१७२

३०१ १७२

तदेतत् पद्यं स्वयमेवाग्र े व्याख्यास्यते द्वाभ्याम् (भा० ११।२०।२७-२८) -

(१७२) “जातश्रद्धो मत्कथासु निर्विण्णः सर्वकर्मसु ।

वेद

वेद दुःखात्मकान् कामात् परित्यागेऽप्यनीश्वरः ॥४८१॥ ततो भजेत मां प्रीतः श्रद्धालुर्दृढ़निश्चयः ।

जुषमाणश्च तात् कामान् दुःखोदर्कांश्च गर्हयन् ॥४८२ ॥

कथेत्युपलक्षणम्, मत्कथादिषु एतदेव केवलं परमं श्रेय इति जातविश्वासः, अतएवान्येषु कर्मसु उद्विग्नः, किन्तु वर्त्तमानेषु प्राचीनपुण्यकर्मफलभोगेषु एवम्भूत इत्याह–वेदेति । ततस्तां वेदेत्यादि व्याख्याताम् (भा० ११।२०१८) “न निर्विष्णो नातिसक्तः” इत्येव लक्ष् णाम- वस्थामारभ्यैवेत्यर्थः । मां भजेत मदीयानन्यताख्य-भक्तावधिकारी स्यान्न तु ज्ञानवज्जा ते सम्यग्वैराग्य एव । तस्याः स्वतः सर्वशक्तिमत्वेनान्यनिरपेक्षत्वादित्यर्थः । अनन्तरश्च वक्ष्यते (भा० ११/२०१३१) -

“तस्मान्मद्भक्तियुक्तस्य योगिनो वै मदात्मनः ।

न ज्ञानं न च वैराग्यं प्रायः श्रेयो भवेदिह ॥ ४८३ ॥

से नहीं होती है । अतएव कार्य्यं व्यपदेश से पवित्र तीर्थ निषेवण से साधुसङ्ग होता है । उस से श्रीहरिकथा श्रवण होता है, उस में विश्वास उत्पन्न होता है । एवं साधु दृन्द की सेवा करने की इच्छा होती है, उस से श्रीवासुदेव की कथा में रुचि उत्पन्न होती है ।

प्रवक्ता श्रीभगवान् हैं ॥ १७१ ॥

३०२ १७२

भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं ही उसकी व्याख्या श्लोक द्वय के द्वारा किये - हैंभा० १११२०/२७-२८

(१७२) ‘जातश्रद्धो मत्कथासु निर्विण्णः सर्वकर्मसु ।

वेद

दुःखात्मकान् कामान् परित्यागेऽप्यनीश्वरः ॥ ४८१ ॥

ततो भजेत मां प्रीतः श्रद्धालुदृढ़निश्चयः ।

जुषमाणश्च तान् कामान् दुःखोदकश्चि गर्हयन् ॥ " ४८२

टीका - भक्तयधिकारिणो भक्ति योगमाह जातश्रद्ध इति नवभिः । मत् कथासु जातश्रद्धः, अतएव अन्येषु कर्मसु निर्विण्णः, उद्विग्नो नतु तत् फलेषु विरक्तः । तदाह-वेदेति । यद्यपि वेद, तथापि तत् परित्यागेऽनीश्वरोऽशक्तः (२७) एवम्भूतो यः श्रद्धालुभक्तचं व सर्वं भविष्यतीति दृढ़ निश्चयः सन् ततस्तदनन्तरं मां प्रीत्या भजेत । विषयांस्तु सेवमानोऽपि तेषु प्रीति न कुर्य्यादित्याह गर्हय निति ॥२८॥

जो मदीय कथादि में अर्थात् मदीय भक्तयङ्ग साधन में श्रद्धावान् है, भक्ति साधन के द्वारा ही सर्वार्थ सिद्धि होगी, अपर साधनों का प्रयोजन ही क्या है ? इस प्रकार दृढ़ निश्चय युक्त है, एवं भक्ति साधन ही परममङ्गलमय है, अन्य कोई भी साधन नित्य भगवत् सेवक मेरे पक्ष में कल्याण कर नहीं है, इस प्रकार विश्वास जिस के हृदय में हुआ है । अतएव वह व्यक्ति, अवश्य ही अन्य निखिल कर्म पे उद्विग्न किन्तु वर्त्तमान एवं प्राचीन कर्म फल भोग में विरक्त नहीं है । इस प्रकार अधिकारी व्यक्ति जानता है कि विषय भोग दुःख का ही कारण है, अथच भोग परित्याग करने में असमर्थ है। पहले कहा गया भा० ११।२०१८)

[[३३५]]

(भा० ११।२०१३२) “यत् कर्मभिर्यत्तपसा” इत्यादि । न च कर्मनिर्वेदसापेक्षत्वमापतितम्, स तु भक्तः सर्वोत्तमत्वविश्वासेन स्वत एव प्रवर्त्तते । अतो निर्विण्ण इत्यनुवादमात्रम् । अतएव यद्यपि ज्ञान- कर्म्मणोरपि श्रद्धापेक्षास्त्येव, तां विना वहिरन्तः सम्यक्प्रवृत्त्यनुपपतेस्तथाप्यत्र श्रद्धामात्रस्य कारणत्वेन विशेषतस्तदङ्गीकारः । अत्रापि च तदपेक्षा पूर्ववत् सम्यक्-

“यदृच्छया मत् कथादौ जातश्रद्धस्तु यः पुमान् ।

न निर्विण्णो नातिसक्तो भक्ति योगोऽस्य सिद्धिदः ॥ "

