वदा ही भगवदाश्रित है। रश्मि परमाणु वृन्द जिस

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स्वीकारात् तदाश्रयत्वं सूर्य्यमण्डल वहिरातपपरमाणूनामिव । अतएव पाद्मोत्तरखण्डे प्रणव- व्याख्याने-

“अकारश्चाप्युकारश्च मकारश्च ततः परम् वेदत्रयात्मकं प्रोक्तं प्रणवं ब्रह्मणः पदम् ॥ ५१४ ॥ अकारेणोच्यते विष्णुः श्रीरुकारेण चोच्यते । मकारस्तु तयोर्दासः पञ्चविंशः प्रकीर्तितः ॥ ५१५ ॥ अन्ते च - “भगवच्छेषरूपोऽसौ मकाराख्यः सचेतनः” इति, तथा-

“अवधारणवाच्येव उकारः कैश्चिदिष्यते । श्रीश्च तत्पक्षपातित्वादकारेणैव चोच्यते ।

भास्करस्य प्रभा यद्वत्तस्य नित्यानपायिनी ॥। ५१६ ॥

अतएव श्रीवैष्णवानां प्रणव एव महावाक्यमिति स्थितम् । तथाष्टाक्षर व्याख्याने-

प्रकार सूर्य्याश्रय भिन्न स्वतन्त्रसत्ता में अवस्थित हो नहीं सकते हैं, उस प्रकार मूलाश्रयतत्त्व श्रीभगवान् की सत्ता के अधीन सत्तारूप में ही जीव को विद्यमानता है । अतएव पद्म पुराण के उत्तर खण्ड के प्रणव व्याख्यान में लिखित है-

“अकारश्चाप्युकारश्च मकारश्च ततः परम् । वेदत्रयात्मकं प्रोक्तं प्रणवं ब्रह्मणः पदम् ॥५१४॥ अकारेणोच्यते विष्णुः श्रीरुकारेण चोच्यते ।

मकारस्तु तयोर्दासः पञ्चविंशः प्रकीर्तितः ॥ “५१५॥

प्रणव- ब्रह्म का ही अधिष्ठान है, अर्थात् प्रणव को अवलम्बन करके ही ब्रह्म स्वरूप की अभिव्यक्ति होती रहती है । यह प्रणव ही साम, ऋक् यजुः यह तीन वेदों का आत्मा स्वरूप है । प्रणव में प्रकार, उकार, एवं मकार - अक्षर त्रय हैं, उस के मध्य में अकार का अर्थ श्रीविष्णु हैं, उकार का अर्थ-लक्ष्मी, एवं मकार का अर्थ, - यह श्रीलक्ष्मीनारायण का नित्य सेवक जीव है । यह जीव, भगवान् का अंश एवं अणु

चैतन्य स्वरूप है । अन्त में भी उक्त है-

“भगवच्छेषरूपोऽसौ मकाराख्यः सचेतनः” ।

उस प्रकार ही कथित है-

“अवधारणवाच्येव उकारः कैश्चिदिष्यते ।

श्रीश्च तत्पक्षपातित्वादकारेणैव चोच्यते ।

भास्करस्य प्रभा यद्वत्तस्य नित्यानपायिनी ॥ “५१६ ॥

कतिपय व्यक्ति - प्रणवस्थ उकार को अवधारण वाची कहते हैं । एवं लक्ष्मी को भी नारायण पक्षपाती हेतु अकार शब्द के द्वारा उल्लेख करते हैं, अर्थात् लक्ष्मी जब श्रीनारायण की स्वरूपशक्ति हैं, तब शक्ति शक्तिमान् में अभेद हेतु अकार शब्द से उल्लिखित श्रीविष्णु अर्थ से ही श्रीलक्ष्मी का भी बोध होता है, स्वतन्त्र रूप से उकार के द्वारा लक्ष्मी की निर्देश करने का प्रयोजन नहीं है। जिस प्रकार अग्नि की वाहिका शक्ति अग्नि से भिन्न होकर अवस्थिता नहीं होती है । उस प्रकार श्रीनारायण की भी स्वरूप शक्ति श्रीलक्ष्मी की स्थिति भिन्न रूप से नहीं होती है । इस अभिप्राय से ही दृष्टान्त उपन्यास हुआ है,

