१६४

२८४ १६४

जातप्रेमाणं प्राप्य (भा० १० १।१३)

(१६४) “नैषातिदुःसहा क्षुन्मां त्यक्तोदमपि बाधते ।

पिबन्तं त्वन्मुखाम्भोज् च्युतं हरिकथामृतम् ॥ ४५६ ॥

तारतम्य प्रकाशित होता है ।

श्रीविष्णु दूतगण यम दूत वृन्द को कहे थे ॥ १६२ ॥

२८५ १६३

अधिकारि विशेष को प्राप्त कर पूर्व वर्णित फलोदय होता है-इति पूर्व में इसका उदाहरण प्रस्तुत किया गया है । भा० ११।६।४४ में श्रीमान् उद्धव ने भी जातरुचि भक्त को प्राप्त कर लीलाका विशेष प्रभाव का वर्णन किया है-

(१६३) “तव विक्रीड़ितं कृष्ण नृणां परममङ्गलम्

कर्णपीयूषमास्वाद्य त्यजन्त्यन्यस्पृहां जनाः ॥ " ४५४ ॥

क्रमसन्दर्भ - स्वकतृक त्यागाशक्यत्वं कैमुत्येन दर्शयति तवेति ।

हे कृष्ण ! मानव मात्र को परम मङ्गल दायिनी तुम्हारी विविध लीला कथा जिन के कर्ण कुहर में सुधा रूप में प्रकाशित होती है, उन सब हरिदास वृन्द, लीला कथा श्रवण का आस्वादन प्राप्त कर अन्य समस्त कामना वासना को परित्याग करते हैं । अतएव अन्यत्र भी दृष्ट होता है-

“न क्रोधो न च मात्सय्यं न लोभो नाशुभा मतिः ।

भवन्ति कृत पुण्यानां भक्तानां पुरुषोत्तमे ॥ ४५५ ॥

पुरुषोत्तम भगवान् में जो मानव भक्तिमान् हैं, उन कृत पुण्य महा पुरुष वृन्द में कभी भी क्रोध नहीं होता है, मात्सय्र्थ्य नहीं होता है, लोभ नहीं होता है, एवं अशुभ कर्म करने की वासना भी नहीं होती है ।

श्रीमान् उद्धव कहे थे ॥ १६३॥

२८६ १६४

संजात प्रेमा भक्त को प्राप्त कर भगवत् कथा रूपा भक्ति का उल्लास किस प्रकार होता

है, उसका वर्णन भा० १०।१।१३ में है -

(१६४) “नैषाति दुःसहा शुन्मां त्यक्तोदमपि बाधते ।

पिबन्तं त्वन्मुखाम्भोजच्युतं हरिकथामृतम् ॥ १४५६॥

क्रम सन्दर्भ - नैषेति श्रीपरीक्षितो गाढ़रागव्यक्तिः । त्यक्तोदमपीत्युदकमपि सम्यक् त्यक्तवन्तमित्यर्थः । टीका ननु क्षुत्तृभ्यां पीड़ितस्य तव कुतः श्रवणावकाश स्तत्राह नैवेति । त्यक्तोदकस्यापि मम जीवनं

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स्पष्टम् ॥ श्रीराजा ॥