इस प्रकार अवस्था से आरम्भ कर- अर्थात् जिस अवस्था में विषय भोग वैराग्य भी नहीं है, एवं विशेष आसक्ति भी नहीं है । अथच भगवद् भक्ति के प्रति अङ्ग में श्रद्धाशील है, उस अवस्था से ही मेरा भजन करता है, वह व्यक्ति मेरी अनन्या भक्ति का अधिकारी है। ज्ञान साधन में जिस प्रकार इस जगत् के एवं पर जगत् के निखिल विषय भोग में सम्यक् विरक्त न होने से ब्रह्म जिज्ञासा का अधिकारी नहीं होता है, भक्ति साधन में उस प्रकार वैराग्य को अपेक्षा नहीं है, अर्थात् भक्ति में इस प्रकार सामर्थ्य विद्यमान है कि वह निज आश्रित जन की निखिल अयोग्यता को विदूरित करके सर्व प्रकार योग्यता सम्पादन कर देती है । तज्जन्य शक्ति साधन के पक्ष में अपर किसी प्रकार योग्यता की अपेक्षा नहीं है । केवल भक्ति में सुदृढ़ श्रद्धा की ही अपेक्षा है

भा० ११।२०।३१ में श्रीकृष्ण स्वयं कहेंगे -

“तस्मान्मद्भक्तियुक्तस्य योगिनो वै मदात्मनः ।

न ज्ञानं न च वैराग्यं प्रायः श्रेयो भवेदिह ॥ १४८३ ॥

टीका - तदेवं व्यवस्थया अधिकारत्रयमुक्तम् । तत्र च भक्तेरन्य निरपेक्षत्वादन्यस्य च तत् सापेक्ष- त्वाद् भक्तियोग एव श्रेष्ठ इत्युपसंहरति तस्मादिति त्रिभिः । मदात्मनो मयि आत्मा चित्तं यस्य तस्य श्रेयः साधनम् ।

उद्धव ! मैंने कर्म, ज्ञान, एवं भक्ति के त्रिविध अधिकारी का वृत्तान्त कहा। उस में ज्ञान एवं कर्म नित्य भक्ति योग के मुखापेक्षी हैं । किन्तु भक्ति योग कर्म एवं ज्ञान के मुख पेक्षी नहीं है । एतज्जन्य भक्ति योग निखिल साधनों से अतिशय श्रेष्ठ है । मुझ में आसक्त चित्त भक्ति युक्त साधक के पक्ष में प्रायशः ज्ञान वा वैराग्य, मङ्गल साधक नहीं होता है । कारण, भा० ११।२०।३२-३३ में आपने कहा है-

“यत् कर्मभि र्यत् तपसा ज्ञान वैराग्यत्श्च यत् ।

योगेन दानधर्मेण श्रेयोभिरितरैरपि ।

सर्वं मद्भक्ति योगेन मद्भक्तो लभतेऽञ्जसा ।

स्वर्गापवर्ग मद्धाम कथञ्चिद् यदि वाञ्छति ।

टीका- तत्र हेतुः । यत् कर्मभिरित्यादि । इतरैरपि तीर्थ यात्रा व्रतादिभिः श्रेयः साधनं र्यद् भाव्यं सत्त्व शुद्धयादि तत् सर्वमञ्जसा अनायासेनैव स्वर्गमपवर्ग मद्धाम वैकुण्ठं लभत एष । वाञ्छा तु नास्तीत्युक्तं- यदि वाञ्छतीति ॥

विविध कर्म, तपस्या, ज्ञान, वैराग्य, अष्टाङ्ग योग, दान धर्म, तीर्थयात्रा, व्रत प्रभृति साधनों के द्वारा जो चित्त शुद्धि प्रभृति फल होते हैं, मेरा भक्त, यह सब फल को अनायास प्राप्त कर लेते हैं । अतएव भक्ति योग जो अन्यनिरपेक्ष है उस का सुस्पष्ट उल्लेख हुआ । “निर्विण्णः सर्वं कर्मसु " निखिल कर्मानुष्ठानों में

[[३३६]]

प्रवृत्त्यर्थेव । तां विन्दानन्यताख्या भक्तिस्तथा न प्रवर्त्तते । कदाचित् किचित् प्रवृत्ता च नश्यतीति । अतएव “न निर्विष्णो नातिरुक्तः” इत्यस्यानन्तरमपि ( भा० ११/२०१६) “मत्कथा- श्रवणादौ वा” इत्यत्र श्रद्धायां जातायामेव कर्म्मपरित्यागो विहितः । भक्तिमात्रन्तु तां विनापि सिध्यति । ( स्कान्दे प्रभासखण्डे ) ’ सकृदपि परीगीतं श्रद्धया हेलया वा’ भृगुवर नरमात्र तारयेत् कृष्णनाम” इत्यादी, (मा० ३।२५।२५)

