२९५ १६६
ततोऽस्या एव भक्तेः सर्वशास्त्रसारत्वमाह (भा० ७।५।२३-२४) -
(१६६) “श्रवणं कीर्त्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥ ४७५ ॥
इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्चेन्नवलक्षणा ।
क्रियते भगवत्यद्धा तन्मन्येऽधीतमुत्तमम् ॥ ४७६ ॥
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श्रवण- कीर्त्तने तदीय-नामादीनाम्, स्मरणश्च, पादसेवनं परिचर्थ्या, अर्चनं विधयुक्तपूजा, वन्दनं नमस्कारः, दास्यं तद्दासोऽस्मीत्यभिमानः, सख्यं बन्धुभावेन तदीयहिताशंसनम्,
प्रीणनाय मुकुन्दस्य न वृत्तं न बहुज्ञताः ॥
भगवत् प्रसन्नता के प्रति एकमात्र हेतु है, अमला भक्ति । द्विजत्व, देवत्व, ऋषित्व, बहुज्ञता, एवं धन सम्पत्ति–भगवत् प्रसज्ञता के प्रति हेतु नहीं है । इस श्लोक में उक्त है कि - भगवान् श्रीकृष्ण, अहैतुकी भक्ति से सन्तुष्ट होते हैं ।
प्रह्लाद असुर बालकों को कहे थे ॥ १६८ ॥
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अन्याभिलाषिताशून्या ज्ञानकर्मादि द्वारा अनावृता, आनुकूल्य से श्रीकृष्णानुशीलन रूपा भक्ति ही निखिल शास्त्रोपदेश के मध्य में श्रेष्ठ कर्त्तव्योपदेश है, उसका कथन भा० ७।५।२३-२४ में भक्त. प्रवर प्रह्लाद ने निज पिता हिरण्यकशिपु को कहे थे ।
( १६६) “श्रवणं कीर्त्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥ ४७५ ॥ इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्चेन्नवलक्षणा ।
क्रियते भगवत्यद्धा तन्मन्येऽधीतमुत्तमम् ॥” ४७६॥
टीका-पाद सेवनं परिचर्या । अर्चनं–पूजा, दास्यं कर्मार्पणम् । सख्यं तद्विश्वासादि, आत्म- निवेदनं - देह समर्पणम् । यथा विक्रीतस्य गवाश्वादेर्भरण पालनादिचिन्ता न क्रियते, तथा देहं तस्मै समर्प्य तच्चिन्तावर्जन मित्यर्थः । इति नव लक्षणानि यस्याः सा अधीतेन चेद् भगवति विष्णौ भक्तिः क्रियते सा चापितैव सती यदि क्रियेत नतु कृता सती पश्चादयेत, तदुत्तममधीतं मन्ये नत्वस्माद् गुरोरधीतं शिक्षितं वा तथाविधं किञ्चिदस्तीति भावः ।
हे पितः ! जो श्रीविष्णु का श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वन्दन, दास्य, सख्य, उनको आत्म निवेदन - यह नव लक्षणा भक्ति का अनुष्ठान आत्म समर्पन करके करता है, उस के द्वारा जो अध्ययन होता है, उसी को मैं उत्तम अध्ययन मानता हूँ । इस श्लोक में श्रवण, कीर्तन, एवं स्मरण, यह तीन अङ्ग — श्रीविष्णु के नाम, रूप, गुण, परिकर के सम्बन्ध में ही समझना होगा । पाद सेवन शब्द से भक्ति पूर्वक श्रीविष्णु की परिचर्या को जननी होगी । अर्चन शब्द से विधि विहित श्रीविष्णु की पूजा, वन्दन शब्द से उनको नमस्कार, दास्य शब्द से मैं भगवान् का दास हूँ इस प्रकार अभिमान, सख्य शब्द से बन्धुभाव से श्रीविष्णु सम्बन्धीय हितानुशीलन, आत्म निवेदन शब्द से गो, अश्वविक्रयवत् देहेन्द्रिय समूह को श्रीभगवान् में समर्पण । अर्थात् गो, अश्व प्रभृति को विक्रय करने पर जिस प्रकार क्र ेता के व्यवहार में वे सब आते हैं, किन्तु विक्र ेता के व्यवहार में नहीं आते हैं, उस प्रकार निज देहेन्द्रिय प्रभृति को श्रीभगवत्
[[३३०]] आत्मनिवेदनं गवाश्वादि स्थानीयस्य स्वदेहादि संघातस्य तदेकभजनार्थं विक्रयस्थानीयं तस्मिन्नर्पणम्, यत्र तद्द्भरण - पालन चिन्तापि स्वयं न क्रियते । उदाहृतानि चैतानि प्राचीनैः-
“श्रीविष्णोः श्रवणे परीक्षिदभवद्वै यासकिः कीर्त्तने,
