१५६

२७६ १५६

तदेवमपराधहेतुक–तदभिनिवेशोदाहरणं गजेन्द्रादीनां विषयावस्थायां कार्यम् । अथ भक्तिशैथिल्यम्, येनाध्यात्मिकादि- सुखदुःख निष्ठं वोल्लसति, भक्तितत्पराणान्तु तत्रानादरो भवति, यथा सहस्रनामस्त्रोत्रे,

“न वासुदेवभक्तानामशुभं विद्यते क्वचित् । जन्म-मृत्यु -जरा-व्याधि–भर चाप्युपजायते ॥ ४४७॥ इति । या तु सत्साधकस्य मनुष्यदेह-रिरक्षिषा जायते, साप्युपासनावृद्धिलोभेन, न तु देहमात्र- रिरक्षिषयेति, न तथा च भक्तितात्पर्य्यहानिः । तदेवं विवेकसामर्थ्ययुक्तस्यापि भक्तितात्- पर्य्यव्यतिरेकगम्यं तच्छैथिल्यं मध्ये मध्ये रुच्यमाणया

मध्ये मध्ये रुच्यमाणया भक्तया यन्न दूरीक्रियते, तदपराधालम्बन मेवेति गम्यते । अतएवापराधानुमानाप्रवृत्तेमूढ़ चासमर्थे चाल्पेन सिद्धिः

२७७ १५६

उस प्रकार अपराध हेतु विषय में अभिनिवेश का उदाहरण गजेन्द्र प्रभृति की विषयावस्था में है, अर्थात् अपराध के कारण किस प्रकार भगवद् विमुखता होती है, उसका उदाहरण गजेन्द्र प्रभृति में है । सम्प्रति भक्ति शैथिल्य का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। भक्ति शैथिल्य होने के कारण, आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक सुख दुःखादि में निष्ठा उल्लसित होती रहती है । अर्थात् भक्तिशैथिल्य हेतु निज शरीर में शारीरिक सुख दु खानु सन्धान में चित्ताविष्ट हो जाता है। किन्तु जो लोक भजनानुष्ठान तत् पर हैं, उनके चित्त का आवेश आधिभौतिक वा आधि दैविक अन्तराय में नहीं होता है, किन्तु वे सब उस प्रकार अन्तराय का समादर हो करते हैं । सहस्र नाम स्तोत्र में उक्त

" न वासुदेवभक्तानामशुभं विद्यते क्वचित् ।

जन्म-मृत्यु-जरा-व्याधि-भयञ्चाप्युपजायते ॥ ४४७॥

वासुदेव के भक्तों का अमङ्गल नहीं होता है। जन्म मृत्यु जरा व्याधि से भी वे सब भीत नहीं होते हैं । किन्तु सत् साधक की मनुष्य शरीर रक्षा करने की जो चेष्टा देखी जाती है, वह भगवदुपासना वृद्धि के लोभ से हो होती है, साधक सोचते रहते हैं - दीर्घ दिन मनुष्य जीवन विद्यमान होने से श्रीकृष्ण भजन करके कृत कृत्य हो सकते । इस प्रकार भजन करने की लालसा से ही दीर्घकाल मनुष्य देह में अवस्थित रहने की इच्छा होती है । एतज्जन्य उक्त कामना, भक्ति विरुद्ध नहीं होती है । किन्तु भक्ति के अनुकूल ही होती है । किन्तु भक्त गण, केवल देह रक्षा की लालसा से जीवित रहना नहीं चाहते हैं । जहाँ पर देखने में आता है कि-निज हिताहित विचार सामर्थ्य युक्त व्यक्ति का भी भक्ति तात्पर्य्यं शून्य भजन शैथिल्य उपस्थित होता है। वहाँपर अनुष्ठित भजन शैथिल्य निवारण हेतु अधिक परिमाण से स्वतन्त्र रूप से यदि भक्ति का अनुष्ठान नहीं होता है तो, एवं भजन शैथिल्य को देखकर भी अनुतप्त नहीं होता है, अथवा आकुल भाव से सिद्ध भक्त किंवा श्रीभगवान् के निकट प्रार्थना नहीं करता है तो, वहाँ जानना होगा कि भक्ति शैथिल्य अपराध के कारण ही हुआ है । तज्जन्य समझने की क्षमता होने पर भी भजन शैथिल्य निवृत्ति हेतु चेष्टा नहीं होती है, वहाँ अनुमान किया जा सकता है कि-अपराध विद्यमान होने के कारण ही अन्तराय निवृत्ति हेतु प्रवृत्ति नहीं होती है । इस प्रकार अवस्थान में साधक यदि मूढ़ वा असमर्थ होता तो, अल्प भक्ति का अनुष्ठान से ही अपराध निवृत्ति होती है, एवं अभीष्ट लाभ भी होता है, कारण, मूढ़ वा असमर्थ व्यक्ति के प्रति दीन दयाल श्रीभगवान् की कृपा अत्यधिक होती है । किन्तु विवेक एवं सामर्थ्य रहते हुये भी अर्थात् जो जानता है कि, यह अपराध है, वा होगा, एवं अपराध होने से भजन व्याघात होगा, यह जानने पर भी यदि अपराध उपस्थित होता है तो उस को अत्यन्त दौरात्म्य ही जानना

