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अनन्तर श्रीभगवद् भिन्न अपर वस्तु में अभिनिवेश होने से भगवन्नष्ठा की हानि होती है, उस का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं - भा० ५।८।२६ में वर्णित है-
राजर्षि भरत, प्रगाढ़ अभिनिवेश मृग शावक के प्रति प्राप्त हुये थे । उस से प्रतीत होता था कि- निज प्रारब्ध कर्म फल ही मृगशावक रूप में स्थित है। उस प्रकार अभिनिवेश के फल स्वरूप, योगितापस भरत योगारम्भ से भ्रष्ट तो हुए थे, परन्तु श्रीभगवदाराधना से भी विच्युत हो गये थे । अर्थात् जिस मनके
[[३१०]] योगारम्भणतो विकाशितः स योगतापसो भगवदाराधन-लक्षणाच्च" इति ।
भोभक्तिसन्दर्भः
स श्रीभरतः । अत्र वं चिन्त्यम् - भगवद्भक्तचन्तरायकं सामान्यं प्रारब्धकर्म न भवितु- मर्हति, दुर्बलत्वात् । ततः प्राचीनापराधात्मकमेव तल्लभ्यत इन्द्रद्युम्नादीनामिवेति । श्रीशुकः ।