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तथैवोभयोः कामनाशून्यत्वं स्वयमेवाह (भा० ७ १०।५-६ ) -

(१६६) “अशा सानो न वै भृत्यः स्वामिन्या शिवमात्मनः ।

न स्वामी भृत्यतः स्वाम्यमिच्छन् यो राति चाशिषः ॥ ४६६ ॥

अहं त्वकामस्त्वद्भक्तस्त्वञ्च स्वाम्यनपाश्रयः ।

नान्यथे हावयोरर्थो राजसेवक योरिव ॥ ४६७॥

ज्ञानिणां गुणीभूतापि भक्तिरन्तिमसमये ज्ञानसन्न्यासानन्तरमुवंरिता अल्पीयस्यनन्येव भवेत्तयैव तेषां सायुज्यं भवेदिति ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते, तदनन्तरमित्यत्र प्रतिपादयिष्यामः ।

हे परन्तपः अर्जुन ! मदेकनिष्ठा अनन्याभक्ति के द्वारा हो नराकृति परब्रह्म स्वरूप को जान सकते हैं, अर्थात् परोक्ष अनुभव करने में एवं प्रत्यक्षतः दर्शन करने में समर्थ होते हैं, एवं लौह में दाहिका शक्ति सम्पन्न अग्नि का प्रवेश जिस प्रकार होता है, उस प्रकार तादात्म्य होकर मुझ में प्रवेश भी कर सकते हैं। अन्य किसी उपाय से मुझ को जानने में कोई सक्षम नहीं हैं ।

हे पाण्डव ! जो मानव, मन्निमित्त, मन्दिर निर्माण, मन्दिर मार्जन, पुष्प वाटी रचना, तुलसी कानन में जल सेचनादि कर्म करते हैं- एवं मुझ को परम पुरुष जानते हैं, कथा श्रवणादि भक्तचङ्ग निरत हैं, भगवद् विमुख जन संसर्ग वर्जित हैं, एवं भूतमात्र के प्रति निर्वैर हैं - वे नराकृति परब्रह्म को प्राप्त करते हैं। अतएव भक्ति भिन्न साधन साध्य सङ्ग शून्य भक्त को ही सङ्ग शब्द से कहा गया है । भा० ७ ७४८ में श्रीप्रह्लदने भी कहा है-

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(१६५ ) " तस्मादर्थाश्च कामाश्च धर्माश्च यदपाश्रयाः ।

भजतानोहयात्मानमनीहं हरिमीश्वरम् ॥ ४६५ ॥

टोका - अर्थादयो यदपाश्रयाः–यदधीनाः ॥

हे असुर बालक वृन्द ! अर्थ, काम, धर्म, जिस निष्काम भक्ति के अधीन हैं, अर्थात् जिस निष्काम भक्ति का अनुष्ठान करने से धर्म, अर्थ, काम अनुगत रूप से स्वतः ही आते हैं, तज्जन्य धर्म अर्थ काम की वासना न करके, निष्काम भाव से परमात्मा श्रीहरि का भजन करो । इच्छा आकाङ्क्षा, स्पृहा तृष्णा यह सब एकाथं वाची हैं, इस का उल्लेख अमर कोष में है ।

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पूर्व वर्णित सिद्धान्त के अनुसार भक्ति में प्रभु एवं भृत्य - उभय ही कामना शून्य होते हैं । प्रह्ल द भा० ७।१०।५–६ स्वयं ही कहे हैं-

(१६६) “आशासानो न वै भृत्यः स्वामिन्याशिषमात्मनः ।

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स्पष्टम् ॥ प्रह्लादः श्रीनृसिंहदेवम् ॥