१७६

३०८ १७६

तत्र साम्मुख्यद्वारभूतस्य कर्मणः साक्षात् साम्मुख्यरूपज्ञान - भवतु यदय पर्यन्तत्वात् स्वयमेव ताभ्यां न्यक्कारः । अत्र साक्षात् साम्मुख्ये च निर्विशेषसाम्मूख्यं ज्ञानम् । सविशेषस्यापि तत्त्वस्य भगवत्त्वं परमात्मत्वञ्चेति मुख्यमाविर्भावद्वयमिति सविशेष-साम्मुख्य- रूपाया भक्तेस्तु मुख्यं भेदद्वयं भगवन्निष्ठत्वं परमात्मनिष्ठत्वञ्चेति । तदेतत्रयं श्रीगीतासूक्तम्, तत्र ( गी० ८।३) “अक्षरं ब्रह्म परमम्” इत्यक्षर–शब्देन पूर्वोक्तं ब्रह्म, तत्साम्मुख्य रूपं ज्ञानात्मकमुपासनञ्चोत्तरोक्तं यथा ( गी० ८ । ११) " यदक्षरं वेदविदो वदन्ति" इत्यादि, तथा भावः । अत्र ज्ञान कर्म्मणोर्भक्तचंश विना सिद्धयभावेन तन्मिश्रतयैव विहितत्वान्न तेन तत्र तत्र निष्ठाच्युतिः, किन्तु सर्वनिरपेक्षतया सर्वसाधिकायां भक्तावेव तत्तदंशमिश्रत्वे कृते निष्ठा च्युतिः स्यादितिगम्यते । तदेवं शक्तचंश सहाया कर्म निष्ठा कर्मठे गुण स्तथा तत् सहाया ज्ञान निष्ठा ज्ञानिनि ततोऽपि गुणः । निष्किञ्चन भक्ति निष्ठा तु भक्तेः सर्वोत्कृष्ष्टो गुणः, किमुत तत् साध्या प्रेमलक्षणा भक्तिरिति पूर्ववदेव प्राप्तम् । एवमेतद् विपर्य्ययो न्यूनेऽधिके वाधिकारे प्रवेशो दोषः । न्यूने पूर्व हानेः, अधिके परासिद्धेश्चेत्यर्थः ॥ "

निज निज अधिकार में निश्चल भाव से अवस्थान करना ही गुण है । अधिकार विरुद्ध आचरण ही दोष है ।

श्रीभगवान् कहे थे ॥ १७५॥ १७६ । जब तक भगवत् साम्मुख्य रूप ज्ञान वा भक्ति का उदय नहीं होता है, तब तक ही साधक को परतत्त्व साम्मुख्य के द्वारमूत्त काम्य कर्मानुष्ठान करना चाहिये, अर्थात् ज्ञान भक्ति अधिकार में प्रविष्ट होने के पूर्व पर्यन्त ही साधक काम्य कम करने में अधिकारी है। ज्ञान एवं भक्ति का उदय होने से स्वयं ही काम्य कर्म में तुच्छ बुद्धि हो जाती है, कारण, निष्काम भाव से श्रीभगवान् में अर्पित कर्म, ज्ञान एवं भक्ति में प्रवेश का द्वारस्वरूप है । साक्षात् साम्मुख्य के विषय में परतत्त्व का निर्विशेष साम्मुख्य ज्ञान, एक प्रकार है, और सविशेष परतत्त्व का साम्मुख्य भगवत्त्व एवं परमात्मत्व रूप में होता है, अर्थात् भगवत् : लक्षण एवं परमात्म लक्षण भेद से परतत्त्व का मुख्य आविर्भाव दो प्रकार हैं । भक्ति के द्वारा सविशेष

• परतत्त्व का साम्मुख्य होता है, सविशेष परतत्त्व की मुख्य साम्मुख्य रूप भक्ति भी भगवन्निष्टत्व एवं परमात्मनिष्ठत्व भेद से द्विविध हैं। ब्रह्म, परमात्म एवं भगवद् भेद से परतत्त्व के त्रिविध आविर्भाव का

• संवाद श्रीभगवद् गीता के ८।३ में सुस्पष्ट रूप में है ।

“अक्षरं परमं ब्रह्म स्वभ वोऽध्यात्म उच्यते ।

टीका - “न क्षरतीत्यक्षरं नित्यं यत् परमं तद् ब्रह्म, एतद्वैतदक्षरं गागि ब्रह्मणा अभिवदन्तीति श्रुतेः । -स्वभावः समात्मनां देहाध्यः सवशाद् भावयति जनयति इति स्वभावो जीवः, यद्वास्वं भावयति परमात्मानं

प्रापयति इति । स्वभावः शुद्ध जीवः, अध्यात्ममुच्यते । अध्यात्म शब्द वाच्य इत्यर्थः ॥”

शब्द से

अक्षर तत्त्व अर्थात् नि विनाश रहित एवं अवस्थान्तर शून्य तत्त्व ही पर ब्रह्म है । यहाँ अक्षर ब्रह्म को कहा गया है। उस ब्रह्म का साम्मुख्य रूप में ज्ञानोपासना की कथा भी कही गई है। ( गी० ८।११ ) -

)-

“यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः ।

श्रीभक्ति सन्दर्भः

[[३५७]]

