३०९ १७७
कारण, यह भक्ति, स्वरूपानन्द से भी परमानन्द स्वरूपा है, अतएव स्वभावतः ही परमानन्द
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श्रीभक्तिसन्दर्भ ता १७७ ॥ यस्मादेवं सर्व्वानन्दातिक्रमलिङ्गेन परमानन्दस्वरूपासौ भक्तिस्तस्मात् तन स्वभावत एव प्रवृत्तिर्गुणस्तथाभूतामपि तन्माधुरीं स्वदोषेणानुभवितुमसमर्थानां तु केवल विधि- निषेध-सम्भवगुण-दोष-दृष्टेयव प्रवृत्तिरपि पूर्वापेक्षया दोषः एव । यथोक्तमेतत्पूर्व्वाध्याये ( भा० १११२६।३६) “शमो मन्निष्ठता बुद्धेः” इत्यादी साक्षाद्भक्तेरपि विधानाविधानयोर्गुण- दोषताम् (भा० ११।१६।४५) - “कि वर्णितेन बहुना " इत्यन्तेन ग्रन्थेन प्रतिपाद्य “गुणदोषदृशिर्दोषो लक्षणा भक्ति में प्रवृत्त होना ही गुण है, अर्थात् रूप ग्रहण हेतु चक्षु जिस प्रकार, प्रेरणा के बिना स्वभावतः ही प्रवृत्त होता है, पिपासु व्यक्ति, आदेश की अपेक्षा न करके जिस प्रकार जल पान में प्रवृत्त होता है, उसी प्रकार एतादृश परमानन्द स्वरूपा भक्ति में विधि की अपेक्षा न करके स्वाभाविक प्रवृत्ति ही गुण है । किन्तु निज अपराधादि दोष से पूर्वोक्त लक्षणाक्रान्त भक्ति में अनिर्वचनीय माधुरी विद्यमान होने पर भी वात पित्तादि दोष से मिश्री का मिष्टत्व ग्रहण में अक्षमता के समान भक्ति माधुर्य ग्रहण में असमर्थ भक्त वृन्द की, केवल विधि निषेध से उत्थित गुण दोष दृष्टि से परमानन्द लक्षणा भक्ति में प्रवृत्ति, भक्ति में स्वाभाविक प्रवृत्त भक्तरण से निकृष्ट है, अर्थात् दोष युक्त है । पिपासा प्रेरित होकर जलपान करने पर जिस प्रकार आस्वादन होता है, अनुरोध से जलपान में प्रवृत्त व्यक्ति का तप आस्वादन नहीं होता है, एवं जल पान में आवेश उत्पन्न भी नहीं होता है । उस प्रकार भक्ति माधुर्य्य अनुभव करके जो भक्ति में स्वभावतः ही प्रवृत्त होते हैं, भजन करके यह सब जिस प्रकार आनन्दानुभव करते हैं, भक्ति में उन सब का जिस प्रकार आवेश होता है, केवल मात्र श्रीकृष्ण भजन करने से गुण है, न करने से दोष है । इस रीति से जो लोक भक्ति में प्रवृत्त होते हैं, यह सब श्रीकृष्ण भजन में उस प्रकार आस्वादन प्राप्त नहीं करते हैं, न तो उन सब का भजन में आवेश हो होता है । तज्जन्य यह प्रवृत्ति, स्वाभाविक प्रवृत्ति से दोष दुष्ट भावार्थ यह है कि-भक्ति- वैधी, रागानुगा भेद से द्विविध हैं, शास्त्र शासन से प्रवृत्त भक्ति को वैधी कहते हैं, और भगवद् भजन में स्वाभाविक रुचि लाभ द्वारा प्रवृत्त को रागानुगा कहते हैं। रागानुगा भक्ति की प्रशंसा सर्वत्र शास्त्र में उद् घोषित है । इस प्रकार रुचि का नाम ही लोभ है। इस प्रकार रुचि उत्पन्न होने का मूल कारण ही है-रुचि मान साधु का सङ्ग । अर्थात् जिस व्यक्ति का उस प्रकार रुचिमान साधु का सङ्ग है, उस में हो श्रीकृष्ण के नाम, रूप, गुण, परिकर, एवं लीला माधुरी श्रवण करके दास्यादि एक तर भाव से भजन करते करते रुचि का उदय होता है । कारण, भा० ११ १६।३६ में श्रीकृष्ण उद्धव को कहे हैं-
’ शमो मन्निष्ठता बुद्धे र्दम इन्द्रियसंयमः ।
तितिक्षा दुःख सम्मर्षो जिह्वोपस्थजयोधृतिः ।'
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टीका - मुमुक्षो रुपादेयान् शदीन हेयांश्च दुखादीन् महाजन प्रसिद्धे को विलक्षणानाह - शम इत्यादिना यावत् समाप्ति । एतेनैव तत्तद्विपरीतं अशमादयोऽप्युन्नेयाः । शमो महिष्ठता बुद्धे नं तु शान्तिमात्रम् । दम- इन्द्रियसंयमो न चौरादि दमनम् । तितिक्षा विहित दुःखस्य सम्मर्षः, सहनं न तु भारादेः । जिह्वोपस्थयोर्जयो वेगधारणं धृतिः, न तु अनुद्वेगमात्रम् ॥
सर्व प्रकार से श्रीकृष्ण में मनोवृत्ति परिनिष्ठित होने का नाम ही शम, अर्थात् शान्ति है । इस से सुस्पष्ट हुआ है कि - साक्षात् भक्ति का अनुष्ठान ही गुण है, एवं साक्षाद् भक्ति का अननुष्ठान ही दोष है । भा०- ११।१६।४५ प्रकरण शेष करते हुये आपने कहा है-
दोषयोः ।
““क वर्णितेन बहुना लक्षणं गुण दोषग्रोः ।
गुण दोष दृशिर्दोषो गुण स्तूभय वर्जितः ॥”
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गुणस्तूभर्वाजितः” इति लब्ध- तन्माधुर्य्यानुभवानां तद्विधि–निषेध कृत-गुणदोषो नस्त एवेत्याह
(भा० ११।२०।३६)-
(१७७) “न मय्येकान्तभक्तानां गुणदोषोद्भवा गुणाः ।
साधूनां समचित्तानां बुद्धेः परमुपेषुषाम् ॥ " ५१३॥
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टीका च - “गुणदोषैर्विहित प्रतिषिद्धरुद्भवो येषां ते गुणाः पुण्यपापादयः” इत्येषा ॥ श्रीभगवान् ॥