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अथास्था अकिञ्चनाख्याया भक्तेः सर्वोद्ध्व भूमिका वस्थितिमधिकारिविशेष- निष्ठत्वञ्च दर्शयितुं प्रक्रियान्तरम्, तत्र परतत्त्वस्य वैमुख्यपरिहार य यथाकथञ्चित् साम्मुख्यमात्र कर्त्तव्यत्वेन लभ्यते । तच्च विधा, – (१) निर्विशेषरूपस्य तदीयब्रह्माख्याविर्भावस्य ज्ञानरूपम्, (२) सविशेषरूपस्य च तदीय-भगवदाद्याख्या- विर्भावस्य भक्तिरूपमिति द्वयम्, (३) तृतीयञ्च तस्य द्वयस्यैव द्वारं कर्मर्पणरूपमिति । तदेतत्त्रयं पुरुष-योग्यताभेदेन व्यवस्थापयितुं लोके सामान्यतो ज्ञान-कर्म-भक्तीनामेवोपायत्वम्, नान्येषामित्यनुवदति (भा० ११/२०१६) -

(१७०) “योगास्त्रयो मया प्रोक्ता नृणां श्रेयोविधित्सया ।

ज्ञान कर्म च भक्तिश्च नोपायोऽन्योऽस्ति कुत्रचित्र ॥ ४७८ ॥

कृतार्थ भक्ति आचरण कारी होता है। शास्त्र में इस का वर्णन दृष्ट होता है। अधिकारी विशेष में भक्ति के अङ्ग दो दीन मिश्रित होकर यदि अनुष्ठित होते हैं, तो उसमें आस्वादन वैचित्र्य तो होता ही है। कारण, मानव मात्र में श्रद्धा एवं रुचि में पार्थक्य है, अतएव ‘नव लक्षणा भक्ति शब्द से भक्ति सामान्य का ग्रहण ही होती है । अतः भक्तिमात्र का अनुष्ठान ही विहित हुआ है । भक्ति के अनेक अङ्ग होने पर भी “नव लक्षणा” उल्लेख होने के कारण जानना होगा कि अन्यान्य अङ्ग समूह का अन्तर्भाव उक्त नवलक्षण में हो किया गया है । किस अङ्ग भक्ति का किस में अन्तर्भाव हुआ है, उस का विश्लेषण अग्रिम ग्रन्थ में करेंगे ।

श्रीप्रह्लाद - निज पिता को कहे थे - ११६६ ।

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अनन्तर अकिञ्चना भक्ति की सर्वोपरि भूमिका में अवस्थिति, एवं विशेष निष्ठता प्रदर्शन हेतु पृथक् प्रकरण का आरम्भ करते हैं । अर्थात् यह अकिञ्चना भक्ति ही निखिल साधनों के मध्य मैं श्रेष्ठ

। है, एवं यह अकिञ्चना भक्तिलाभ, विशेष सौभाग्य व्यतीत नहीं होता है, उस को कहने के निमित्त भिन्न प्रकरण का आरम्भ करते हैं। परतत्त्ववैमुख्य दोष परिहार के निमित्त यथा कथञ्चित् साम्मुख विधान शास्त्र करते हैं । अर्थात् शास्त्र में जितने उपदेश हैं, समस्त उपदेशों का तात् पर्थ्य है-जीव, अनादि काल से परतत्त्व वहिर्मुखता दोष से अशेष दुःख ग्रस्त हो रहे हैं । उक्त दोष निवृत्ति हेतु यथा कथञ्चित् रूप से पर तत्त्व साम्मुख्य सम्पादन करना। उक्त साम्मुख्य हेतु भी त्रिविध हैं ।

प्रथम - परतत्त्व का निर्विशेष रूप में ब्रह्म नामक आविर्भाव का साम्मुख्य हेतु ज्ञान साधन है । द्वितीय- उक्त परतत्त्व का भगवदाख्य सविशेष रूप से आविर्भाव का साम्मुख्य हेतु भक्ति साधन है । तृतीय- पूर्वोक्त द्विविध साधन के द्वार स्वरूप- कर्मर्पण साधन है । यह त्रिविध साधन ही साधक के योग्यता भेद से व्यवस्था करने के निमित्त ज्ञान, कर्म, भक्ति नाम से शास्त्र में उल्लिखित हैं, कारण- अपर कोई भी साधन परतत्त्व का साम्मुख्य सम्पादक नहीं हैं। उसका वर्णन भा० ११/२०१६ में श्रीभगवान् स्वयं ही उद्धव को कहे हैं-

(१७०) “योगास्त्रयो मया प्रोक्ता नृणां श्रेयोविधित्सया ।

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योगा उपायाः, मया शास्त्रयोनिना, श्रेयांस मुक्ति-त्रिवर्ग-प्रेमाणि । अनेन भक्ते, कर्मत्वञ्च व्यावृत्तम् ॥