१६८

२९३ १६८

अतएवाह (भा० ७।७।५१-५२) -

[[1]]

(१६८) “नालं द्विजत्वं देवत्वम् षित्वं वासुरात्मजाः ।

प्रीणनाय मुकुन्दस्य न वृत्तं न बहुज्ञता ॥ ४६६ ॥

न दानं न तपो नेज्या न शौचं न व्रतानि च । प्रीयतेऽमलया भक्तचा हरिरन्यद्विड़म्बनम् ॥ ४७०॥

प्राप्त कर ही सन्तुष्ट होते हैं, अर्थात् परम सन्तुष्ट होते हैं, पिता जिस प्रकार पुत्र को पाकर ही सन्तुष्ट होते हैं, किन्तु पुत्र ने प्रणाम किया वा नहीं उनको इसकी अपेक्षा नहीं हैं, मेरे प्रभु भी वैसे हैं। निज भक्त से सम्मान क्यों नहीं चाहते हैं, उस में कारण यह है, आप करुण हैं, पूजा हेतु भक्त जन जो प्रयास करते हैं, चेष्टा वा परिश्रम करते हैं, उस को सहन करने में आप असमर्थ हैं, उन के भक्तगण भी कैसे हैं, उसका परिचय देते हैं । अविदुष हैं, अर्थात् अज्ञ हैं, पिता के सम्मुख में मुग्ध बालक के समान प्रभु के सामने भक्त भी मुग्ध हैं, कुछ भी नहीं जानते हैं । अज्ञ शब्द से भक्त को परिचित कराने का उद्देश्य यह है- दैन्य प्रकाश करना है, कारण, प्रह्लाद, भक्तगणों के मध्य में श्रेष्ठ हैं । अथवा, ‘अविदुष शब्द का अर्थ - भगवान् में भक्त का प्रगाढ़ आवेश हेतु निज प्रभु को छोड़कर भक्तगण अपर कुछ भी नहीं जानते हैं। उभय प्रकार व्याख्या से हो भगवान् में परम कारुण्य प्रकाशित हुआ है। तब क्या भक्तजन प्रभु की पूजा करते ही नहीं ? इसका उत्तर देते हैं, भक्त जन गण श्रीभगवान् की पूजा करते हैं, किन्तु यह निज हेतु ही करते हैं, निष्किश्वन भक्त की अपेक्षा स्वतन्त्र रूप से निज सम्मानादि से नहीं रहती है । वे सब निज प्रभु के सुख को ही निज सुख मान कर उल्लसित होते हैं, एवं श्रीप्रभु को सम्मानित करते हैं, श्रीप्रभु सम्मानित होने से स्वयं सम्मानित होना भक्त जनों का स्वभाव है, इस विषय में दृष्टान्त यह है- मुख में तिलक रचनादि के द्वारा जो शोभा होती है, वह प्रति मुख स्वरूप दर्पणस्थ प्रतिविम्ब की नहीं होती है, किन्तु प्रतिमुख की शोभा से स्वयं की शोभा प्रकाशित होती है। लोक निज शोभा को देखने के निमित्त ही दर्पण के सम्मुखीन होते हैं। अतः प्रभु को सम्मान प्रदान करने से सम्मान प्रदान कारी व्यक्ति स्वयं कृतार्थ होता है ।

प्रह्लाद श्रीनृसिंह देव को कहे थे ॥ १६८ ॥

२९४ १६८

अतएव भक्त प्रवर श्रीप्रह्लाद ने मा० ७।७।५१-५२ में कहा है-

(१६८) ‘नालं द्विजत्वं देवत्वमृषित्वं वासुरात्मजा ।

प्रीणनाय मुकुन्दस्य न वृत्तं न बहुज्ञता ॥ ४६६ ॥ न दानं न तपो नेज्या न शौचं न व्रतानि च । प्रीयतेऽमलया भक्तचा हरिरन्यद्विडम्बनम् ॥४७० ॥

[[३२६]]

अमलया निष्कामया, विडम्बनं नटनमात्रम्, अतः सकामभक्तस्थापि भक्तेर्नटनमात्रत्वं स्वार्थ साधन मात्र तात्पर्येण भक्तचनुकरणमात्रत्वात् । यथा परेषामपि नटानां क्वचित् तदनुकरणन्तथैवेति । तत्र सकामत्वमैहिकं पारलौकिक चेति द्विविधम् । तत् सर्वमेव निषिध्यते श्रीनागपत्नीवचनादौ (भा० १०।१६।३७)- “न नाकपृष्ठं न च सार्वभौमं, न पारमेष्ठंच न महेन्द्रधिष्ण्यम्” इत्यादिना । तस्माद्वं वरवतमनुपुत्रस्य पृषधस्य तु मुमुक्षोरप्येकान्तित्व– व्यपदेशो गौण एव बोद्धव्यः । ( भा ७।१०।२) -