“सतां प्रसङ्गान्मम वीर्य्य सम्विदो, भक्ति हृत्कर्णरसायनाः कथाः ।

निर्वेद प्राप्त व्यक्ति जब भक्ति का अधिकारी है, तब भक्ति योग कैसे सब प्रकार से निरपेक्ष हो सकता ? उत्तर में कहते हैं- जिस समय भक्ति में भक्त का सर्वोत्तम विश्वास होगा, उन समय स्वभावतः ही काम्य कर्मादि अनुष्ठान में निर्वेद होगा । किन्तु श्लोक में कर्म योग में निवेद की कथा जो कही गई है, वह अनुवाद मात्र ही है, अर्थात् भक्ति योग के स्वभाव से प्राप्त निर्वेद की कथा ही सुस्पष्ट रूप से कही गई है । अतएव यद्यपि ज्ञान एवं कर्म में भी श्रद्धा की अपेक्षा विद्यमान है. कारण, किसी भी साधन में श्रद्धा न होने से प्रवृत्ति नहीं हो सकती है। जिस की श्रद्धा कर्म में नहीं है, उसका सर्वथा आवेश कर्मानुष्ठान में नहीं होगा, अथच आवेश के विना सिद्धि लाभ भी नहीं होता है । अतएव ज्ञान कर्म साधन अनुष्ठान में भी साधक को श्रद्धा की अपेक्षा है । तथापि - भक्ति साधन में केवल श्रद्धा को कारण रूप में निर्देश करने के कारण, भक्ति मार्ग में श्रद्धा को विशेष रूप से अङ्गीकार किया गया है । इस भक्ति मार्ग में भी पहले के समान अन्य साधन के प्रति आदर शून्य होकर एकमात्र भक्ति साधन में सम्यक् प्रवृत्ति हेतु श्रद्धा की अपेक्षा है, श्रद्धा के विना अर्थात् भक्ति में दृढ़ विश्वास न होने पर अनन्य भाव से भक्ति में प्रवृत्ति नहीं हो सकती है। कर्म साधन में दृढ़ विश्वास शून्य व्यक्ति निरपेक्ष होकर भक्ति में प्रवृत्त होने पर उस के द्वारा भक्ति अनुष्ठान विनष्ट हो जाता है ।

.

अतएव “न निव्विण्णो नातिसक्तः” इस रीति से श्रीकृष्ण भजन करने पर सिद्धि अर्थात् प्रेम भक्ति लाभ हो सकता है। इस प्रकार कहने के पश्चात् -

" तावत् कर्माणि कुर्वीत न निविद्य ेत यावता ।

मत् कथा श्रवणादौ वा श्रद्धा यावन्न जायते ॥” (११/२०१६)

अर्थात् ज्ञान साधक, तब तक निष्काम भाव से कर्मानुष्ठान करे जब तक ऐहिक पारत्रिक वैषयिक सुख से मन उद्विग्न नहीं होता है। भक्ति साधक को भी तब तक धर्म करना चाहिये, जब तक मदीय कथा उपलक्षित भक्ति के किसी अङ्ग में विश्वास नहीं होता है। इस श्लोक में भक्ति में दृढ़ श्रद्धा का उदय होने के पश्चात् ही काम्य कर्म परित्याग करने का विधान वर्णित है । भक्ति सामान्य में श्रद्धा की अपेक्षा नहीं है, अर्थात् जब तक ज्ञान कर्मादि शून्या अनन्या भक्ति में अधिकार नहीं होता है । किन्तु ज्ञान कर्मादि मिश्रित अन्याभिलाषिता युक्त भक्ति साधन में श्रद्धा के विना भी सपस्त वर्णी आश्रमी, वर्णाश्रम वहिर्भूतजन, यवन, पुक्कश, खश प्रभृति जाति का भी समान अधिकार है। एवं उक्त भक्ति साधन के द्वारा वे सब भक्ति लाभ भी कर सकते हैं । इस अभिप्राय से ही स्कन्द पुराण के प्रभास खण्ड में लिखित है-

T

“सकृदपि परिगीतं श्रद्धया हेलया वा, भृगुवर नरमात्रं तारयेत् कृष्णनाम ॥” इस प्रकार अनेक वर्णन है । एवं श्रीभागवत के ३।२५।२५ में वर्णित है-

“सतां प्रसङ्गान्मम वीर्य्यसम्विदो, भवन्ति हृत्कर्णरसायनाः कथाः ।

P

श्री भक्तिसन्दर्भः

[[३३७]]

तज्जोषणः दाश्वपवर्गवर्त्मनि श्रद्धा रतिर्भक्तिरनुक्रमिष्यति ॥ ४८४॥ इत्यादौ च, तत्पूर्व्वतोऽपि तस्याः फलदातृत्वश्रवणात् (भा० ६ २ ४६ ) -

“त्रियमाणो हरेर्नाम गृणत् पुत्रोपचारितम् ।

अजामिलोप्यगाद्दाम किमुत श्रद्धया गृणन् ॥४८॥

इत्यादौ तथा फलदातृत्वसौष्ठवश्रवणाच्च । सा च श्रद्धा शास्त्राभिधेयावधारणस्यैवाङ्गम्, तद्विश्वासरूपत्वात् । ततो नानुष्ठानाङ्गत्वे प्रविशति । भक्तिश्च फलोत्पादने विधिसापेक्षापि न स्यात्, दाहादि – कर्म्मणि वह्नयादिवत्, भगवच्छ्रवण-कीर्त्तनादीनां स्वरूपस्थ तादृशशक्ति- त्वात् । ततस्तस्याः श्रद्धाद्यपेक्षा कुतः स्यात् ? अतः श्रद्धां विना क्वचिन्मूढ़ादावपि सिद्धिदृश्यते

तज्जोषणादाश्वपवर्गवर्त्मनि श्रद्धा रतिर्भक्तिरनुक्रमिप्यति ॥ ४८४ ॥

[[1]]

टीका-सन् सङ्गस्य भक्तयङ्गतामुपपादयति सतामिति । वीर्य्यस्य सम्यग् वेदनं यासु ता वीर्य्यं संविदः, हृत्कर्णयो रसायनाः सुखदाः । तासां जोषणात् - सेवन त्, अपवर्गोऽविद्यानिवृत्तिवत्यस्मिन् तस्मिन् हरौ प्रथमं श्रद्धा, ततो रति, ततो भक्तिः का अनुक्रमिष्यति क्रमेण भविष्यतीत्यर्थः ॥