परमात्मानमपि ( गी०८१४) - “पुरुषश्चाधिदैवतम्” इति, “अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृताम्बर’ इति च विराव्यष्टिरूपाधिष्ठानद्वयभेदेन भिन्नप्रायमुक्त्वा भक्तिरीतिद्वयी तयोरेकप्राया दर्शिता । तत्र ( गी० ८८ “अभ्यासयोगयुक्तेन” इत्यादिनैका, ( गी० दार्द) “कवि पुराण- मनुशासितारम्” इत्यादिनान्या । तथा मच्छन्दोक्त श्रीकृष्णाख्य भगवद्भक्तिप्रकारश्चायम् ( गी० ८१४ ) -

यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्तवेदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥”

टीका- ननु भ्र

ुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य इत्येतावन्मात्रोक्ता योगेन ज्ञायते । तस्मात् तत्र योगे प्रकारः कः, किं जप्यं किं वा ध्येयं किंवा प्राप्यं - इत्यपि सङक्षेपेण ब्रहीत्य पेक्षायामाह - यदितित्रिभिः । यदेवाक्षरं ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म वाचक’ वेदज्ञा वदन्ति यदेव ओमित्येवाक्षरवाच्यं ब्रह्म यतयो विशन्ति । तत् पदं पद्यते गम्यते इति पदं प्राप्यं सम्यक्तया गृह्यते अनेनेति संग्रह स्तदुप यस्तेन सह प्रवक्ष्ये श्रृणु ॥

[[11]]

वेदवित् पण्डित गण जिस को ब्रह्म कहते हैं, वीतराग यतिगण जिस में प्रविष्ट होते हैं, जिस को प्राप्त करने के निमित्त ब्रह्मचारी वृन्द ब्रह्मचर्य्याचरण करते हैं, उस प्राप्य वस्तु का वर्णन उपाय के सहित करता हूँ । इस श्लोक से आरम्भकर ब्रह्म का उल्लेख किया गया है । उस प्रकार परमात्म तत्त्व का संवाद “पुरुषश्चाधिदेवतम् " एवं “अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृताम्बर”

गो० ८।४

के द्वारा विराट् एवं व्यष्टिरूप अधिष्ठान भेद से भिन्न रूप में द्विविध उल्लेख करके, अर्थात् विराट् रूप में पुरुष परमात्मा को अधिदैवत को कहकर एवं व्यष्टि रूप में अधिष्ठान रूप में अधियज्ञ को कहकर द्विविध परमात्म रूप का निर्देश किया गया है। उक्त द्विविध परमात्मस्वरूप की उपासना रूपा भक्ति की रीति दो प्रकार होने पर भी एक रूप में वर्णन किया गया है। उस के मध्य में गी० ८८ में उक्त है-

“अभ्यासयोग युक्तेन चेतसा नान्यगामिना ।

परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तय । ॥”

हे अर्जुन ! अभ्यास योग से अनन्यगामी चित्त के द्वारा अलौकिक परमपुरुष की चिन्ता निरन्तर करते करते उन परम पुरुष को प्राप्त करते हैं । परमात्मस्वरूप प्राप्ति हेतु उपासना रूपाभक्ति का यह एक प्रकार है, गीता दाह में वर्णित है-

“कवि पुराणमनुशासितारम् "

इश श्लोक में व्यष्टि अन्तर्यामी पुरुषाख्य परमात्म स्वरूप की उपासनारूपा भक्ति का द्वितीय प्रकार प्रदर्शित हुआ है । यहाँ ज्ञातव्य यह है कि- एक ही परमात्मस्वरूप की अभिव्यक्ति, अवस्था भेद से त्रिविध होती हैं। एक, मायान्तर्यामी - महत्तत्त्व- स्रष्टा,, इनका अपर नाम- कारणार्णव शायी महाविष्णु है ।

द्वितीय - समष्टि अन्तर्यामी - इनका अपर नाम गर्भोदशायी समष्टि जीवरूप ब्रह्माण्डान्तर्यामी है । तृतीय व्यष्टि जीवान्तर्यामी है, इनका अपरनाम, क्षीरोदशायी श्रीविष्णु है, तन्मध्य में समष्टि जीवान्तर्यामी परमात्मरूप की उपासना रूप भक्ति का प्रकार भेद “अभ्यास योग युक्तेन” श्लोक में वर्णित है । द्वितीय - व्यष्टि जीवान्तर्यामी पुरुष की उपासना रूपाभक्ति का भेद “कवि पुराणमनुशासितारं " श्लोक में वर्णित है । श्रीविष्णु के पुरुषाख्य रूपमय का वृत्तान्त श्रीविष्णु पुराण में इस प्रकार है-

“विष्णोस्तु त्रीणिरूपाणि पुरुषाख्यान्यतोविदुः ।

एकन्तु महतः स्रष्टृ द्वितीयं त्वण्डसंस्थितं ।

तृतीयं सर्वभूतस्थं तानि ज्ञात्वा विमुच्यते ॥

[[३५८]]

“अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।

तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ॥ ५०८ ॥ इति ।

तदेतत् साम्मुख्यत्रयं श्रीकपिल देवेनाप्युक्तम् (भा० ३।३२।२६) -

“ज्ञानमात्र’ परं ब्रह्म परमात्मेश्वरः पुमान् ।

दृश्यादिभिः पृथग्भः वैभंगवानेक ईयते ॥ “५०६ ॥ इति ।

(Spin offr)

दृशिर्ज्ञानम् । पृथक् परस्परमन्यादृशो भावो भावना येषु तथाविधैर्ज्ञानादिभिरेक एव परिपूर्ण स्वरूपगुणः परब्रह्म यते परमात्मेयते भगवांश्चेयते । तत्र ज्ञानेन परब्रह्मतया ज्ञायते,

श्रीविष्णु के पुरुषाख्य रूपत्रय का वृत्तान्त सब लोक जानते हैं । प्रथम - महत् स्रष्टा प्रथम पुरुष महाविष्णु हैं । प्रति ब्रह्माण्ड में अवस्थित अर्थात् प्रति ब्रह्माण्डान्तर्यामी गर्भोदशायी द्वितीय पुरुष हैं । सर्व जीवान्तर्यामी क्षीरोदशायी श्रीविष्णु तृतीय पुरुष हैं। इन तीन पुरुषों का तत्त्व को जो जानते हैं । वे माया बन्धन से मुक्त हो जाते हैं ।

उक्त पुरुष द्वय की उपासना रूपा भक्ति का वृत्तन्त जिस प्रकार गीता में है। उस प्रकार उसी प्रकरण में “अधियज्ञोऽहमेवात्र” श्लोकादि के द्वारा श्रीकृष्णास्य भगवान् की उपासना हेतु भक्ति का प्रकार भी निम्नोक्त रीति से लिखित है, ( गी० ८।१४)

“अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।

तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ॥ “५०८॥

टोका - तदेवं आर्त्तइत्यादिना कर्म मिश्रां जरामरण मोक्षाय इत्यनेनापि कर्ममिश्रां कवि मित्यादिभिः, योगमिश्राञ्च सपरिकरां प्रधानीभूतां भक्तिमुक्त्वा सर्व श्रेष्ठां निर्गुणां केवलां भक्तिमाह-अनन्य पुराण- चेता इति । न विद्यते अन्यस्मिन् कर्मणि ज्ञाने योगे वा अनुष्ठेयत्वेन तथा देवतान्तरेव आराध्यत्वेन तथा स्वर्गापवर्गादावपि प्राप्यत्वेन चेतो यस्य । सततं सदेति, काल देश पात्रशुद्धाद्यपक्षेतयैव नित्यशः प्रतिदिन मेव यो मां स्मरति तस्य तेन भक्तेनाहं सुलभ, सुखेन लभ्यः । योग ज्ञानाभ्यासादि दुःख मिश्रणाभाव्यादिति- भावः । नित्ययुक्तस्य नित्यमद्यं गाकाङ्क्षिणः, आशंसायां भूतवच्चेति, भाविन्यपि योगे आशसितेक्त प्रत्ययः । योगिनो भक्ति योगवतः । यद्वा यो । सम्बन्धः दास्य सख्यादि तद्वतः ।

जो अनन्य चेता होकर अर्थात् मुझ को छोड़ कर अन्यत्र सङ्कल्प न रखकर नित्य मेरा स्मरण करता रहता है, हे अर्जुन ! मैं उस नित्य अभियुक्तमनाः भक्ति साधक योगि पुरुष के पक्ष में अति सुख लभ्य । इस प्रकार भक्ति योग का वर्णन भगवान् श्रीकृष्ण को लक्ष्य करके ही किया गया है । ऐसा होने पर पूर्व वर्णित ब्रह्म, परमात्मा, एवं भगवान् भेद से तीन प्रकार परतत्त्व आविर्भाव के साम्मुख्य का विवरण श्रीमद् भागवत् के तृतीय स्कन्ध में भगवान्, कपिलदेव ने कहा है । (भा० ३।३२।२६)

“ज्ञानमात्रं परं ब्रह्म परमात्मेश्वरः पुमान् ।

दृश्यादिभिः पृथग्भावं भंगवानेक ईयते ॥ ५०६ ॥

टीका- ‘समेष्वर्थेष्वत्युक्तं, तदेव साम्यं दर्शयति । ज्ञानमात्रमेव परं ब्रह्मादि शब्देः प्रसिद्ध, दृश्यादिभिः दृश्य द्रष्टृ करण रूपेण, पृथक् प्रतीयते, ज्ञानमात्रत्वेन समेष्वित्यर्थः ॥ "

भगवान् श्रीकपिल देवने कहा, मातः ! एक ही परिपूर्ण स्वरूप एवं परिपूर्ण गुण भगवान् । ज्ञान,

[[३५६]]भक्तिविशेषेण परमात्मतया, पूर्णया भक्तचा भगवत्तयेति ज्ञेयम् । परब्रह्मणः स्वरूपलक्षणं ज्ञानमात्रमिति परमात्मनः ईश्वरः पुमानिति भगवतो भगवानित्येव विवृतचैतत् साम्मुख्य त्रयं भगवत्-परमात्मसन्दर्भयोः-ब्रह्मणः (भा० १० १४ ६) “अथापि भूमन्” इत्यादिना परमात्मनः

[[1]]