`३१२ ]

समर्थैव । तत्र दीनदयालोः श्रीभगवतः कृपा चाधिका प्रवर्त्तते । कि तु विवेकसामर्थ्ययुक्ते सम्प्रत्यपि योऽपराधापातो भवति, सोऽत्यन्त दौराग्यादेव । तद्विपरीते तु नाति- दौर त्म्या’दत विदुषः समर्थस्य शतधनुषोऽन्तर योऽनन्तरविहित भगवदुपासनस्यापि युक्त एव । मूढानान्तु मूषिकादीनामपराधेऽपि सिद्धिस्तथैव युक्ता, दौरात्म्याभावेन भजनस्वरूपप्रभ वस्यापराधमति- क्रम्योदयात् । अथ भक्तचादिकृताभिमानित्वश्चापराधकृतमेव, - वैष्णवावमानादिलक्ष्णा- पराधान्तरजनकत्वात्, यथा दक्षस्य प्राक्तन-श्रीशिवापराधेन प्राचेतसत्वावस्थायां श्रीनारदापराधजन्मापि दृश्यते । तदेवं यत् सकृद्भजनादिनैव फलोदय उक्तरतयथावदेव,

[[19]]

होगा । और जहाँ देखने में आता है कि - “यह तज्जन्य अपराध हुआ है, वहाँ जानना होगा कि

अपराध का परिज्ञान है, एवं पूर्वावस्था में भगवदुपासक शतघनु महाराज का जो अपराध श्रीकृष्ण चरणों में दौरात्म्य रूप जो अपराध उपस्थित हुआ है-वह युक्ति युक्त ही है। मूढ़, मंदिर मत्त मानव, मूषिक प्रभृति का अपराध विद्यमान है, तथापि श्रीमन्दिर में ध्वजारोपण, एवं श्रीमन्दिर में दीप प्रदान रूप भक्ति के आभास से भी जो सिद्धि प्राप्ति हुई है, वह पूर्व सिद्धान्तानुसार ही है । यहाँ भक्ति के आभास मात्र से ही जो सिद्धि लाभ हुआ है, उस का कारण है - मूषिक प्रभृति का ज्ञान नहीं है, यह अपराध है, यह अपराध नहीं है । अतएव घृतवत्ति हरण करना वा नग्न होकर पुरातन वस्त्रखण्ड को उठाकर जीर्ण मन्दिर में नृत्य करना - अत्यन्त दौरात्म्य के मध्य में परिगणित नहीं हुआ है, अतएव भजन के प्रभाव से ही अपराध अतिक्रम हो जाता है, तथा अपराध अतिक्रम करके सिद्धि लाभ भी होता है । अनन्तर पूर्व वर्णित (१) भक्ति बाधक कौटिल्य, (२) अश्रद्धा (३) भगवन्निष्ठाच्यावक वस्त्वन्तराभिनिवेश (४) भक्ति शैथिल्य (५) स्व भक्तयादि कृत अभिमानित्व - इन पाँचो के मध्य में क्रमशः चार का वर्णन करके सम्प्रति निज भजन अनुष्ठानादि हेतु उत्थित अभिमान का वर्णन करते हैं ।