“मा मां प्रलोभयोत्पत्त्यासक्तं कामेषु तै र्वरैः ।

तत् सङ्गभीतो निर्विण्णो मुमुक्षुस्त्वामुपाश्रितः ॥ ४७१ ॥

टीका - अमलया - निष्कामया । विडम्बनं नटनमात्रम् ॥

हे असुर बालक वृन्द ! द्विजत्व, देवत्व, ऋषित्व, उत्तम जीविका, बहु शास्त्र ज्ञान, दान, तपस्या, यज्ञ, शौच,

शौच, विविध व्रत, मुकुन्द को सन्तुष्ट करने में समर्थ नहीं हैं । श्रीहरि एकमात्र निष्काम भक्ति से ही सन्तुष्ट होते हैं । सकाम भाव से अनुष्ठित समस्त साधन ही विडम्बन मात्र है, अर्थात् अभिनय मात्र है । अतएव सकाम भक्त का भक्ति आचरण-अभिनय मात्र ही है, कारण, सकामी व्यक्ति गण स्वार्थ साधन हेतु उक्त कार्य में प्रवृत्त होते हैं, अतः सेवा रूपा भक्ति का अनुष्ठान-भक्ति का अभिनय में पर्थ्य वसित होता । अर्थात् नट जिस प्रकार अभिनय करता है, उद्देश्य जनमनो रज्जन के द्वारा अर्थलाभ करना है, उस प्रकार कभी ज्ञानी योगीगण के द्वारा भक्तचङ्ग का अनुष्ठान अनु करण मात्र ही है, - सकामी भक्तगण भी तद्रूप उत्तम भक्त का अभिनय ही करते हैं ।

[[1]]

सकाम भाव - ऐहिक पारलौकिक भेद से द्विविध होते हैं। उक्त उभय विध सकाम भाव ही श्रीमद् भागवतस्थनागपत्नी की उक्ति के द्वारा विशुद्ध भक्ति मार्ग में निषिद्ध हुए हैं भा० १०।१६।३७ में उक्त हैं- “न नाकपृष्ठ न च सार्वभौमं न पारमेष्ठ्यं न रसाधिपत्यम् ।

न योग सिद्धीरपुनर्भवं वा वाञ्छन्ति यत् पाद रजः प्रपन्नाः ॥ "

टीका - यत् तव पादरजः प्रपन्नाः प्राप्ताः, पारमेष्ठ्चादि अपि तुच्छं मन्यन्ते ।

जिनकी चरण रज में प्रपन्ना एकान्त भक्त गण, स्वर्गीय सुख भौमाधिपत्य, परमेष्ठि पद प्राप्ति सुख, रसातला धिपत्य, अष्टादश योग सिद्धि एवं अपुनर्भव–अर्थात् मोक्ष सुख की भी प्रार्थना नहीं करते हैं । अतएव वैवस्वत मनु पुत्र पृषध, यद्यपि मुमुक्षु थे, तथापि उन में जो ‘एकान्ती’ शब्द का प्रयोग हुआ है, वह गौण प्रयोग ही है । जिस प्रकार किसी भिक्षु को महाराज शब्द से अभिहत करते हैं । उस प्रकार जानना होगा । भा० ७।१०।२ में प्रह्लाद वाक्य में भी उस प्रकार विरुद्ध शब्द का उल्लेख दृष्ट होता है ।

" मां मां प्रलोभयोत्पत्त्यासक्त कामेषु तैर्वरैः । तत्सङ्गभीतो निर्विण्णो मुमुक्षुस्त्वामृपाश्रितः ॥ ४७१॥

॥ टीका - उत्पत्त्या स्वभावेनैव सक्तां माम् । तेषां कामानां सङ्गात् भीतः ।

F

में

हे प्रभो ! जन्म से ही विषय भोग वासना में आसक्तचित्त मुझ को भोग सम्पादक वर समूह पुनर्वार प्रलोभित न करें, मैं विषय सङ्ग से अत्यन्त भीत एवं निविश होकर मुक्ति हेतु एकान्त भाव से आप के चरणाश्रय किया हूँ । यहाँ प्रह्लाद वाक्य में “मुमुक्षु” पद का प्रयोग हुआ है, उस का इस प्रकरण गत