भक्ति विशेष एवं पूर्णा भक्ति योगरूप उपासना भेद से पर ब्रह्म, परमात्मा एवं भगवद्रूप में ज्ञानी, भक्ति योगो, एवं विशुद्ध भक्ति साधक के निकट प्रकाशित होते हैं । उस पर ब्रह्म का स्वरूप लक्षण, ज्ञानमात्र है, अर्थात् चिन्मात्र सत्ता स्वरूप है । जिस में शक्ति एवं शक्ति वैचित्री की अभिव्यक्ति नहीं है, इस प्रकार निविशेष ज्ञान ही ब्रह्म का स्वरूप है । परमात्मा - ईश्वर एवं पुरुष नाम से अभिहित हैं । भगवान् षड़. विधैश्वर्य्य परिपूर्ण हैं, एक ही अखण्ड ज्ञान स्वरूप भगवान् - स्वरूप एवं गुण से परिपूर्ण होकर भी उपासक के उपासना भेद से शक्ति शक्तिमत्त्व भेद रहित निविशेष ब्रह्म रूप में, किश्चित् अभिव्यक्त विशेष परमात्मा परमेश्वर रूप में एवं परिपूर्ण अभिव्यक्त विशेष भगवान् रूप में प्रकाशित होते हैं । वस्तु में शक्ति एवं वैचित्री विद्यमान होने पर भी ग्रहण करने की सामर्थ्य न होने से वस्तु की सत्त्वा ही गृहीत होती है, ग्रहण सामर्थ्य होने पर परिपूर्ण भगवत्तत्त्व का साक्षात्कार होता है । ब्रह्म, परमात्मा, भगवान् - यह त्रिविध अविर्भाव का एवं उक्त त्रिविध आविर्भाव के साम्मुख्य रूप ज्ञान, भक्ति विशेष, एवं पूर्णभक्ति रूप उपासनात्रय का विचार भगवत् एवं परमात्मसन्दर्भ में विस्तृत रूपसे किया गया है । ब्रह्म स्वरूपाविर्भाव का विवरण भा० १० १४/६ में इस प्रकार है -

“तथापि भूमन् महिमा गुणस्यते विबोद्धुमहत्यम लान्तरात्मभिः

अविक्रियात् स्वानुभवादरूपतो ह्यनन्यबोध्यात्मतया न चान्यथा ।”

टीका एवं तावत् सगुण निर्गुणयोरुभयोरपि ज्ञानं दुर्घटमिति त्वत् कथा श्रवणादिनैव त्वत् प्राप्ति र्नान्यथेत्युक्तम् । इदानों यद्यप्युभयोरविशेषेण दुर्ज्ञेयत्वमुक्तं तथापि गुणातीतस्य ज्ञानं कथञ्चिद् भवेत् न तु सगुणस्य, तव अचिन्तानन्त गुणत्वादिति श्लोक द्वयेन स्तौति तथापीति ।

हे भूमन् ! अपरिच्छिन्न गुणस्य ते महिमा अमलैरन्तरात्मभिः प्रत्याहृतेन्द्रियैदिबोधुं बोधगोचरी- भवितुम् अर्हति योग्योभवति । अथवा, विबोदधुं ज्ञातुमर्हति अह्यं ते शक्यते इत्यर्थः । यद्वा महिमेति, महिमान कश्चिद्बोधुमर्हतीत्यर्थः । कथम् ? स्वानुभवात् आत्माकारान्तः करण साक्षात्कारात् । नन्वन्तः करण मपि सविकारमेव विषयी करोतीति कथमात्माकारता तस्येत्यत आह अविक्रियादिति । विक्रिया विशेषाकार स्वद्रहितात् विशेष परित्याग एवात्माकारतेत्यर्थः । नन्वन्तः करण साक्षात् कार विषयत्वे अनात्मत्वप्रसङ्गः स्यादत आह- अरूपत इति । रूपं विषयः, अविषयात् वृत्ति विषयत्वमेवात्मनो न फल- विषयत्वम् । अतो नायं दोष इति भावः । कथं तर्हि स्फूत्तिः, अनन्य बोध्यात्मतया स्व प्रकाशत्वेनैव नत्वन्यथा इदं तदिति, विषयत्वेनेत्यर्थः । अथवा, मा सर्वतोऽन्तरङ्गा लक्ष्मीरपि अगुणस्य ते महि महिमानम् अमलै- रक्तवृत्तिभिरिन्द्रियैरपि तया यादृग् वस्तुतस्तेन रूपेण दिबोद्धुं किमर्हति नात्येवेत्यर्थः । कथं तहि अर्हति तदाह – स्वानुभवादित्यादिना । उक्तार्थमेवैतत् ॥

ब्रह्मा ने कहा- हे प्रभो ! आप के सगुणनिर्गुण उभय स्वरूप का ही अनुभव दुर्घट होने पर भी आप के कथा श्रवणादि द्वारा आप की उपलब्ध हो सकती है, अन्य किसी प्रकार से नहीं उस में भी यद्यपि सगुण एवं निर्गुण- उभय स्वरूप का अनुभव ही दुर्घट है, तथापि आप का निर्गुण स्वरूप का ज्ञान कथश्चित हो सकता है । किन्तु अचिन्य अनन्त गुण गण मण्डित होने के कारण आप का सगुण स्वरूप का 3. नुभव होना सर्वथा असम्भव ही है । हे भूमन् ! आप का निर्गुण ब्रह्म स्वरूप का बोध–प्रत्याहृतेन्द्रिय