“भास्करस्य प्रभा यद्वत् तस्य नित्यानपायिनी ।

सूर्य की ज्योतिः जिस प्रकार सूर्थ्य को छोड़ कर स्वतन्त्र रूप से नहीं रहती है, सूर्य के सहित ज्योतिः का समवाय सम्बन्ध है । अर्थात् नित्य सम्बन्ध है, उस प्रकार लक्ष्मी श्रीनारायण को छोड़कर स्वतन्त्र रूप से रह नहीं सकती है । अतएव श्रीवैष्णव वृन्द के मत में प्रणव ही महावाक्य है । जिस प्रकार

श्रीभक्तिसन्दभः

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‘श्रीमते विष्णवे तस्मै दास्यं मन्त्रं करोम्यहम् । देशकालाद्यवस्थासु सर्व्वासु कमलापतेः ॥११७॥ इति स्वरूपस सिद्ध मुख्यं दास्यमवाप्नुयाम् । एवं विदित्वा मन्त्रार्थं तद्वृत्तिं सम्यगाचरेत् ॥५१८ ॥ दासभूमिदं तस्य जगत् स्थावरजङ्गमम् । श्रीमन्नारायणः स्वामी जगतां प्रभुरीश्वरः ॥५१६ ॥ तदेतदाहुः (भा० १० ८91२० ) -

(१७८) “स्वकृतपुरेष्वमीष्वव हिरन्तर संवरणं

तव पुरुषं वदन्त्यखिलशक्तिधृतोऽ शकृतम् ।

इति नृगत विविच्य कवयो निगमावपनं

"

भवत उपासतेऽङ्घ्रिमभवं भुवि विश्वसिताः ॥ ५२०॥

स्वेन त्वया कृतेषु पुरेषु देहेषु वर्त्तमानं तव पुरुषं जनं तवैवांशरूपेण त्वदीयस्वरूपेण कृतं नित्यसिद्धं वदन्ति । तत्र ‘अखिलशक्तिधृतस्तव’ इत्युक्त्वा तदखिलशक्तिगणान्तःपाति-

प्रणव की व्याख्या हुई है उस प्रकार अष्टाक्षर मन्त्र (ओं नमोनारायणाय ) की व्याख्या में भी जीव स्वरूप को भगवद् दास कहा गया है।

“श्रीमते विष्णवे तस्मै दास्यं सव्वं करोम्यहम् । देशकालाद्यवस्थासु सर्वासु कमलापतेः ॥ ५१७ ॥ इति स्वरूपसंसिद्धं मुख्यं दास्यमवाप्नुयाम् । एवं विदित्वा मन्त्रार्थं तद्वृत्ति सम्यगाचरेत् ॥५१८ ॥ दासभूतमिदं तस्य जगत् स्थावरजङ्गमम् ।

श्रीमन्नारायणः स्वामी जगतां प्रभुरीश्वरः ॥ “५१६॥

उन श्रीविष्णु को सेवा द्वारा सुखी करने के निमित्त मैं सर्व प्रकार दास्य कर रहा हूँ । सर्व देश, सर्व काल एवं सर्व अवस्था में मैं उन कमलापति श्रीनारायण की सेवा दास अभिमान से करूँगा । इस प्रकार आवेश से जीव, स्वरूप निष्ठ मुख्य दासत्व प्राप्त कर सकता है । इस प्रकार मन्त्रार्थ का अनुभव सम्यक् प्रकार से करके दासोचित्त धर्म का आचरण करे । सर्वदा ही मन में चिन्तन करे कि -स्थावर जङ्गमात्मक यह विश्व श्रीनारायण का हो दास स्वरूप है । निखिल जगत् के स्वामी श्रीमन् नारायण हैं, आप जगत् रक्षक समर्थ परमेश्वर हैं, एवं आप निखिल जगत् के परमाराध्य हैं । इस प्रकार अष्टाक्षर श्रीनारायण मन्त्र व्याख्या में जीव का, श्रीनारायण का नित्य व सत्व निर्दिष्ट हुआ है ।

