२९९ १७१
तेष्वधिकारि हेतुनाह द्वाभ्याम् (भा० ११।२०।७-८)
(१७१) “निर्विण्णानां ज्ञानयोगो न्यासिनामिह कर्मसु ।
तेष्वनिर्विण्णचित्तानां कर्म्मयोगश्च कामिनाम् ॥४७६ ॥
यदृच्छया मत्कथादौ जातश्रद्धस्तु यः पुमान् ।
न निर्विण्णो नातिसक्तो भक्तियोगोऽस्य सिद्धिदः ॥ ४८० ॥
इह एषां मध्ये निर्विण्णानामै हिक-पारलौकिक-विषय प्रतिष्ठा सुखेषु विरक्त चित्तानामतएव तत्साधन-भूतेषु लौकिक- वैदिक-कर्म्मसु न्यासिनां तानि त्यक्तवतामित्यर्थः । पदद्वयेन दृढ़जात-
ज्ञानं कर्म च भक्तिश्च नोपायोऽन्योऽस्ति कुत्रचित् ॥ ४७८ ॥
टीका - विषयाभेदेऽप्यधिकारि भेदेन अविरोधं वक्तुं प्रथमं योगत्रयमाह योगा इति । योगा उपायाः, ब्रह्मकर्म देवता काण्डैः प्रोक्ताः । कर्म च निष्कामम् । श्रेयो विवित्सया, मोक्ष साधनेच्छया । अन्य उपायो नास्तीति काम्य कर्मादिकं व्यावर्त्तयति । तथा चोत्तराध्याये स्फुटी करिष्यति य एतानित्यादिना ।
हे उद्धव ! शास्त्र कर्त्ता मैं मानवों को मुक्ति हेतु त्रिवर्ग एवं प्रेम नामक मङ्गल प्राप्ति के उपाय स्वरूप, ज्ञान, कर्म, एवं भक्ति -यह तीन साधन का वर्णन किया हूँ। किसी भी शास्त्र में उक्त त्रिविध उपाय व्यतीत अपर मङ्गल प्राप्ति का साधन नहीं है। यहाँ कर्म को पृथक् रूप में निर्देश करने के कारण, -भक्ति क्रिया रूपा होने पर भी कर्म से वह भिन्न है, उसका स्पष्टीकरण हुआ । श्लोकस्थ योग शब्द का अर्थ- उपाय है, मया - शास्त्रयोनिना । शास्त्र कर्ता मेरे द्वारा श्रेयः शब्द का अर्थ - मुक्ति, धर्म, अर्थ, काम रूप त्रिवर्ग, एवं प्रेम है ।
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उक्त साधनत्रय के त्रिविध अधिकारी के प्रति हेतु का वर्णन करते हैं अर्थात् जो गुण विद्यमान होने से उक्त तीन प्रकार साधनों का अधिकारी होता है, उसका वर्णन भा० ११।२०।७-८ द्वारा करते हैं-
(१७१) “निर्विण्णानां ज्ञानयोगो न्यासिनामिह कर्मसु ।
तेष्वनिर्विण्णचित्तानां कर्मयोगश्च कामिनाम् ॥४७६ ॥ यदृच्छया मत्कथादौ जातश्रद्धस्तु यः पुमान् ।
न निर्विण्णो नातिसक्तो भक्तियोगोऽस्य सिद्धिदः ॥ ४८० ॥
टोका-तेषु टोका - तेषु अधिकारिभेदमाह - निर्विण्णानामिति द्वाभ्याम् । इह एषां मध्ये कर्मसु निर्विण्णानां दुःख बुद्धया तत् फलेषु विरक्तानाम् अतएव तत् साधन भूत कर्मन्यासिनां ज्ञान योग : सिद्धिद इत्युत्तरेणान्वयः अनिर्विण्ण चित्तानां दुःख बुद्धि शून्यानाम् । अतः कामिनां तत् फलेषु अविरक्तानामित्यर्थः ७॥ यदृच्छया केनापि भाग्योदयेन । तत्र काम्यकर्मसु प्रवर्त्तमानस्य सर्वात्मना विधि प्रतिषेधाधिकार इत्युत्तराध्याये वक्ष्यति । निष्काम कर्माधिकारिणस्तु यथा शक्ति । स च ज्ञान भक्ति योगाधिकारात् प्रागेव । तदधिकृतयोस्तु स्वल्पः । ताभ्यां सिद्धानान्तु न किञ्चिदिति ॥८॥
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मुमुक्षुणामित्यभिप्रेतम् । तेषां ज्ञानयोगः सिद्धिद इत्युत्तरेणान्वयः । कामिनां तत्तत्सुखेषु रागिणाम्, अतएव तेषु तत्साधनभूतेषु कर्मसु अनिर्विण्णचित्तानां तानि त्यक्तुमसमर्थनां कर्मयोगः सिद्धवस्तत्सङ्कल्पानुरूपः फलदः । अथ ( भा० २०७१४६ ) - ते वै विदन्त्यतितरन्ति च देवमायाम्” इत्यादौ, “तिर्य्यग्जना अपि” इत्यनेन भक्तयधिक रे कर्मादिवज्जात्यादि- कृतनियमातिक्रमात् श्रद्धामात्र हेतुरित्याह (भा० ११/८/२०) – “यदृच्छया” इति यदृच्छया केनापि परमस्वतन्त्र - भगवद्भक्त सङ्ग तत्कृपाजात मङ्ग लोदयेन । यदुक्तम् (भा० १।२।१६ ) - ‘शुश्रूषोः श्रद्दधानस्य’ इत्यादि ॥ श्रीभगवान् ॥