[[३६०]]

(भा० २२८) “केचित् स्वदेहान्त-हु दयावकाशे, प्रादेशमात्र पुरुषं वसन्तम्” इत्यादिना, भगवतः ( भा० ११७२४) ‘भक्तियोगेन मनसि’ इत्यादिना च । तथा च यद्यपि साम्मुख्यत्वेनाविशिष्टं

साधक के पक्ष में सुलभ है । कैसे बोध हो सकता है, उस को कहते हैं - स्वानुभवात् - आत्माकार से आकारित अन्तः करण साक्षात् कार से उक्त बोध होता है । प्रश्न हो सकता कि - अन्तः करण सविकार वस्तु को ग्रहण करती है, अतः कैसे अन्तः करण का आत्माकाराकारित होना सम्भव होगा ? उत्तर में कहते हैं - अविक्रियात् - अर्थात् अन्तः करण की विकार शून्यता ही आत्मा कारता है । इस में जिज्ञासा हो सकती कि - निर्विषय आत्मा कैसे अन्तः करण का विषय होगा ? यदि वह अन्तः करण का विषय होता तो, आत्मा का अनात्मत्व अर्थात् जड़त्व प्रसङ्ग होगा । कारण, जो जो इन्द्रिय ग्राह्य है, वही जड़ है, इस प्रकार संशय निरसन निबन्धन कहते हैं - “अरूपतः” अर्थात् आत्मा कभी भी अन्तः करण का विषय नहीं होता है । कारण, वृत्ति विषयत्वमेवात्मनो न फल विषयत्वम्” अर्थात् आत्म घट पटादि के समान इन्द्रिय विषय नहीं होता है, आत्म वृत्ति के द्वारा ही आत्मा प्रकाशित होता है । जिस प्रकार अग्नि, सूर्य्य, में उभय धर्म विद्यमान हैं । एक अन्य निरपेक्ष रूप से स्वयं प्रकाश सामर्थ्य, द्वितीय - अन्य को प्रकाशित 1 करने की सामर्थ्य । उस प्रकार स्व प्रकाश आत्मा भी अन्तः करणादि इन्द्रिय की अपेक्षा शून्य होकर स्वयं स्व प्रकाश स्वभाव द्वारा विषयाकार अन्तः करण में स्वयं प्रकाशित होता है । यहाँ प्रश्न हो सकता है कि -अन्तः करण में आत्मा की स्फूर्ति कैसे सम्भव होगी ? उत्तर में कहते हैं- “अनन्य- बोध्यात्मतया " अर्थात् अणु चैतन्य स्वरूप जीवात्मा की स्फूत्ति होने से कैसे विभु चैतन्य ब्रह्म स्वरूप की उपलब्धि हो सकती है ? उत्तर में कहते हैं-

यद्यपि ब्रह्म स्वरूप विभु चैतन्य है, और जीव स्वरूप- अणु चैतन्य है, तथापि चैतन्यांश में उभय साम्यता हेतु अभेद रूप में जीव चैतन्य एवं विभु चैतन्य की स्फूत्ति होती है। यहाँ ज्ञातव्य यह है कि- जोव चैतन्य एवं विभु चैतन्य की अभेद रूप में स्फूर्ति लाभ की कामना से साधन में प्रवृत्त होने पर भक्ति योग द्वारा आरधित श्रीभगवत् प्रसाद से ही अणु चैतन्य जीव स्वरूप के सहित विभु चैतन्य ब्रह्म स्वरूप की अभेद रूप में उस अवस्था में स्फूर्ति होती है । सारकथा यह है कि- अभेद स्फूर्ति का मूल निदान श्रीभगवत् कृपा है। कारण, अनुग्राहक तत्त्व श्रीभगवत्तत्त्व है, एवं अनुगृहीत तत्त्व ब्रह्म तत्त्व है । श्रीमत्स्य देव का कथन भा० ८।२४।३८ में सुस्पष्ट है ।

परमात्म तत्व की अभिव्यक्ति का प्रकार भा० २२८ में श्रीशुकदेव के कथन में सुव्यक्त है ।

“केचित् स्वदेहान्त हृदयावकाशे, प्रादेशमात्रं पुरुषं वसन्तम् ।

चतुर्भुजं कञ्जरथाङ्ग शङ्खगदाधरं धारणया स्मरन्ति ॥”

हे राजन् ! कोई कोई सौभाग्यवान् व्यक्ति, निज देह के मध्य में जो हृदय है, उस में जो आकाश अवकाश है, उस अवकाश में अङ्गुष्ठ एवं तर्जनी को विस्तार करने से जो परिमाण होता है उस परिमाण में अन्तर्यामी पुरुष निवास करते हैं । यह पुरुष चतुर्भुज हैं, एवं हस्त चतुष्टय में पद्म, चक्र, शङ्ख, गदा धृत हैं, इस रीति से उन पुरुष का स्मरण करते हैं । भगवत् स्वरूप का आविर्भाव प्रकार का कथन भा० १।७।४-५ में श्रीसूत ने किया है-