श्रद्धा लाभ के पहले भी सत्सङ्ग से भक्ति का लाभ होता है । भा० ६।२।४१ में उक्त है-

“स्त्रियमाणो हरेर्नाम गृणन् पुत्रोपचारितम् ।

[[11285811]]

अजामिलोऽप्यगाद्धाम किमुत श्रद्धया गृणन् ॥ ४८५ ॥

आकार

मृत्यु दशा में आसीन अजामिल पुत्रोपचारित श्रीहरि नाम ग्रहण करके भी वैकुण्ठ धाम गमन किया था। जो व्यक्ति, श्रद्धा पूर्वक श्रीहरिनाम ग्रहण करेगा, उस के सम्बन्ध में वैकुण्ठ लाभ विषय में क्या सन्देह हो सकता है ? पूर्वपूर्वोल्लिखित श्लोकों के समान यह सब श्लोकों में फल प्रदान का सौष्ठव विद्यमान है 1

T

उक्त श्रद्धा भी शास्त्र के वाच्य वस्तु अव धारण के अङ्ग स्वरूप है । कारण, शास्त्रार्थ विश्वास का नाम ही श्रद्धा है । अर्थात् शास्त्र में जो सब उपदेश हैं, उन उपदेश समूह को हृदय में धारण करने का अङ्ग स्वरूप श्रद्धा है । शास्त्रार्थ में दृढ़ विश्वास को श्रद्धा कहते हैं ।

अतः श्रद्धा, अनुष्ठान का अङ्ग नहीं है । भक्ति भी फल साधन विषय में विधि की अपेक्षा नहीं करती है । जिस प्रकार अग्नि द्वारा दाहादि कर्म में व्यक्ति के सङ्कल्प की अपेक्षा नहीं है, अर्थात् अग्नि जिस प्रकार दहन कर्म में अन्यनिरपेक्ष भाव से सम्मुखस्थ वस्तु को दग्ध करता है, उस प्रकार भक्ति भी विधिको अपेक्षा न करके ज्ञात वा अज्ञात रूप से निखिल अन्तराय को विनष्ट करके निज फल प्रदान करती हैं, कारण, श्रहरि भक्ति, भगवान् के स्वरूपस्थ तादृश सामर्थ्य विशेष है, अग्नि जिस प्रकार अज्ञात रूप से काष्ठ राशि में निक्षिप्त होकर काष्ठ राशि को भस्मीभूत करता है, यह अग्नि की स्वरूपगत सामर्थ्य है, उस प्रकार ही भक्ति - श्रीहरि की स्वरूप शक्ति है । यह शक्ति किसी जीव की इन्द्रिय वृत्ति में तादात्म्य प्राप्त होकर प्रकाशित होने से उसकी भक्ति संज्ञा होती है । यह स्वरूप शक्ति, जब तक श्रीहरि के स्वरूप में अवस्थित होती है, तब तक उसको स्वरूप शक्ति कहते हैं, किन्तु किसी व्यक्ति में उक्त शक्ति अभिव्यक्त होने पर यह भक्ति नाम से अभिहित होती है, उस भक्ति के श्रवण कीर्त्तनादि विविध अङ्ग हैं। जिस प्रकार शरीरी के चरणादि को अङ्ग कहते हैं, एवं अङ्गुली प्रभृति को उपाङ्ग कहते हैं, उस प्रकार अङ्गी की भक्ति के प्रधान नौ अङ्ग हैं, एवं एकादश्यादि व्रत प्रभृति प्रत्यङ्ग हैं। यह सब अङ्गी से अभिन्न होते हैं,

[[३३८]]

समर्थ

श्रीभक्तिसन्दर्भ

‘श्रद्धया हेल्या वा’ इत्यादी । हेला त्वपराधरूपाप्यबुद्धिपूर्वककृता चेद्दौरात्म्याभावे न भक्तया वाध्यत इत्युक्तमेव । ज्ञानलव दुर्विदग्धादौ तु तद्वपरीत्येन बाध्यते, यथा मत्सरेण नामादिकं गृद्धति वेणे, क्वचिद्वस्तुशक्तिर्बाधिता दृश्यते, आर्द्रान्धनादौ वह्निशक्ति रिव, (भा० ११।२१।१७-१८ “श्रद्धयोपहृतं प्रेष्ठ भक्तेन मम वार्य्यपि”, “भूय्र्यप्यभक्तोपहृतं न मे तोषाय कल्पते” इत्यत्र श्रद्धा-भक्ति- शब्दाभ्यामादर एवोच्यते स तु भगवत्तोषणलक्षणफल विशेषस्योत्पत्तावनादर- लक्षण-तद्विघातकापराधस्य निरसनपरः । तस्मात् श्रद्धा न भक्तयङ्गम, किन्तु कर्मप्यथि – विद्वत्तावदनन्यताख्यायांभक्तावधिकारिविशेषणमेवेत्यतएव तद्विशेषणत्वेनैवोक्तम्, जिस प्रकार मानवीय शरीर के अङ्ग प्रत्यङ्ग समूह उस से अभिन्न हैं । अङ्ग वा प्रत्यङ्ग का आश्रय से शरीरी का आश्रय ग्रहण जिस प्रकार होता है । उस प्रकार भक्ति के अङ्ग वा प्रत्यङ्ग का आश्रय से भक्ति का ही आश्रय ग्रहण होता है । अथच वह भक्ति, शक्ति रूप में श्रीहरि के स्वरूप में ही अवस्थिता है । उस भक्ति की अनिर्वचनीया सामर्थ्य है, श्रीह र की स्वरूप शक्ति की वृत्ति होने के कारण, निखिल मायाशक्ति की वृत्ति समूह को साधक के ज्ञात वा अज्ञात रूप से भक्ति अनुष्ठिता होने पर, ध्वंस कर देती है । इस प्रकार सामर्थ्य पूर्ण भक्ति है । अतएव श्रीहरि भक्ति को श्रद्धादि की अपेक्षा कैसे हो सकती है ? तज्जन्य, श्रद्धा के विना भी किसी मूढ़ा दिमें भक्ति आविर्भूता होकर सिद्धि दान करती है । इसका वर्णन शास्त्रादि में यथेष्ट है ।