इत्यत्र श्रीप्रहलाद - वाक्ये - मुमुक्षा तु कामत्यागेच्छेव, (भा० ७ १०१७) -

“यदि दास्यसि मे कामान् वरांस्त्वं वरदर्षभ ।

कामानां हृद्यसंरोहं भवतस्तु वृणे वरम् ॥ ४७२ ॥

P

[[३२७]]

इति वक्ष्यमाणात् । ( भा० ७।१०।१) “भक्तियोगस्य तत् सर्वमन्तरायतयार्भकः” इति श्रीनारदेन प्रागुक्तत्वाच्च । एवं श्रीमदम्बरीषस्य यज्ञविधानमपि लोकसंग्रहार्थकमेव ज्ञेयम् । तमुद्दिश्याप्येकान्तभक्तिभावेनेत्युक्त-मस्ति । तत्र चैहिकं निष्कामत्वं भक्तया जीविका- प्रतिष्ठाद्य पार्जनं यत्तदभावमयमपि बोद्धव्यम्, -“विष्णु ं यो नोपजीवति” इति गारुड़ े शुद्धभक्त- लक्षणात्, (भा० ७६।४६ ) -

अर्थ भोग वासना त्यागेच्छा है । अर्थात् मैंने सर्व प्रकार भोग वासना त्या गेच्छ, होकर आप के चरण युगल का आश्रय ग्रहण किया हूँ । यहाँ मुमुक्षु शब्द का इस प्रकार अर्थ ही सुसङ्गत है ।

कारण, प्रह्लाद ने स्वयं ही भा० ७।१०।७ में कहा है-

“यदि द स्यसि मे कामान् वरांस्त्वं वरदर्षभ ।

कामानां हृदसंरोहं भवतस्तु वृणे वरम् ॥ ४७२॥

टीका - ननु तथापि परमोदारस्य मम सन्तोषार्थं किमपि वृणीस्व, इति चेदत आह, यदीति कामाङ्कुराणां असंरोहम् अनुत्पत्ति भवतः सकाशात् ।

[[1]]

हे वरदराट ! यदि एकान्त ही आप मुझ को अभीष्ट वर देना चाहते हैं तो, मैं आप से यह वर ही प्रार्थना करता हूँ कि -‘वर ग्रहण करों’ कह कर आप मुझ को प्रलोभित करने पर भी जैसे मेरे हृदय में किसी प्रकार भोग लालसा का उदय हो न हो, भा० ७।१०।१ में श्रीनारद ने भी कहा है-

“भक्ति योगस्य तत् सर्वमन्तरायतया भकः । मन्यमानो हृषीकेशं स्मयमान उवाच ह ।”

टीका - तत् सर्वं वर जातम् ।

ि

हे राजन् ! वह बालक प्रह्लाद, कामना वासना को विशुद्ध भक्ति योग के अन्तराय मानकर मन ही मन हँसकर श्रीनृसिंह देव को कहे थे । श्रीनारद के इस वाक्य से भी प्रकाश हुआ कि प्रह्लाद निखिल भोग वासना को विशुद्ध भोग योग के अन्तराय ही मानते थे । इस प्रकार विशुद्ध भक्त श्री अम्बरीष महाराज का यज्ञानुष्ठान भी लोक शिक्षार्थ ही जानना होगा । कारण, श्री अम्बरीष को लक्ष्य करके श्रीशुक देव ने भा० ६।४।२८ में कहा है-

" तस्मा अदाद्धरिश्चक्र

ं प्रत्यनीक मयावहम् ।

एकान्त भक्ति भावेन प्रीतो भक्ताभिरक्षणम् ॥”

टीका- नन्वेवम्भूतोऽसौ कथं प्रतिपक्षान् जयेत् तत्राह तस्मा इति ।

भगवान् श्रीहरि अम्बरीष महाराज के भक्ति भाव से प्रीत होकर शत्रुभीतिव, एवं भक्तरक्षण समर्थ सुदर्शन चक्र को महाराज की रक्षा हेतु नियोग किये थे । इस उक्ति से अम्बरीष महाराज की ऐकान्तिकता सुस्पष्ट व्यक्त हुई है । उस के मध्य में - अर्थात् ऐहिक एवं पारलौकिक सकामत्व के मध्य में ऐहिक

[[३२८]]