“भक्ति योगेन मनसि सम्यक् प्रणिहितेऽमले ।

अपश्यत् पुरुषं पूर्ण मायाञ्च तदपाश्रयाम् । यया सम्मोहित जीव आत्मानं त्रिगुणात्मकम् परोऽपि मनुतेऽनर्थं तत् कृतञ्चाभिपद्यते ॥”

P

[[३६१]]

ज्ञानावित्रयमपि तद्व मुख्य प्रतियोगि भवेत्, तथापि (भा० १०।१४१५) “श्रेयः सृति भक्ति- मुदस्य ते विभो, क्लिश्यन्ति ये केवलबोधलब्धये । तेषाम्” इत्यादौ भक्त विना केवलं ज्ञानस्याकिश्चित्करत्वात् अत्रापि च (भा० १२/२०१३१) “तस्मान्मद्भक्तियुक्तस्य इत्यादी भक्तस्तन्निरपेक्षत्वात्, (भा० १११२०।३२) “यत् कर्मभिर्यत्तपसा” इत्यादी आनुषङ्गिक-सर्व-

टीका - प्रणिहिते निश्वले । अत्र हेतुः, भक्तियोगेन अमले । पूर्वं प्रथमं पुरुषं ईश्वरं अपश्यत् । पूर्णमिति वा पाठ’ तदुपाश्रयान् ईश्वराश्रयां तदधीनां मायाञ्चापश्यत् । (४) ईशमाया कृताञ्च जीवानां संसृति मपश्यदित्याह । यया माध्या सम्मोहितः, स्वरूपाव रणेन विक्षिप्तः, परोऽपि गुणत्रयाद्वयतिरिक्तोऽपि यत् कृतं त्रिगुणत्वाभिमानकृतम् अनर्थं कर्त्तृत्वादिकञ्च प्राप्नोति ॥५॥

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हे शौनक ! महर्षि श्रीकृष्ण द्वैपायन भक्ति योग द्वारा समाहित निर्मल चित्त से परमपुरुष श्रीकृष्ण का एवं उनके

पृष्ठ देशवतनो अपकृष्ट आधया माया का दर्शन किये थे, जिस माया द्वारा विमोहित होकर आत्मा (जीव) स्वरूप में मायातीत चैतन्य होकर भी अपने को त्रिगुणात्मक अभिमान करता है, एवं तज्जन्य विविध अनर्थ भोग भी करता रहता है । यहाँ प्रेम भक्ति विभावित हृदय में जो श्रीभगवान् का आविर्भाव होता है, उसका दृष्टान्त प्रस्तुत हुआ है । यहाँपर यद्यपि ज्ञान, कर्म, एवं भक्ति को परतत्त्व साम्मुख्य के प्रति अविशेष हेतु रूप में कहा गया है, अर्थात् कर्म ज्ञान भक्ति यह त्रिविध उपासना ही परतत्त्व वैमुख्य के प्रतियोगी हैं। अतः भगवद् विमुखता का विरुद्ध रूप में उक्त उपासनात्रय को प्रस्तुत किया गया है । तथापि भा० १०।१४।५ में श्रीब्रह्मा श्रीकृष्ण को, कहे थे ।

“श्रेयः सृति भक्तिमुदस्य ते विभो, क्लिश्यन्ति ये केवलबोधलब्धये । तेषामसौ क्लेशल एव शिष्यते नान्यद् यथा स्थूल तुषावधातिनाम् ॥”

[[33]]

हे प्रभो ! जो निखिल अभ्युदय एवं मोक्षरूप मङ्गल समूह की जननी भक्ति का अनादर तुच्छ बुद्धि से करके केवल ज्ञानलाभ हेतु आसन, यम, नियम, प्रत्याहार साधनों में यत्नपरायण होकर क्लेश करते रहते हैं, उनके यह सब क्लेश केवल क्लेश ही होते हैं । किन्तु वस्तु का अनुभव कराने में सक्षम नहीं होते हैं । जिस प्रकार बलवान् व्यक्ति, स्वल्प परिमाण धान्य को देखकर भूरि भूरि तूष का अवघातन करता है, उस से तण्डुल लाभ तो होता ही नहीं किन्तु हस्त वेदना ही सार होता है, उस प्रकार तुच्छ बुद्धि से भक्ति का अनादर करके केवल ज्ञान लाभ हेतु प्रयत्न करने से फल लाभ के परिवर्त में क्लेश ही सार होता है । इस श्लोक से भक्ति के विना ज्ञान का अकिञ्चित् करत्व प्रदर्शित हुआ है।

भा० ११।२०।३१ में वर्णित श्लोक के अनुसार श्रीभगवद् भक्ति का ज्ञान वैराग्य की अपेक्षा शून्यत्व प्रदर्शित

हुआ है-

के पक्ष

STS IF THE

“तस्माद् मद्भक्तियुक्तस्य योगिनो बं मदात्मनः ।

न ज्ञानं न च वैराग्यं प्रायः श्रेयो भवेदिह ॥ P

P

भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र उद्धव को कहे थे - हे उद्धव ! मद् गतचित्त मुझ में भक्ति युक्त योगी साधक