उस का ही प्रमाण ‘श्रद्धया हेलया वा भृगुवर नरमात्रं तारयेत् कृष्णनाम " है । ‘हेला’ किन्तु अपराध गोष्ठी भुक्त है। तथापि अबुद्धि पूर्वक अनुष्ठित होने पर भी दौरात्म्य के अभाव निबन्धन वह भक्ति का बाधक नहीं होती है। इस का वर्णन १५३ अनुच्छेद में शुद्ध भक्ति के आभास प्रसङ्ग में हुआ है । अर्थात् बुद्धिपूर्वक अवहेला करने पर अपराध होता है, किन्तु अबुद्धि पूर्वक अवहेला में अपराध नहीं होता है, कारण, उस के चित्त में दुष्ट बुद्धि अर्थात् कौटिल्य नहीं है। किन्तु ज्ञान लब दुविदग्ध जन के द्वारा अवहेला अनुष्ठित होने से दुनिवार अपराध होता है, एवं वह भक्ति का बाधक है। जिस प्रकार मात्सर्य के वशवर्ती होकर नाम ग्रहण कारी वेण महाराज में भक्ति बाधित हुई थी । आद्रेन्धन में जिस प्रकार वह्नि की शक्ति कुण्ठिता होती है, उस प्रकार क्षुद्र ज्ञानोद्धत व्यक्ति के निकट भक्ति कुण्ठिता होती है । भा० ११।२७।१७-१८ में उक्त है-

कि

T

श्रद्धयोपाहृतं प्रेष्ठ भक्त ेन मम वार्य्यपि । भूर्य्यप्यभक्तोपहृतं न मे तोषाय कल्पते” ।

भक्त जन, श्रद्धा पूर्वक मुझ को जल प्रदान करने पर भी मैं प्रोत होता हूँ, किन्तु अभक्त गण, प्रचुर परिमाण जल प्रदान करने पर भी वह सन्तोष का कारण नहीं होता है ।

उक्त श्लोक में श्रद्धा एवं भक्ति का उल्लेख है, किन्तु उक्त श्रद्धा एवं भक्ति शब्द का यहाँ आदर अर्थ समझना होगा। अर्थात् अदर पूर्वक मुझ को जल देने पर भी में सन्तुष्ट होता हूँ। किन्तु अनादर पूर्वक प्रचुर

परिमाण में उत्तम द्रव्य दान करने पर भी मैं सन्तुष्ट नहीं होता हूँ । वह आदर, श्रीभगवान् के सन्तोष लक्षण फल विशेष उत्पत्ति के प्रति अनादर लक्षण सन्तोष विघातक अपराध का निरासक हैं अर्थात् जिस आचरण से भगवान् सन्तुष्ट होते हैं, उस को आदर करते हैं, जिस से असन्तुष्ट होते हैं, उसको अनादर कहते हैं । भगवत् सन्तोष का विरोधी अनादर रूप अपराध का बाधक ही आदर है। अतएव श्रद्धा भक्ति का अङ्ग नहीं है, अर्थात् कारण नहीं हैं, किन्तु कर्मानुष्ठान में अर्थी, समर्थ एवं विज्ञता केश्रीभक्तिसन्दभः

[[३३९]]

(भा० ११.२०१८) “यदृच्छ्या मत्कथादौ जातश्रद्धस्तु यः पुमान्” इति, (भा० ११/२०१२७) “जातश्रद्धो मत्कथासु” इति च । अत्र तामारभ्येत्यर्थेन त्यक्लोपे पञ्चम्यन्तेन तत इति पदेनानवधिक निर्देशेनात्माराम तावस्थायामपि सा केषाञ्चित् प्रवर्त्तत इति तस्याः साम्राज्य- मभिप्रेतम् । अनन्तरञ्च वक्ष्यते (भा० ११।२०।३४) - " न किञ्चित् साधवो धीराः” इति । अतः साम्राज्य-ज्ञापनया तां विना कर्मज्ञाने अपि न सिध्यत इति च ज्ञापितम् ।

तदेवमनन्यभक्तयधिकारे हेतु श्रद्धामात्रमुक्त्वा स यथा

श्रद्धामात्रमुक्त्वा स यथा भजेत्तथा शिक्षयति–स श्रद्धालुविश्वासवान, प्रीतो जातायां रुचावासक्तः, दृढ़निश्चयः साधनाध्यवसाय भङ्गरहितश्च

समान यह श्रद्धा पद भी अनन्यताख्या भक्ति में अधिकारी का विशेषण रूप में उल्लिखित होता है । तज्जन्य ही भा० ११।२०१८ में

भा० ११।२०।२७ में

“यदृच्छया मत्कथादौ जातश्रद्धस्तु यः पुमान्

“जातश्रद्धो मत्कथासु”

