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यत्तु श्रीभरतस्य मृगशरीरं त्यजतो नामानि गृहीत्वापि शरीरान्तरप्राहिस्तत्रापि

प्रशंसा वाक्य मानना भी अपराध विद्यमान है ।

भा० ६।२।३२ में श्रीअजामिल की सिद्धि प्राप्ति कथा वर्णित है, उस का प्रकाश श्रीअजामिल के निज वाक्य से ही हुआ है-

(१५६) “अथापि मे दुर्भगस्य विबुधोत्तमदर्शने ।

भवितव्यं मङ्गलेन येनात्मा मे प्रसीदती ॥” ४४६॥

टीका - यद्यप्यहमस्मिन् जन्मनि दुर्भगः पापीयान् तथापि जन्मान्तरे नूनं पुण्यवानित्याह- विबुधोत्तमदर्शन इति निमित्त सप्तमी, तेषां दर्शनार्थं पूर्वेण मङ्गलेन महता पुण्येन भवितव्यं येन दर्शनेन ।

यद्यपि मैं सब प्रकार से सौभाग्य हीन हूँ, तथापि इन महापुरुषों के दर्शन से मेरा मङ्गल अवश्य ही होगा । कारण, मेरा चित्त, प्रसन्न हो गया है, । यहाँ पर मङ्गल शब्द का अर्थ स्वामिपाद ने “पूर्व सञ्चित महापुण्य” किया है । यहा महापुण्य शब्द से साधुसङ्ग को ही जानना होगा ॥ १५ ॥

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श्रीअजामिल ने व्यतिरेक मुख से भी कहा है- भा० ६।२ ३३

(१६०) “अन्यथा म्रियम णम्य नाशुचेवृषलीपतेः ।

वैकुण्ठनामग्रहणं जिह्वा वक्तुमिहार्हति ॥ ४५० ॥

टीका - अन्यथा पूर्व पुण्यं विना । कथम्भूतं वैकुण्ठ नाम ? गृह्यते वशीक्रियते चित्तमनेनेति ग्रहणम् । अर्थात् यदि मेरा प्रचुरतर सौभाग्य न होता तो इन महापुरुषों का दर्शन कभी भी नहीं हो सकता मैं अपवित्र दासी पति हूँ, मृत्यु समय में मेरी जिह्वा, श्रीनारायण नाम ग्रहण नहीं कर सकती, यदि मेरा प्रचुरतर सौभाग्योदय नहीं होता, जिह्वा में श्रीहरिनामोच्चारण होना - परम सौभाग्य का फल है ही, उस में भी अपवित्र दासी संसर्गदोष से दुष्ट चित्त युक्त व्यक्ति के मुख से श्रीनामोच्चारण होना अत्यधिक सौभाग्य सापेक्ष है, तन्मध्ये मृत्यु समय में श्रीनारायण नामोच्चारण और भी अधिकतर सौभाग्य न होने से नहीं होता । अतएव निरपराध व्यक्ति भी महापुरुष की कृपा से अल्प साधन से भी श्रीभगवद्धामलाभ कर सकता है - इस विषय में आदर्श अजामिल चरित्र ही है ।

श्रीमान् अजामिल सुस्पष्ट रूप से कहे थे ॥ १६० ॥ १६१ । यहाँपर संशय हो सकता है कि- भरत-मृग शरीर त्याग के समय श्रीनारायणादि

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साक्षाद्भगवत्-प्राप्तिरेव - तादृशानां हृदि सदाविर्भावात् । एनमजामिलस्य पूर्वशरीरा- वस्थितावपि ज्ञ ेयम् । ततो मरण-समये सकृद्भजनस्यानन्तरमेव कृतार्थत्वप्रापणे व्यभिचारो न

स्यात् । अतएवाह, ( भा० २।११६) -

(१६१) “एतावान् सांख्ययोगाभ्यां स्वधर्मपरिनिष्ठया ।

जन्मलाभः परः पुंसामन्ते नारायणस्मृतिः ॥ ४५१॥

टीका च - “एतावानेव जन्मनो लाभः फलम् । तमाह, – नारायणस्मृतिरिति । सांख्यादिभिः साध्य इति तेषां स्वातन्त्र्येण लाभत्वं वारयति । अन्ते तु स्मृतिः परो लाभः । न तन्महिमाः

। वक्तु ं शक्यत इत्यर्थः” इत्येषा । नामकौमुदीकारैश्चान्तिमप्रत्ययोऽभ्यहित इत्युक्तम् । श्रीशुकः ।