ज्ञान वा वैराग्य प्रायशः मङ्गलकर नहीं होता है । भा० ११।२०।३२ में भी उक्त है -

पक्ष में

“यत् कर्मभिर्यत्तपसा ज्ञान वैराग्यतश्च यत्, योगेन दान धर्मेण श्रेयोभिरितरैरपि ॥” सर्वं मद् भक्तियोगेन मद् भक्त लभतेऽञ्जसा स्वर्गापवर्गं मद्धामकथश्विद्यदि वाञ्छति ॥”

IPE

[[३६२]]

फलत्वाच्च ज्ञानमपि व्यक्कृतम् । तनोऽवशिष्टायां सविशेषोष सनारूप भत्तौ च श्रीविष्णु- रूपम बहुमन्यमानाः केचिन्निराकारेश्वरस्यान्या कारेश्वरस्य चोपासनां यां मन्यन्ते, सापि व्यक्कृतास्ति । यतो हिरण्यकशिपोरपि (भा० ७१२।२२) “नित्य आत्माव्ययः शुद्धः " इत्यादि तद्वावयेन (भा० ७।२।३६) “यदृच्छयेशः सृजतीदमव्ययः” इत्यादि-दुदाहृतेतिहास वाघयेन तेन कृत ब्रह्मस्तवेन च ब्रह्मज्ञानं निराकारेश्वरज्ञानमन्याकारेश्वरज्ञानञ्च तस्यास्तीति वर्ण्यते ।

हे उद्धव ! निखिल कर्म तपस्या, ज्ञान, वैराग्य, अष्ट ङ्ग योग, दानधर्म एवं तीर्थ यात्रादि व्रताचरण से जो फल लाभ होता है, मेरा भक्त, मदीय भक्ति योग के प्रभाव से उक्त समस्त फल को प्राप्त करता है, अर्थात् चित्त शुद्धि प्रभृति को अनायास प्राप्त करता है । यहाँतक कि-भक्ति के आनुकूल्य से स्वर्ग, मोक्ष, वैकुण्ठादि धाम वास की इच्छा होने पर प्राप्त कर सकता है। इस से स्वरूपावबोधरूप ज्ञान का भी अनादर प्रदर्शित हुआ है । अनन्तर अवशिष्ट सविशेष परमात्म स्वरूप की उपासना रूपा भक्ति में भी दृष्ट होता है कि- कतिपय व्यक्ति, श्रीविष्णु के बहु रूप को स्वीकार न करके निराकार ईश्वर की उप सना को अथवा अन्याकार ईश्वर की उपासना को बहु मान प्रदान करते हैं, इस प्रकार मत भी उपरोक्त प्रमाण से अनादृत हुआ है । अर्थात् श्रीविष्णु रूपका सच्चिदानन्द घनत्व एवं विभुत्व को स्वीकार न करके अथवा अन्यविध आकार परमेश्वर की अर्थात् ब्रह्मा प्रभृति की उपासना को ही मानते हैं, वह भी श्रीमद् भगवतीय सिद्धान्त के द्वारा निराकृत हुआ है । भा० ७।२।२२ में हिरण्यकशिपु असुर होकर भी-

“नित्य आत्माव्ययः शुद्धः सर्वगः सर्ववित् परः । धत्तेऽसावात्मनो लिङ्गं मायया विसृजन् गुणान् ॥”

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ईश्वर को नित्य, आत्मा, अव्यय, शुद्ध स्वरूप कहा है। भा० ७ २३६ में इतिहास कथन प्रसङ्ग में हिरण्यकशिपु ने कहा भी है -

“य इच्छयेश सृजतीदमव्ययो य एव रक्षत्यवलुम्पते च यः ।

तस्याबलाः क्रीड़नमाहुरीशितुञ्चराचरं निग्रह संग्रहे प्रभुः ॥”

परमेश्वर ही सर्वमय कर्ता हैं । अनन्तर हिरण्यकशिपु ने भा० ७।३।२६-३४ - पर्यन्त श्लोकों के द्वारा जब ब्रह्मा का स्तव ईश्वर रूप में किया था, उस में भी ब्रह्मज्ञान, निराकार, ईश्वर ज्ञान एवं अन्यविध ईश्वर ज्ञान प्रकाशित हुआ है । अथच एतादृश ज्ञान सम्पन्न होकर भी, एवं उपासना सामर्थ्य युक्त होकर भी श्रीविष्णु के प्रति हिरण्यकशिपु की साधारण देवता दृष्टि थी, अतएव उक्त ज्ञान एवं उपासना को श स्त्र बारम्बार निन्दा करते हैं । तात् पय्यं यह है कि देवतान्तर का उपासक सर्व सद् गुण मण्डित होने पर भी यदि श्रीविष्णु में परमाराध्य बुद्धि स्थापन नहीं करता है । तो वह असुर संज्ञा से अभिहित होता है । इस से श्रीविष्णु का ही परमोपास्यत्व श्रीविष्णु भक्ति का सर्व साधन श्रेष्ठत्व प्रतिपादित हुआ है ।