श्रीमद् भागवत के १०३८७/२० में श्रुति वृन्द का कथन है-

(१७८) “स्वकृत पुरेण्वमीष्व व ‘हरन्तरसंवरणं

तव पुरुषं ववन्त्यखिलशक्तिधृतोऽशकृतम् इति नृगत विविच्य कवयो निगमावपनं

भवत उपासतेऽङ्घ्रिमभवं भुवि विश्वसिताः ॥ “५२०॥

हे प्रभो ! निज निज कर्मोपार्जित मनुष्यादि विविध शरीर में भोक्तारूप में अवस्थित जीव

पुरुष को, सर्वशक्ति का समाश्रय परिपूर्ण स्वरूप आप का अंभ कृत कह कर अर्थात् खण्डित अंश के समान अंश एवं कृत के समान कृत - यह कहकर ऋषि गण वर्णन जिस प्रकार एक परिपूर्ण वस्तु के एक प्रदेश को व्यवहारिक लोक अंश कहते हैं, उस प्रकार जीव को आप का अंश एवं कृत कहते हैं, वस्तुतः उस प्रकार

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F

TE

जीवाख्यतटस्थशक्तिविशिष्टस्यैव तवांशः, न तु स्वरूपशक्तिविशिष्टस्य केवलस्वरूपरयेत्यायातम् । ततो मूलमण्डलस्थानीय त्वदाश्रय करश्मि परमाणुस्थानीया जीव इति भावः । अंशत्वे हेतुः, - अवहिरन्तरसंवरणम्, वहिरन्तश्च यस्य संवरणं नास्ति, किन्तु तैस्तैरुपाधिभिः संवरण- मेवास्तीत्यर्थः । अतः संवरण- हीनस्य तवायमंश एवेति भावः । इति एतत् प्रकारां नुर्जीवरय गति स्वभावत एव त्वदाश्रय कस्त्वदेकजीवनश्चासौ जीव इति तत्वं विविच्य ज्ञात्वा कथ्यः नहीं है । कारण, अच्छेद्य एवं अजन्य आपका स्वरूप है, उस का खण्डिन, अंश, जन्यत्व होना सम्भव नहीं है, तब अणु सामर्थ्य एवं अणु ज्ञान स्वरूप हेतु जीव को अंश कहते हैं. इस में प्रश्न हो सकता कि - कार्य कारण युक्त मैं हूँ, मेरा विभुत्व होना कैसे सम्भव होगा ? उत्तर में कहती हैं, - हे नाथ ! आप कार्य्यं कारण धर्म संवृत नहीं हैं, कारण, आप में कार्य कारण धर्म की सत्त्वा नहीं है । कविगण, इस प्रकार तत्त्व निर्देश के द्वारा वेदोक्त निखिल कमर्पण का स्थान आप को ही निर्देश करते हैं, आप को फलार्पण करने से क्षेत्र में वीज वपन के द्वारा फलोत्पत्ति के समान मुक्ति फल उत्पन्न होता है । अतएव आपके भय निवर्त्तक चरणों में विश्वस्त हृदय महापुरुषवृन्द अर्चन वन्दनादि द्वारा आप के अभय चरणों की सेवा करते हैं । मर्त्यलोक में बहु सौभाग्य से मानव देह धारी जीव गण के पक्ष में आप के अभय चरण युगल की सेवा करना परम कर्त्तव्य है। श्लोक व्याख्या । किन्तु स्वरूप शक्ति विशिष्ट श्रीभगवान् के विशुद्ध स्वरूप का अंश जीव नहीं है, यही “अखिल शक्ति धृतः” पद का तात्पर्य्यार्थ है । अतएव जीव समूह सूर्थ्य के मूल- मण्डल स्थानीय आपका आश्रित रश्मि परमाणु स्थानीय हैं। तात् पर्थ्य यह है कि- जीव, स्वरूप में चैतन्य होकर भी आवेश में अपने को त्रिगुण मय मानता है, अर्थात् मैं सुखी, दुःखी, मैं मुग्ध-रस प्रकार जड़ीय अभिमान करने के कारण, जीव को तटस्था शक्ति कही गई है । जीव, कभी भी स्वरूप शक्ति नहीं है, कारण, जो स्वरूप शक्ति है, वह सर्वदा स्वरूप में उन्मुख होकर रहती है, एवं स्वरूप में क्रिया शील होकर रहती है । एवं उस शक्ति के द्वारा भगवान् माया को पराभूत करके निज स्वरूपानन्दानुभव में निमग्न रहते हैं । जीव, उस स्वरूप शक्ति के अनुग्रह से हो मायाभिभव कर सकता है । एवं भगवत् स्वरूपा