उक्त ‘श्रद्धापद’ का प्रयोग अधिकारी का विशेषण रूप में ही हुआ है । अर्थात् जिस प्रकार ‘स्वर्ग कामो अश्वमेधेन यजेत” श्रुति में यद्यपि क्षत्रिय मात्र ही अश्वमेध याग के अधिकारी हैं । तथापि जो व्यक्ति स्वर्गप्रार्थी है, एवं उक्त अश्वमेधयाग करने में अर्थी समर्थ, विज्ञ, जन ही यागकर सकते हैं । किन्तु अर्थी, समर्थ एवं विज्ञ व्यक्ति - अश्वमेध याग करने में अधिकारी हैं, ऐसा तात्पर्य्य नहीं है, क्षत्रिय मात्र ही अधिकारी हैं । किन्तु अनुष्ठान योग्यता, अर्थिता प्रभृति विद्यमान न होने पर याग होना असम्भव है, अतः अर्थी, समर्थ प्रभृति पद अधिकारी के विशेषण रूप में ही प्रयुक्त हुए हैं । उस प्रकार भक्ति में मानव मात्र ही अधिकारी हैं । किन्तु अन्याभिलाषिताशून्य ज्ञान कर्माद्यनावृत आनुकूल्य से कृष्णानुशीलन रूप अनन्यता नामक भक्ति योग में श्रद्धावान् जन ही अधिकारी है । कारण, भक्ति अङ्ग में दृढ़ विश्वास उत्पन्न न होते से अन्य कर्मादि साधन एवं धर्म प्रभृति में वीतश्रद्ध न होने पर उत्तम भक्ति अनुष्ठान में आदर वा आवेश होगा ही नहीं । तज्जन्य “श्रद्धापद” अकिञ्चना भक्ति के अधिकारी का विशेषण रूप में प्रयुक्त हुआ है । श्लोकस्थ ‘जात श्रद्ध’ पद भी ‘पुमान्’ पद का विशेषण हैं । ‘जात श्रद्धो मत्कथासु- इस श्लोक में भी ‘जात श्रद्ध’ पद, अधिकारी का विशेषण रूप में उल्लेख हुआ है । ‘ततोभजेत मां प्रीतः ’ इस श्लोक में ‘ततः’ पद भी व्यव लोप में पञ्चमी है । अर्थात् “तां श्रद्धामाभ्यय” उस श्रद्धा से आरम्भ करके, इस प्रकार अर्थ समझना होगा । यहाँ पर ज्ञातव्य विषय यह है कि - साधन भक्ति के किसी अङ्ग में श्रद्धा का उदय होने पर उत्तमा भक्ति का आरम्भ होगा, किन्तु उस भक्ति का अनुष्ठान समाप्त कब होगा। इस का उल्लेख नहीं है, अतएव आत्माराम अवस्था में भी कतिपय साधक में भक्ति की प्रवृत्ति दृष्ट होती है, अतः भक्ति का साम्राज्य सर्वावस्था में ही अक्षुण्ण है । “जातश्रद्धो मत् कथासु " श्लोक के वाद भा० ११।२०।३४ में कहेंगे-

“न किञ्चित् साधवो धीरा भक्ता ह्यो कान्तिनो मम । वाञ्छन्त्यपि मया दत्तं कैवल्यमपुनर्भवम् ॥”

अर्थात् मेरे ऐकान्तिकधीर साधु भक्त वृन्द कुछ भी कामना नहीं करते हैं, यहाँ तक कि मेरे द्वारा प्रदत्त पुनरावृत्ति शून्य कैवल्य मुक्ति को भी नहीं चाहते हैं । इस श्लोक में आत्माराम अवस्था में भी जो भक्ति की प्रवृत्ति है, उसका चित्रण हुआ है । अतएव भक्ति का साम्राज्य सर्वावस्था में है, भक्ति के विना कर्म एवं ज्ञान निज निज फल प्रदान में असमर्थ हैं, यह सूचित हुआ है । ऐसा होने पर पूर्व सिद्धान्त के

[[३४०]]

सन् । सहसा त्यक्तुमसमर्थत्वात् कामान् जुषम णश्च गर्हयंश्च । गर्हणे हेतुः - दुःखोदर्कान् शोकादिकृदुत्तरफलानिति । अत्र कामा अपापकरा एव ज्ञेयाः, शास्त्र े कथञ्चिदप्यन्यानु– विधानायोगात् । प्रत्युत,

“पर पत्नी परद्रव्य-परहिंसासु यो मतिम् । न करोति पुमानू भूप तोष्यते तेन केशवः ॥ ४८६ ॥

इति विष्णुपुराणवाक्यादौ कर्मर्पणात् पूर्वमेव तन्निषेधादत्रं व च निष्काम कर्म्मण्यपि यदन्यन्न समाचरेदिति वक्ष्यमाणनिषेधात् । कर्म्मपरित्यागविधानेन सुतरां दुष्कर्मपरित्याग- प्रत्यासत्तेः । विष्णुधर्मे –

“मर्यादाश्च कृतां तेन यो भिनत्ति न मानवः । न विष्णुभक्तो विज्ञ ेयः साधुधर्म्मार्चनो हरिः ॥ ४८७॥