एवं श्रीमद् भागवत में अहंग्रह उपासना भी धिक्कृत हुई है । अर्थात् “मैं ही वही परमेश्वर हूँ” इस बुद्धि से जोव के सहित ईश्वर का अभेद अभिमान से जो उपासना होती है, वह भी श्रीमद् भागवत में तिरस्कृत हुई है। काशीराज पौण्ड्रक ने जब श्रीकृष्ण को संवाद भेजा था कि- “मैं ही वासुदेव हूँ। तुम अपना वासुदेव अभिमान त्याग दो” यादवगण दूत से यह वाक्य सुनकर बहुल उपहास किये थे । यहाँपर भी जो लोक अहंग्रह उपासना में आग्रहशील हैं, विशुद्ध भक्ति निष्ठ व्यक्ति गण उन को उपहास करते हैं । कारण, अहंग्रह उपासना का फल स्वरूप मोक्ष को विशुद्ध भक्त गण हेय दृष्टि से देखते हैं। श्रीमद् भागवत

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श्रीविष्णौ देवतासामान्यदृष्टेनिन्द्यते च स इति । तथान्यत्राहं ग्रहोपासना च न्यक्कृता, पौण्ड्रकवासुदेव दौ यदुभिरिव शुद्धभक्तैरुपहास्यत्वात् (गा० ३।२६।१३) “सालोक्य-साष्टि- सारूप्य-” इत्यादिषु तत्फलस्य हेयतया निद्दशात्, तदुक्तं श्रीहनुमता - “कौ मूढ़ो दासतां प्राप्य प्राभवं पदमिच्छति” इति । तदेतत् सर्व्वमभिप्रेत्य निष्किञ्चनां भक्तिमेव तादृशभक्त- प्रशंसाद्वारेण सर्वोर्ध्वमुपदिशति (भा० ११/२०१३४) -

(१७६) “न किञ्चित् साधवो धीरा भक्ता ह्येक तिनो मम ।

वाञ्छन्त्यपि मया दत्तं कैवल्यमपुनर्भवम् ॥ “५१०॥

टीका च - “धीरा धीमन्तः, यतो ममैकान्तिनो मय्येव प्रीतियुक्ताः, अतो मया दत्तमपि न गृह्णन्ति, किं पुनर्वक्तव्यं न वाञ्छन्तीत्यर्थः । अपुनर्भवमात्यन्तिकमपि कैवल्यम्” इत्येषा । ईदृशानामेकान्तिनामेव परममहिमा गारुड़ -

“ब्राह्मणानां सहस्र ेभ्यः सत्रयाजी विशिष्यते । सत्रयाजिसहस्र ेभ्यः सर्ववेदान्तपारगः ॥ ५११।

सर्व्ववेदान्तवित्कोटया विष्णुभक्तो विशिष्यते । वैष्णवानां सहस्रभ्य एकान्त्ये को विशिष्यते । “५१२ ॥

के ३ २६०१३ में उक्त - सालोक्य, साष्टि, सारूप्य, सामीप्य, एवं एकत्व लक्षण पञ्चविधा मुक्ति को भक्तगण आदर प्रदान नहीं करते हैं, इस का सुव्यक्त उल्लेख भी श्रीमद् भागवत में है । श्रीहनूमान् भी कहे हैं-

“को मूढ़दासतां प्राप्यप्राभवं पदमिच्छति ।”

ऐसा कौन मूढ़ व्यक्ति है, जो दासत्व प्राप्त कर भी प्रभुत्व अर्थात् ब्रह्मत्व लाभेच्छ है ? इस अभिप्राय से ही निष्काम भक्त की प्रशंसा के द्वारा निष्किश्चन भक्ति का ही सर्व श्रेष्ठ रूप में उपदेश प्रदान किया गया है । भा० ११।२०।३४

(१७६) " न किञ्चित् साधवो धीरा भक्ता ह्ये कान्तिनो मम ।

वाञ्छन्त्यपि मया दत्तं कैवल्यमपुनर्भवम् ॥”५१० ॥

श्रीकृष्ण ने कहा- मेरे भक्त वृन्द अत्यन्त धीर हैं, अर्थात् धीमान् हैं । कारण, वे सब एकान्ती हैं, अर्थात् मुझ में अतीव प्रीति युक्त हैं । अतएव मैं उनसब को प्रदान करने से भी कैवल्य - अपुनर्भव-मोक्ष- सुख ग्रहण नहीं करते हैं। वे सब उसकी वाञ्छा ही नहीं करते हैं ।

एतादृश भक्तवृन्द की परममहिमा का वर्णन गरुड़ पुराण में इस प्रकार है –

“ब्राह्मणानां सहस्रभ्यः सयाजी विशिष्यते ।

सत्रयाजिसहस्रभ्यः सर्ववेदान्तपारगः ॥५११ ॥

सर्व्ववेदान्तवित्कोटया विष्णुभक्तो विशिष्यते ।

वैष्णवानां सहस्र ेभ्य एकान्त्येको विशिष्यते ॥ “५१२ ॥

ॐ सहस्र सहस्र ब्राह्मण वृन्द से सत्रयागकारी एक ब्राह्मण श्रेष्ठ है, सत्रयाजी सहस्र ब्राह्मण से भी एक वेदान्त पारग ब्राह्मण श्रेष्ठ है । सर्व वेदान्त विज्ञ कोटि ब्राह्मण से भी एक विष्णु भक्त श्रेष्ठ है, वैष्णव सहस्र से भी एक एकान्ती भक्त श्रेष्ठ है ॥ १७६ ॥