उक्त साधनों के मध्य में जो लोक ऐहिक पारलौकिक विषय प्रतिष्ठा सुख में विरक्त चित्त हैं, अतएव पूर्वोक्त सुख प्राप्ति का साधन रूप लौकिक वैदिक कर्म त्यागी हैं, यह सब साधकों के पक्ष में ज्ञान योग सिद्धि प्रद है, अर्थात् निरूपाधि ज्ञान साधन का मुख्य फल मोक्ष काम होता है । यहाँ, निर्विण्ण एवं न्यासी’ पदद्वय का उल्लेख होने के कारण, यह सूचित होता है कि जिस के हृदय में मुक्ति की इच्छा दृढ़ बद्ध है, उस के पक्ष में ही ज्ञान योग सिद्धि प्रद होता है। एवं जिस के हृदय में ऐहिक - पार लौकिक विषय प्रतिष्ठा सुख भोग में आकाङ्क्षा है, अतएव उस सुख भोग प्राप्ति का साधन रूप सकाम कर्म को परित्याग करने वह असमर्थ है, उस के पक्ष में ही कर्म योग सिद्ध प्रद है । अर्थात् कर्मयोग, उस के सङ्कल्पानुसार फल दायी होता है । अनन्तर कर्म योग में जिस प्रकार जाति प्रभृति नियम विहित है, भक्ति योग में उस प्रकार जाति प्रभृति की अपेक्षा नहीं है । भा० २।७।४६ में उक्त है -
में
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ते वै विदन्त्यतितरन्ति च देवमायां
स्त्री शूद्र हूण शवरा अपि पाप जीवाः । यद्यद्भुत क्रम परायण शीलशिक्षा
स्तिर्य्यग् जना अपि किमु श्रुतधारणा ये ॥"
टीका-कि बहुना सत्सङ्गेन सर्वेऽपि विदन्ति इत्याह-ते वा इति । अद्भुताः क्रमाः पादन्यासा यस्य हरेस्तत् परायणास्तद् भक्ता स्तेषां शीले शिक्षा येषां ते तथा यदि भवन्ति, तर्हि तेऽपि दिदतीत्यर्थः । श्रुते भगवतो रूपे धारगा मन नियमनं येषां ते विदन्तीति किमु वक्तव्यम् ॥
श्री ब्रह्मा, श्रीना द को कहे थे,—स्त्री, शूद्र, हूण, शवर, - यहाँतक कि जिस की उत्पत्ति पाप से हुई है, इस प्रकार वेश्या पुत्र प्रभृति भी साधु सङ्ग के प्रभाव से श्रीभगवान् को अनुभव करके ईश्वर माया को अतिक्रम करने में सक्षम होते हैं । इस से सुव्यक्त हुआ कि भक्ति योग में जाति प्रभृति की अपेक्षा नहीं है । भक्ति अधिकार में एकमात्र श्रद्धा ही हेतु है । उस का वर्णन करते हैं- यदृच्छया’ यदृच्छया से अर्थात् किसी परम स्वतन्त्र भगवद् भक्त सङ्ग किंवा उनकी कृपा से सञ्जात सुमङ्गल का उदय होने पर, मेरी कथा प्रभृति में जो लोक श्रद्धा युक्त हैं, अथच विषय में अत्यन्त आसक्त भी नहीं हैं, अत्यन्त निर्विण्ण भी नहीं हैं, इस प्रकार अधिकारी मानव के पक्ष में ही भक्ति योग सिद्धि प्रद होता है। उक्त श्लोकस्थ ‘यदृच्छया’ पद का अर्थ साधु सङ्ग एवं साधु कृपा रूप अर्थ किया गया है उस का प्रमाण भा० १।२।१६ में है-
“शुश्रूषो श्रद्धधानस्य वासुदेव कथारुचिः ।
स्यान्महत् सेवया विप्राः पुण्यतीर्थ निषेवनात् ।”
हे विप्र वृन्द ! भगवद् वहिर्मुख की श्रीहरिकथा में रुचि, साधु सङ्ग के विना अन्य किसी भी उपाय
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