अनुसार अनन्याभक्ति के अधिकार में श्रद्धा मात्र को उत्तम भक्ति के अधिकारी का विशेषण दिया गया है, अर्थात् उक्त श्रद्धातु व्यक्ति जिस प्रकार भजन करेगा, भगवान् उस प्रकार शिक्षा प्रदान करते हैं। वह श्रद्धालु - अर्थात् विश्वस्त व्यक्ति, “प्रीतः " भक्ति अङ्ग में सञ्जात रुचि अर्थात् आसक्त, ‘दृढ़ निश्चयः’ साधन एवं अध्यवसाय में भङ्गः रहित होकर सहसा त्याग करने में आसामर्थ्य हेतु विषय भोग भी करता रहता है । अथच उस विषय भोग के प्रति तुच्छ बुद्धि पोषण भी करता रहता है, विषय भोग के प्रति तुच्छ बुद्धि होने के प्रति हेतु है - विषय भोग - फल के समय शोकादि प्रद है, अर्थात् जो जितना विषय भोग करेगा, उतना ही दुःख शोक में अभिभूत होता रहेगा, यह जानकर भोग के प्रति सतत दोष दृष्टि पोषण करते रहते हैं, अथच सहसा विषय भोग परित्याग करने में भी असमर्थ हैं । यहाँ ‘काम’ अर्थात् विषय भोग शब्द से अपाप जनक भोग को ही जानना होगा । कारण, शास्त्र में किसी प्रकार पाप जनक भोग का विधान नहीं है । प्रत्युत -

“पर पत्नी परद्रव्य परहिंसासु यो मति ।

न करोति पुमान् भूप तोष्यते तेन केशवः ॥ " ४८६॥

जो व्यक्ति, पर पत्नी, पर द्रव्य एवं परहिंसा में रत नहीं होता है, केशव उसके प्रति सन्तुष्ट होते हैं । विष्णु पुराण के वाक्य द्वारा ज्ञात होता है कि - श्रीभगवान् में कर्मार्पण रूपा भक्ति अनुष्ठान के पहले ही पाप जनक विषय भोग निषिद्ध है । एवं श्रीमद् भागवत के ११।२०।१० श्लो में उक्त है-

“न याति स्वर्ग नरकौ यद्यन्यत् न समाचरेत् । "

अर्थात् स्वधर्म में स्थित होकर निष्काम भाव से यज्ञादि द्वारा श्रीभगवान् की आराधना करने से स्वर्ग को भी नहीं जायेगा एवं नरक को भी नहीं जायेगा, यदि निषिद्ध एवं काम्य कर्म का अनुष्ठान न करे तो, कारण, निषिद्ध कर्म करने से नरक जाना पड़ता है, एवं काव्य कर्मानुष्ठान से स्वर्ग गमन होता है । इस प्रकरण में ही काम्य कर्म त्याग का विधान प्रदत्त हुआ है, जिस अनन्या भक्ति में काम्य कर्म परित्याग विहित हुआ है, उस भक्ति अनुष्ठ न में दुष्कर्म्म परि त्याग तो सुनितरां ही विहित है। विष्णु धर्म में कथित है-

“मर्यादाञ्च कृतां तेन यो भिनत्ति स मानवः ।

न विष्णुभक्तो विज्ञेयः साधुधर्मार्चनो हरिः ॥ ४८७

श्रीभगवान् ने जो कुछ नियम किया है । जो मानव उस नियम को तोड़ता है, उस को कभी भी त्रिष्णु भक्त नहीं कहा जा सकता है। कारण श्रीहरि, पवित्र धर्म द्वारा ही अच्चत होते हैं । अतएव वैष्णव

FREE

शि [ ३४१ इति वैष्णवेष्वपि तन्निषेधात् । (भा० ४।२१।३१) " यत्पादसेवाभिरुचिस्तपस्विना, -मशेष– जन्मोपचितं मलं धियः । सद्यः क्षिणोति” इत्यत्र सद्यः - शब्दप्रयोगेन जातमात्ररुचीनाम्,

“यदा नेच्छति पापानि यदा पुण्यानि वाञ्छति । ज्ञ ेयस्तदा मनुष्येण हृदि तस्य हरिः स्थितः ॥ ४८८ ॥ इति विष्णुधर्म-नियमेन च, (भा० ११।५।४२) “विकर्म यच्चोत्पतितं कथञ्चिद्-, धुनोति सर्वं हृदि सन्निविष्टः” इत्यत्रापि कथञ्चिच्छब्दप्रयोगेण लब्धभक्तीनाञ्च स्वतस्तत्प्रवृत्त्ययोगात् । “नाम्नो बलाद्यस्य हि पापबुद्धि, –र्न विद्यते तस्य यहि शुद्धिः” इति पाद्म नामापराध-

वृन्द के पक्ष में निषिद्धाचरण करना सर्वथा निषिद्ध है । भा० ४।२१।३१ में पृथुमहाराज प्रजागण को कहे भी थे -

“यत् पाद सेवाभिरुचि स्तपस्विनामशेष जन्मोपचितं मलंधियः । सद्यः क्षिणोत्यत्वह मेधतीसती यथा पदाङ्गुष्ठु विनिःसृतासरित् ॥”

टीका-किश्व जीवानां मोक्षद परमेश्वर एवं नार्वाग देवताः तासामपि जीवत्वाविशेषादित्याशये नाह त्रिभिः, यस्य पादयोः सेवाया अभिरुचिस्तपस्विनां संसार तप्तानां अशेष जन्मभिः संवृद्धं धियोमलं सद्यः क्षपयति, तमेव भजतेति तृतीयेनान्वयः । कथम्भूता ? अनि अहनि वर्द्धमानासती सात्त्विकी । तत् पाद सम्बन्धस्यैव एष महिमेति दृष्टान्तेनाह, यथेति ।

हे प्रजावृन्द ! जीव गण को मोक्ष प्रदान करने में एकमात्र परमेश्वर ही समर्थ हैं, देव गण, मुक्तिदान कर नहीं सकते हैं, कारण, वे सब भी शक्ति सम्पन्न जीव ही हैं, कोई जीव, किसी जीव को मुक्त नहीं कर सकते हैं ।

