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अतएवाजा सिलस्यान्यदापि पुत्रोपचारितं नारायण-नाम गृह्णतः-
नामोच्चारण किये थे । तथापि श्रीभगवद्धाम प्राप्ति न होकर जन्मान्तर में ब्राह्मण देह की प्राप्ति उनकी क्यों हुई ? अर्थात् अन्तिम समय में पुत्र के नामोच्चारणच्छल से नारायण नाम उच्चारण करके अजामिल वैकुण्ठ धाम गमन करके श्रीभगवान् को प्राप्त किया था। किन्तु भरत, मृगशरीर त्याग के समय साक्षात् श्रीनारायणादि नामोच्चारण करके भी वैकुण्ठ में श्रीभगवान् को प्राप्त क्यों नहीं किये ? एवं ब्रह्मण देह में पुनर्जन्म क्यों हुआ ? उत्तर में कहते हैं- श्रीभरत की देहान्तर प्राप्ति होने पर भी उस देह में ही उन्होंने भगवत् साक्षात् कार प्राप्त किया था। कारण, महापुरुषों के हृदय में सर्वदा ही श्रीभगवान् का आविर्भाव । होता है। इस प्रकार अजामिल का, श्रीहरि प्रिय पार्षद वर्ग का दर्शन लाभ के पश्चात् पाञ्चभौतिक शरीर जब तक था, तब तक उनकी श्रीभगवत् स्फूत्ति होती थी। अतएव मृत्यु समय में एकवार भजन करने के बाद ही साधक कृतार्थ हो सकता है, इस विषय में व्यभिचार नहीं होता है ।
अतएव भा० २।१।६ में श्रीशुकने श्रीपरीक्षित को कहा है-
(१६१) “एतावान् सांख्ययोगाभ्यां स्वधर्मपरिनिष्ठया ।
जन्मलाभः परः पुंसामन्ते नारायणस्मृतिः ॥ " ४५१॥
हे राजन् ! साङ्ख्य-आत्म अनात्म विवेक-अथवा प्रकृति पुरुष विवेक, एवं अष्टाङ्ग योग और स्वधर्म परिनिष्ठा द्वारा अन्त में श्रीनारायण स्मृति हो मानव जन्म ग्रहण का मुख्य फल है । इस श्लोक की टीका में स्वामिपादने कहा है, - साङ्खय प्रभृति साधनों का साध्य नारायण स्मृति है । इन सब साधनों को अपर कुछ फल होने पर भी उस को मुख्य फल नहीं कहा जा सकता है । किन्तु नारायण स्मृति ही उन सब साधनों का साध्य वा मुख्य फल जानना होगा। अन्तिम समय में श्रीनारायण स्मृति ही परम फल लाभ ॥ अन्तिम समय में श्रीनारायण स्मृति की महिमा का वर्णन करने में कोई भी समय नहीं हैं । श्रीनाम- कौमुदीकार भी कहे हैं-अन्तिम समय में श्रीनारायण स्मृति, निखिल साध्यों के मध्य में परम श्रेष्ठ है ।
प्रवक्ता श्रीशुक हैं- १६१ ॥
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अतएव अन्य समय में भी पुत्रोपचारित नाम ग्रहण कारी अजामिल के द्वारा प्रथम उच्चारित नाम प्रभाव से ही निखिल पापक्षय होने पर भी मृत्यु समय में जो नाम ग्रहण अजामिल ने किया था, उसकी प्रशंसा की जाती है । प्रथमोच्चारित नाम प्रभाव से ही अजामिल के निखिल पाप विनष्ट हो गये थे, इसका वर्णन भा० ६।२1 में सुस्पष्ट रूप से है ।
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“प्रमाणे चाप्रयाणे च यन्नाम-स्मरणान्नृणाम् । सद्यो नश्यति पापौघो नमस्तस्मै चिदात्मने ॥४५२॥ इति पाद्म े देवद्य तिस्तुत्यनुसारेण, (भा० ५ ३।१२, - ’ ज्वरमरणदशायामपि सकल कश्मल- निरसनानि तव गुणकृतनामधेयानि " इति पश्च मोक्त-गद्यस्थितापि शब्देन प्रथमनामग्रहणादेव क्षीणसर्वपापस्यापि मरणे यन्नामग्रहणम्, तत्प्रशंसेव श्रूयते । तत्राप्यावृत्त्या ( भा० ६।२।१३ ) -