सक्षम होता है । इस अभिप्राय से ही श्रीमद् भागवत में उक्त हैं-

नन्दास्वादन करने में

“मायां व्युदस्य चिच्छक्तचा कैवल्ये स्थित आत्मनि”

भगवान् चिच्छक्ति द्वारा माया को विदूरित करके निज स्वरूपानन्द में नित्य विद्यमान है। गीता में भी कथित है

“तेषामेव नुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः ।

नाशयाशम्यात्मभावस्था ज्ञानदीपेन भास्वता ॥

हे अर्जुन ! जो एकान्त भाव से मेरे चरणों में शरणागण हैं, मैं अनुग्रह करने के निमित्त निरुपाधि ज्ञान रूप दीप द्वारा उस के अज्ञान जनित अन्धकार को विनष्ट करता रहता हूँ । जीव, यदि स्वरूप शक्ति के मध्य में अन्तर्भुक्त होता है तो मायाकृत आवरण उस के पक्ष में होना असम्भव ही होगा। जीवस्वयं यदि ज्ञान शक्ति होता है तो श्रीभगवान् ज्ञान शक्ति के द्वारा जीवगत मायान्धकार नाश कैसे कर सकते ? इस अभिप्राय से ही कहते हैं- सूर्य मण्डल के बाहर अवस्थित रश्मि परमाणु समूह, सूर्य्य रश्मि के ही अंश हैं, यह परमाणु समूह का परमाश्रय सूर्य्य मण्डल है । स्वतन्त्र रूप से रश्मि परमाणु की कोई सत्ता नहीं है । अथच उक्त रश्मिपरमाणु समूह, स्वरूप में अणु तेजः स्वरूप होकर भी चिदानन्द भास्कर श्रीभगवान के अंश हैं, एवं श्रीभगवदाश्रित हैं। सूर्य के बाहर अवस्थित रश्मि परमाणु जिस प्रकार छाया

[ ३६ε पण्डिता विश्वसिताः श्रद्दधाना भवत एवाङ्घ्रिमुपासते । विश्वासे हेतुः - निगमावपनं सकल- वेदवी जोज्जीवनै काश्रयक्षेत्र शास्त्रयोनिमित्यर्थः । अतो नित्य-त्वदाश्रयैक जीवनानामपि तेषां त्वद्वे मुख्येन यत् संसारदुःखं भवति, तदपि साम्मुख्येन स्वयमेव पलायत इत्याहुः, - अभवमिति, न विद्यते भवः संसारो यत्र ेति । अथवा भजनीयस्य नित्यत्वेन भक्तेरप्यनश्वरत्वं प्रतिपादयन्ति- अभवं जन्मरहितमङ्घ्रिमिति । तस्मादकिश्चनाख्या भक्तिरेव सर्वोर्ध्वमभिधेया ॥ श्रुतयः श्रीभगवन्तम् ॥