अपराध है इस प्रकार जानने की क्षमता ही नहीं है, अत्यन्त दौरात्म्य हेतु अपराध उपस्थित नहीं हुआ है ।

जहाँपर देखने में आता है कि “मैं श्रेष्ठ भक्त हूँ मैं आचार्य हूँ, मेरे समान कोई भी भजन नहीं करता है ।” इस प्रकार अभिमानोदय होता है, वहाँ जानना होगा कि - प्राचीन वा आधुनिक अपराध के कारण ही अभिमान का उदय हुआ है। कारण उक्त अपराध त्थ अभिमान से ही वैष्णव अवज्ञा रूप अपराधान्तर की उत्पत्ति होती है ।

जिस प्रकार दक्ष प्रजापति का पूर्व जन्म में शिव निन्दारूप अपराध हुआ। उस के कारण, द्वितीय जन्म में प्रचेतानन्दन दक्ष नाम से अभिहित होकर प्रजापति पदवी प्राप्त किये थे । इस जन्म में आपने श्रीब्रह्मा के आदेश से दश सहस्र प्रजा उत्पादन किये थे । पुत्र गण को परमेश्वर की उपासना करके शक्ति प्राप्त कर प्रजा सृष्टि करने के निमित्त आपने आदेश भी किया । पुत्र गण भी पश्चिम समुद्र के तीर में जाकर श्रीभगवदुपासना में प्रवत्त हो गये । उस समय देवर्षि नारद के सहित प्रसङ्ग होने के कारण उन सब को विषय वैराग्य हो गया । दक्ष प्रजापति यह वृत्तान्त सुनकर देवर्षि के प्रति अत्यन्त कुपित हो गये । एवं “पुनर्वार प्रजासृष्टि नहीं करेंगे " इस प्रकार सङ्कस्प भी किये थे । श्रीब्रह्मा के कथन से पुनर्वार प्रजासृजन करने में प्रवृत्त होकर एक सहस्र पुत्र उत्पन्न किये थे । वे सब भी देवर्षि के सङ्ग से विषय विरक्त हो गये । प्रजापति, संवाद सुनकर क्रोधान्ध हो गये, इसी समय सहसा देवर्षि नारद का आगमन उनके समीप में हुआ, प्रजापति, देवर्षि को तिरस्कार करके ‘एकत्र अवस्थान नहीं होगा” कहकर अभिसम्पात किये थे ।

[[३१३]]यदि प्राचीनोऽर्वाचीनो वापराधो न स्यात् । मरणे तु सर्वथा सकृदेव यथाकथचिदपि भजनमपेक्ष्यते । तत्र हि तस्यैव सकृदपि भगवन्नाम ग्रहणादिकं जायते, यस्य पूर्वत्र वात्र वा जन्मनि सिद्धेन भगवदाराधनादिना तदानीं स्वीयप्रभावं प्रकटयतानन्तरमेव भगवत्साक्षात् कारो भाव्यते, ( गी० ८६) -

“यं यं वापि स्मरन् भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।

तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ॥ ४४८॥

इति श्रीगीतोपनिषद्द्भ्यः । ततोऽपराधाभावात् तत्क्षयार्थं न तत्रावृत्त्यपेक्षा, यथाजामिलस्य,

श्रीनारद के समीप में दक्ष प्रजापति का इस प्रकार आचरण से अपराध की उत्पत्ति पुनर्वार हुई। इस अपराध का मूल कारण हो पूर्व जन्म कृत शिवनिन्दारूप अपराध है । अतएव प्रचीन वा आधुनिक अपराध निबन्धन अभिनव अपराधोत्पत्ति का भजनोत्थित अभिमान है । अतएव यदि प्राचीन अथवा आधुनिक अपराध सञ्चित नहीं हो तो, एकवार मात्र भजन से हो अर्थात् सकृदुच्चारित श्रीकृष्णनामोच्चारणादि से ही भक्ति फल प्रेमोदय होता है। यह सुनिश्चित सिद्धान्त है ।