“मौन व्रत श्रुत-तपोऽध्ययन-स्वधर्म-, व्याख्या–रहोजप- समाधय आपवर्ग्यः । प्रायः परं पुरुष ते त्वजितेन्द्रियाणां वार्त्ता भवन्तुयत न वात्र तु दाम्भिकानाम् ॥ ४७३ ।

इति श्रीप्रह्लाद वाक्यवत् । मौनादय एवाजितेन्द्रियाणां वार्त्ता जीवनोपाया भवन्ति, दाम्भिकानान्तु वार्ता अपि भवन्ति न वा, दम्भस्थानियतफलत्वादित्यर्थः । अतएवोक्तम् (भा० ६।१८।७४)

トラ

“आराधनं भगवत ईहमाना निराशिषः ।

ये तु नेच्छन्त्यपि परं ते स्वार्थकुशलाः स्मृताः ॥ " ४७४ ॥ इति ।

“परं मोक्षमपि” इति टीका च । तस्मात् साधूक्तम् (भा० ७१७१५१ ) – “नालं द्विजत्वम्” इत्यादि ॥ श्रीप्रह्लादोऽसुरबालकान् ।

निष्कामत्व, भक्ति द्वारा निज जीविका एवं प्रतिष्ठादि अर्जन लालसा शून्य रूप अर्थ को भी जानना होगा । अर्थात् भजन प्रदर्शन पूर्वक जीविका निर्वाह की चेष्टा करना एवं भजन के माध्यम से प्रतिष्ठित होने की चेष्टा करना भी ऐहिक कामना के मध्य में परिगणित है । उस प्रकार वासना शून्य हृदय होने से ही निष्काम संज्ञा होती है, अतएव गरुड़ पुराण में विशुद्ध भक्त लक्षण उक्त है- “विष्णु यो नोपजीवति” अर्थात् जो व्यक्ति, श्रीविष्णु को जीविका निर्वाह का उपाय रूप में व्यवहार नहीं करता है, वह विशुद्ध भक्त संज्ञा से अभिहित होता है। भा० ७७६ ४६ में प्रह्लाद ने कहा भी है-

“मौन-व्रत श्रुत- तपोऽध्ययन-स्वधर्म-, व्याख्या-रहोजप- समाधय आपवर्याः ।

प्रायः परं पुरुष ते त्वजितेन्द्रियाणां वार्त्ता भवन्तुयत न वात्र तु दाम्भिकानाम् ॥ " ४७३ ॥

ननु मौनादिभिः मोक्षसाधनः सुलभेव तेषामपि मुक्तिः, तत्राह मौनेति । हे पुरुष अन्तर्यामिन् ! ये मौनादयोदश आपवर्ग्याः, अपवर्ग हेतवः प्रसिद्धाः । रहः, विविक्त वासः, ते तु प्रायशोऽजितेन्द्रियाणाम्– इन्द्रिय भोगार्थं विक्रीणतां वार्त्ता, जीवनोपाया भवन्ति दाम्भिकानान्तु वार्ता उत अपि भवन्ति वा नवा दम्भस्यानियत फलत्वात् ।

हे नाथ ! मौन प्रभृति दशविध साधन–यद्यपि मोक्षलाभ के हेतु रूप में प्रसिद्ध हैं, तथापि अजितेन्द्रिय अर्थात् इन्द्रिय भोग हेतु जो लोक उक्त दशविध धर्म को विक्रय करते हैं, उन के पक्ष में प्रायशः उक्त दशविध धर्म जीविका निर्वाह हेतु ही होते हैं, अभिमानी व्यक्ति गण के पक्ष में मोक्ष हेतु उक्त दशविध धर्म जीविका निर्वाह के कारण भी नहीं होते है । कारण, दम्भ का फल अनिद्दिष्ट होता हैं। अतएव भा० ६।१८।७४ श्लोक में इन्द्र, दिति को कहे थे-

“आराधनं भगवत ईहमाना निराशिषः ।

ये तु नेच्छन्त्यपि परं ते स्वार्थकुशलाः स्मृताः । । " ४७४ ॥ इति ।

टीका-अपि परं मोक्षमपि !

हे मातः ! जो लोक, निष्काम भाव से भगवान् की आराधना करते हैं, किन्तु निज आराध्य देव के निकट मोक्ष पर्यन्त नहीं चाहते हैं । वे सब ही यथार्थतः स्वार्थ साधन में सुचतुर हैं। अतएव भा० ७७५१ में प्रह्लाद ने कहा है-

“नालं द्विजत्वं देवत्वमृषित्वं वा सुरात्मजा ।