प्रह्लाद : स्मरणे तदङ् घ्रि भजने लक्ष्मी पृथुः पूजने ।
अ क्ररस्त्वभिवन्दने कपिपतिर्दास्येऽथ सख्ये ऽज्जुंनः
सर्वस्वात्मनिवेदने बलिरभूत कृ’ णाप्तिरेषां परम् ॥ " ४७७॥
इति नवलक्षणानि यस्याः सा, भगवति तद्विषयका अद्धा साक्षाद्रूपा, न तु कर्माद्यर्पण- रूपा पारम्परिको भक्तिरियम्, तत्रापि श्रीविष्णावेवापिता तदर्थमेवेदमति भाविता, न तु धर्मार्थादिष्वपिता, एवम्भूता चेत् क्रियते, तदा तेन कर्ता यदधीतं तदुत्तमं मन्य इत्यर्थः । तथा च श्रीगोपालतापनी श्रुतिः ( पू० १८ ) - " भक्तिरस्य भजनं तदिहामुत्रोपाधिनैरास्येनामुष्मिन् मनः कल्पनमेतदेव च नैष्कर्म्यम्” इति । अत ‘नवलक्षणा’ इति समुच्चयो नावश्यकः, सुखार्थ समर्पण करने का नाम ही आत्म निवेदन है ।
जिम प्रकार गो अश्वादि विक्रय अथवा दान करने पर उस के भरण पोषण हेतु विक्र ेता वा दाता को कोई चिन्ता नहीं रहती है, उस प्रकार “चिन्तां न कुर्य्यात् रक्षायं विक्रीतस्य यथा पशोः” भरण पोषण
• निमित्त चिन्ता न करना, यह जानना होगा। यह श्रवण कीर्त्तनादि नवाङ्ग भक्ति का उदाहरण प्राचीन महापुरुष गण इस प्रकार से प्रस्तुत करते हैं-
“श्रीविष्णोः श्रवणे परीक्षिदभवद्वैयासकिः कीर्तन,
प्रह्लादः स्मरणे तदङ्घ्रिभजने लक्ष्मीः पृथुः पूजने । अक्ल रस्त्वभिवन्दने कपिपतिर्दास्येऽथ सख्येऽज्जुनः,
सर्वस्वात्मनिवेदने बलिरभूत् कृष्णाप्तिरेषां परम् ॥४७७॥ इति ।
श्रीविष्णु का श्रवण में श्रीपरीक्षित्, कीर्तन में श्रीशुक, स्मरण में श्रीप्रह्लाद, पाद सेवन में श्रीलक्ष्मी पूजन में श्रीपृयु, नमस्कार में श्रीअर, दास्य में कपिपति श्रीहनुमान, सख्य में श्री अर्जुन, आत्म निवेदन में श्रीबलि - इन सब को उत्तम रूप से श्रीकृष्ण प्राप्ति हुई थी । यह श्रवण कीर्तनात्मिका नव लक्षणा भक्ति यदि भगवद्विषयिका एवं कर्माद्यर्पण रूपा पारम्परिको न होकर यदि साक्षात् रूपा होती है, उस में भी श्रीविष्णु में ही अर्पित होता है । अर्थात् श्रीविष्णु सुख हेतु यह श्रवण कीर्त्तनादि का भक्तचनुष्ठान कर रहा हूँ - इस प्रकार भोविता होती है। किन्तु उक्त नवाङ्ग भक्ति का अनुष्ठान, यदि धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष लाभ हेतु नहीं होता है तो, भक्ति का एक अङ्ग अनुष्ठान कर्ता का अध्ययन सिद्ध होता है, और उस अध्ययन को ही मैं उत्तम अध्ययन मानता हूँ। श्रीगोपाल तापनी श्रुति में भी उक्त है-
“भक्तिरस्य भजनं तदिहामुत्रोपाधि नैरास्येनः मुहिमन् मनः कल्पनम्” एतदेव च नैष्कर्म्यम् ॥” इति ।
यह श्रीकृष्ण भजन अर्थात् आनुकूल्यानुशीलन का नाम ही भक्ति है । वह भजन ऐहिक, पारलौकिक भोग वासना शून्य होकर श्रीकृष्ण में मनः स्थापन रूप है । इसका अपर नाम हो नैष्कर्म्य अर्थात् ब्रह्मभाव है । उक्त श्लोक में नव लक्षणा का अर्थ समुच्चय नहीं है, उस प्रकार अर्थ करने की आवश्यकता नहीं है । अर्थात् एक भक्ति अधिकारी व्यक्ति को उक्त नौ अङ्गों का ही अनुष्ठान करना होगा। इस प्रकार नियम नहीं है । कारण, भक्ति का किसी भी एक अङ्ग का अनुष्ठान होने पर उस से साध्य वस्तु प्रेम लाभ से
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एकेनैवाङ्गेन साध्याव्यभिचारश्रवणात् क्वचिदन्याङ्गमिश्रणन्तु तथापि भिन्नश्रद्धा रुचित्वात् । ततो नवलक्षणा-शब्देन भक्तिसामान्योक्तया तन्मात्रानुष्ठानं विधीयत इति ज्ञ ेयम् । नवलक्षणत्व ञ्चास्या अन्येषामप्यङ्गानां तदन्तर्भावादुक्तम् ॥ श्रीप्रह्लादः स्वपितरम् ॥