(१६२) “अथैनं मापनयत कृताशेषाघनिष्कृतिम् ।
दसौ भगवन्नाम त्रियमाणः समग्रहीत् ॥ " ४५३॥
‘अशेष’ - शब्दोऽत्र वासना - पर्यन्तः, ‘अघ’- शब्दश्चापराध- पर्यन्त इति । अत्र मरणे सर्वेषां दैन्योदयोऽपि श्रीभगवत्कृपातिशयद्वारमिति द्रष्टव्यम् ॥ श्रीविष्णुदूता यमदूतान् ॥
पद्म पुराण में देवद्युति कृत स्तुति के अनुसार दृष्ट होता है-
“प्रयाणे चाप्रयाणे च यन्नाम-स्मरणान्नृणाम् ।
सद्यो नश्यति पापौघो नमस्तस्मै चिदात्मने ॥ ४५२ ॥
मैं उन चैतन्य स्वरूप श्रीभगवान् को प्रणाम करता हूँ । देहान्त समय में अथवा जीवितावस्था में जिनके नाम स्मरण के प्रभाव से मानव मात्र की निखिल पाप राशि सद्यः विनष्ट हो जाती हैं । भा० पञ्चम स्कन्ध में भी वर्णित है-
“ज्वरमरणदशायामपि सकल कल्मष निरसनानि तव गुण कृत नामधेयानि "
इस में स्थित ‘अपि’ शब्द से सूचित हुआ है कि प्रथम नाम ग्रहण प्रभाव से ही सर्व पाप क्षय होता है । उस में भी पुनः पुनः श्रीनाम की आवृत्ति के द्वारा ही मृत्यु समय में रसना में श्रीनाम की स्फूर्ति होती है इस विषय में भा० ६।२।१३ में श्रीविष्णु दूत गण - यमदूतों को कहे थे-
(१६२) “अथैनं मापनयत कृताशेषाघ निष्कृतिम् ।
यदसौ भगवन्नाम स्त्रियमाणः समग्रहीत् ॥ " ४५३॥
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टीका - अथ तस्मादेवनं मा अपमार्गेण नयत, कृतमशेषाणामघानां निष्कृतं येन । यद् यस्मात् समग्रहीत् स. पूर्णमुच्चारितवान् । नामैकदेशेनाप्यलमितिभावः । म्रियमाण इत्यनेन पुनः पापान्तरासम्भव उक्तः । न तु तत् कालत्वमेव विवक्षितं तदानीं कृच्छ्रादि विधिवत् नामोच्चारण विधेरप्यसम्भवात् । न च विधि वि काकतालीय नामोच्चारणं न पाप हरमिति प्रमाणमस्ति ।
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हे यमदूत गण ! अजामिल को तुम सब निरय में न ले जाना, इसने निखिल पापों का प्रायश्चित्त किया है। कारण, मृत्यु समय में इसने भगवन्नाम उच्चारण किया है । अर्थात् प्रथमोच्चारित श्रीनारायण नाम प्रभाव से इस के निखिल पात्र विध्वंस न होने से मृत्यु समय में श्रीभगवन्नामोच्चारण नहीं हो सकता है । इस श्लोक स्थित ’ अशेषाघनिष्कृतिम् " अशेष शब्द से वासना पर्य्यन्त का संग्रह हुआ है। एवं अघ शब्द का उल्लेख होने से अपराध पर्य्यन्त क्षय हुआ है । इस प्रकार अर्थ जानना होगा। इस जातीय मृत्यु में दैग्योदय होता है, एवं उस दैन्योदय होने से ही श्रीभगवान् की अतिशय कृपा प्राप्ति का द्वार उद्घाटित होता है। यहाँ पर विशेष रूप से यह समझना होगा। अर्थात् अनवरत श्रीनामोच्चारण के प्रभाव से निखिल पाप एवं अपराधध्वंस होने से ही मृत्यु समय में रसना में श्रीहरिनामोच्चारित होता है, एवं युगपद् हृदय में दीनभाव का भी उदय होता है । उस दीन भाव के तारतम्य के अनुसार श्रीभगवत् कृपा का भी
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