[[1]]

मृत्यु के समय में तो यथा कथञ्चित् एकवार मात्र ही भजन की अपेक्षा है, अर्थात् मृत्यु काल में एकवार मात्र जैसे तैसे श्रीहरि के नामादि श्रवण, कीर्तन एवं स्मरणादि के मध्य में एकतम भजन करने से ही परम गति होती है । जिस के पूर्व जन्म में अथवा वर्तमान जन्म में श्रीभगवदाराधनादि सिद्ध होते हैं, उस में ही मृत्यु समय में भजन शक्ति, निज सामर्थ्य प्रकाश करती है । अतः उस अन्तिम काल में भी श्रीभगवन्नामादि ग्रहण उस व्यक्ति के द्वारा होता है, एवं देह त्याग के पश्चात् श्रीभगवत् साक्षात् कार की सम्भावना भी की जा सकती है, । किन्तु जिस का भजन सिद्ध नहीं हुआ है, उस का प्राण प्रयाण समय में नामोच्चारण होना असम्भव है । इस अभिप्राय से ही श्रीभगवद् गीतापनिषद् के ८।६। में उक्त है-

यं यं वापि स्मरन् भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।

तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ॥ ४४८॥

टीका - मामेव स्मरन् मां प्राप्नोतीतिवन् मदन्यमपि स्मरन् मदन्य मेव प्राप्नोतीत्याह यं यमिति ।

तस्य भावेन भावनेन अनुचिन्तनेन भावितो वासितः, तन्मयीभूतः ॥”

हे कौन्तेय ! अन्तिम काल में जिस जिस विषय की चिन्ता करके देह त्याग होता है, सर्वदा तद् भाव भावित व्यक्ति, उस उस विषय को प्राप्त करता है। इस श्लोक में उल्लिखित “सदा तद् भावभावितः पद का तात्पर्य यह है कि-सर्वदा जिस जिस भाव में हृदय आविष्ट होता है, अन्तिम काल में उस उस विषय की स्फूति होती है। इस से प्रतिपादित हुआ है । किन्तु भजन सिद्ध व्यक्ति के ही अन्तिम समय में श्रीनामादि भजनाङ्ग की स्फूति होती है । अतएव जानना होगा कि -अन्तिम काल में भजनाङ्गकी स्फूति जिस की होती है, उसका प्राचीन वा आधुनिक किसी प्रकार अपराध नहीं है । अपराध की विद्यमानता में अन्तिम काल में श्रीनामादि स्फत्ति की सम्भावना ही नहीं की जा सकती है। अपराध विद्यमान न होने से पुनः पुनः भजन की अपेक्षा नहीं है, जिस प्रकार अपराध शून्य अजामिल के अन्तिम समय में एकवार मात्र उच्चारित नामाभास से कृतार्थ होने का संवाद सुनने में आता है । किन्तु बहुविध श्रीहरिनामादि श्रवण से भी यमदूत गण का कृतार्थ होने का संवाद कहीं पर सुनने में नहीं आया है । कारण, यमदूत गण में श्रीहरिनाम के प्रति जिस प्रकार प्रीति का अभाव विद्यमान है, उस प्रकार ही श्रीनाम माहात्म्य श्रवण कर

[[३१४]]

न तथा कृत- तन्नामश्रवणादीनामपि यमदूतानाम्, यथाह (भा० ६।२।३१) -

(१५६) “अथापि मे दुर्भगस्य विबुधोत्तम–दर्शने ।

भवितव्यं मङ्गलेन येनात्मा मे प्रसीदति ॥। ४४६ ॥

““पूर्वेण मङ्गलेन महता पुण्येन” इति टीका च ॥