२७४ १५८
केचित्तु साधारणस्यैव प्रारब्धस्य तादृशेषु भक्तेषु प्राबल्यं तदुत्कण्ठावर्द्धनार्थं स्वयं भगवतैव क्रियत इति मन्यन्ते । सा च वर्णिता मृगदेहं प्राप्तस्य तस्य । यथैव श्रीनारदस्य पूर्वजन्मनि जातरतेरपि कषायरक्षणमाह, (भा० १।६।२२) -
( १५८) " हन्तास्मिन् जन्मनि भवान् मा मां द्रष्टुमिहार्हति ।
अविपक्वकषायाणां दुद्द र्शोऽहं कुयोगिनाम् ॥” ४४६ ॥
स्पष्टम् ॥ श्रीभगवान् ॥
द्वारा श्रीभगवदाराधना करते थे, उनका वह मन, मृग शावक की चिन्तामें रत हो गया । यहाँ पर विचार्य्यं विषय यह है कि सामान्य प्रारब्ध कर्म श्रीभगवद् भक्ति का अन्तराय नहीं हो सकता है । कारण, आरब्ध कर्म अति दुर्बल है, श्रीभगवद् भक्ति- भगवद् स्वरूप शक्ति की वृत्ति स्वरूप होने के कारण सबला है । माया शक्ति का कार्य, प्रारब्ध कर्म, कैसे चित् स्वरूपा भगवद् भक्ति के प्रति प्रभाव विस्तार कर सकता है ? अतएव यहाँपर जानना होगा कि - इन्द्रद्य ुम्न महाराज, जिस प्रकार श्रीभगवदच्र्चत करते समय समागत अगस्त्य मुनिको समादर प्रदान नहीं किये थे । उस उपराध से उनको हस्ति जन्म लाभ हुआ था । यहाँ पर भी किसी प्राचीन अपराध के फल से ही मृग देह में इस प्रकार अभिनिवेश हुआ, एवं तज्जन्य हो भरत, भगवद् भजन से भी विच्युत हुए
श्रीशुक देव कहे थे ॥ १५७ ॥
थे ।
२७५ १५८
इस विषय में कतिपय व्यक्ति, इस प्रकार सिद्धान्त करते हैं- उत्कण्ठावर्द्धन हेतु श्रीभगवान् जात रति भक्त में साधारण मायामय प्रारम्भ कर्म का प्राबल्य प्रकाश स्वयं ही करते हैं । उस प्रकार उत्कण्ठा का वर्णन, प्राप्त मृगदेह भरत चरित्र में समधिक हुआ है। देवर्षि नारद के पूर्व जन्म में अर्थात् जिस समय नारद, दासी पुत्र रूप में जन्म ग्रहण किये थे, उस समय, श्रीहरि में स्थायि भव प्राप्त करने के पश्चात्
भी श्रीभगवदाविर्भाव दर्शन के अनन्तर पुनवर अदर्शन प्राप्त करके दर्शन हेतु अति व्याकुल हुये थे । उस समय आकाश वाणी इस प्रकार हुई थी भा० १।६।२२
(१५८) “हन्तास्मिन् जन्मनि भवान् मा मां द्रष्टुमिहार्हति ।
अविपक्वकषायाणां दुद्द र्शोऽहं कुयोगिनाम् ।’ ४४६॥
क्रमसन्दर्भ - हन्तेति, (भा० १२५/२८) “भक्तिः प्रवृत्तात्मरजस्तमोपहा " इत्युक्तत्वात् । कषायोऽत्र सात्त्विको वन वासाद्याग्रहः (भा० १११२५/२५) “वनं तु सात्त्विको व सो ग्राम्यो राजस उच्यते । तामसं द्यूत सदनं मनिकेतन्तु निर्गुणम् ॥” इत्युक्तेः । उत्कण्ठा वर्द्धनार्थञ्चेदम् ॥
हे नारद ! तुम, इस जन्म में मुझ को और देख न सकोगे । यह अतीब दुःख की बात है । मेरा स्वभाव यह है कि - जिन की भोग वासना का क्षय नहीं हुआ है, उन सब कुयोगी को मैं दर्शन दान नहीं करता हूँ । तब जो एकवार मात्र तुम्हें दर्शन दिया, वह केवल तुम्हारी दर्शनोत्कण्ठा वद्धित करने के निमित्त ही जानना ।
श्रीभगवान् नारद को कहे थे ॥ १५८ ॥
[ ३११,