भगवान् के चरण युगल की सेवा में रुचि उत्पन्न होने से ही संसार तप्त मानवों के अशेष जन्मार्जित चित्त मालिन्य सद्य विनष्ट हो जाता है, एवं भगवच्चरण सेवा की अभिरुचि प्रतिदिन वद्धित होती रहती है । श्रीहरि के चरणागु से विनिःसृता सरित गङ्गा की सेवा करने से जिस प्रकार क्रमशः पाप वासना विदूरित होती है । उस प्रकार ही श्रीभगवच्चरण सेवा रुचि से सद्य पाप विनष्ट होता है । यहाँ " सद्यः क्षीणोति” वाक्य में सद्यः’ शब्द प्रयोग से यह सूचित हुआ है कि– जब श्रीहरि चरण कमल की सेवा करने की रुचि होने से ही पाप प्रवृत्ति विनष्ट हो जाती है । तब भजन में प्रवृत्त होने से भक्ति साधक की पाप प्रवृत्ति नहीं रहती है, यह अर्थ अनायास लभ्य है । विष्णु धर्म में और भी नियम दृष्ट होता है-

“यदा नेच्छति पापानि यदा पुण्यानि वाञ्छति ।

ज्ञेयस्तदा मनुष्येण हृदि तस्य हरिः स्थितः ॥ " ४८८ ॥

जब मनुष्य, पाप कर्म करने की इच्छा नहीं करता है, पुण्य कर्म करने की इच्छा करता है, तब जानना होगा कि उस के हृदय में श्रीहरि, विद्यमान हैं, इस से भा० ११।५।४२ में लिखित-

“विकर्म यच्चोत्पतितं कथञ्चिद्, धुनोति सर्वं हृदि सन्निविष्टः”

श्रीभगवद् भक्त वृन्द के हृदय में यदि कदाचित् किसी प्रकार से विकर्म उपस्थित होता है तो अनुतप्त हृदय में चिन्तित भगवान् उस की दुष्प्रवृत्ति को विदूरित कर देते हैं । यहाँ “कथञ्चित्” शब्द प्रयोग से प्रतीति होती है कि-भक्त वृन्द के हृदय में विकर्म स्वतन्त्र रूप से उदित नहीं होता है । विषय का समाधान हुआ । पद्म पुराण में लिखित है-

“नाम्नो बलाद्यस्य हि पापबुद्धि, र्न विद्यते तस्य यहि शुद्धिः "

[[३४२]] भञ्जनस्तोत्रादौ हरिभक्तिबलेनापि तत्प्रवृत्तावपराधापाताच्च । ( गी० । ३०) “अपि चेत् सुदुराचारः” इति तु तदनादरदोषपर एव, न तु दुराचारता- विधानपरः, ( गी० ६।३१) क्षिप्रं भवति धर्मात्मा” इत्यनन्तरवाक्ये तु दुराचारतापगमस्य श्रेयस्त्वनिद्द शादिति ॥ श्रीभगवान् । १७३ ।

नन्वेवं केवलानां कर्म्म-ज्ञान-भक्तीनां व्यवस्थोक्ता । नित्यनैमित्तिकं कर्म तु सर्वष्वेवावश्यकम् । तहि साङ्कर्ये कथं शुद्धे ज्ञान-भक्ती प्रवर्त्तेयाताम्, तदेतदाशङ्कय तयोः कर्माधिकारितां वारयति ( भा० ११/२०१६)

sh

(१७३) “तावत् कर्माणि कुर्वीत न निविद्य ेत यावता ।

१६ मत्कथा-श्रवणादौ वा श्रद्धा यावन्न जायते ॥” ४८६ ॥

“कर्माणि नित्य नैमित्तिकादीनि” इति ठीका च । अतएव,

“श्रुतिस्मृती ममैवाज्ञो यस्ते उल्लङ्घ्य वर्त्तते । आज्ञाच्छेदी मम द्वेषी मद्भक्तोऽपि न वैष्णवः ॥ " ४६०॥

नाम उप लक्षित किसी भी भक्ति के अङ्ग के आचरण के बल से यदि पाप प्रवृत्ति होती है, अर्थात् भक्ति समस्त पाप विनष्ट करेगी, इस प्रकार निडर होकर यदि पापाचरण करे तो, इस प्रकार दुष्प्रवृत्ति का क्षय, यम, नियम प्रभृति साधनों के द्वारा, अथवा नरक भोग के द्वारा शुद्धि नहीं होती है । इस प्रकार पद्म पुराण के नामापराध भञ्जन स्तोत्रादि में हरिभक्ति के बल से पाप प्रवृत्ति को अपराध कहा गया है । यहाँ कहा जा सकता है कि श्रीभगवद् गीता के है। ३० में लिखित है-

“अपिचेत् सुदुराचारो भजते” सुदुराचारी को साधु मानना चाहिये ? उत्तर में कहते हैं-उक्त श्लोक में अनन्य भगवद् भजन कारी को अनादर करना अत्यन्त दोषावह है - इस को कहा गया है । किन्तु दुष्ट आचरण करने की व्यवस्था नहीं दी गई है । कारण, उक्त श्लोक के वाद ही कहा गया है-

( गी० ६।३१) “क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्ति निगच्छति

अर्थात् दुराचारता की निवृत्ति होने से ही मङ्गल होगा, इस प्रकार निर्देश किया गया है।

[[18]]

प्रवक्ता श्रीभगवान् हैं ॥ १७२ ॥