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अतएवाधुनिकेषु महानुभावलक्षणवत्सु तद्दर्शनेऽपि नाविश्वासः
‘दन्ता गजानां कुलिशाग्रनि ठुरा., शीर्णा यदेते न बलं ममैतत् । महाविपत् पातविनाशन ेऽयं, जनाद्द’ नानुस्मरणानुभावः ॥ ४४४ ॥ इति ।
।
कर्त्तव्य ।
वज्र से भी अतिनिष्ठुर, हस्ति समूह के दन्त सकल जो विशीर्ण हो गये थे, उस में मेरा प्रभाव नहीं है, किन्तु महाविपद् नाशन जनार्दन का निरन्तर स्मरण प्रभाव ही है। किन्तु श्रीपरीक्षित् प्रभृति विशुद्ध महाभागवत गण कभी भी निज भक्ति के प्रभाव से विपत्ति नाश की आकाङ्क्षा नहीं किये हैं, परन्तु भक्ति के फलरूप में श्रीभगवान् को प्राप्त कर उनकी सेवा करने की लालसा का पोषण हृदय में करते रहते हैं। निजकृत पाप अथवा अपराध का पल खण्डन के अभिलाष के विनिमय में दुःख भोग की प्रार्थना ही करते रहते हैं । उदाहरण स्वरूप भा० १।१६।१५ में उक्त है-
(१५५) “द्विजोपसृष्टः कुहकस्तक्षको वा ।
दशत्वलं गायतः विष्णुगाथाः ॥
“सप्तम दिवस में तक्षक दंशन करेगा” निज पुत्र शृङ्गीकृत अभिशाप को शमीक मुनि सुनकर गौर मुख नामक शिष्य के द्वारा महाराज परीक्षित् को शाप वृत्तान्त सूचित किये थे । उसी समय महाराज परीक्षित् गङ्गा तीर में प्रायोपवेशन करके ऋषिवृन्द के समक्ष में कहे थे, - ब्राह्मण प्रेरित कुहक हो अथवा साक्षात् तक्षक हो, मुझ को यथेष्ट दंशन ६ रे, तथापि आप सब श्रीविष्णु चरित्र का गान करें । ज्ञातव्य यह है कि - यद्यपि भक्ति, निखिल अन्तराय विनष्ट करने में समर्थ है, तथापि भक्त के सङ्कल्प के अनुसार ही निज सामर्थ्य प्रकाश तथा अप्रकाश करती है । जिन्होंने प्रह्लाद के विघ्न समूह को अपसारित किया है, उन के पक्ष में महाराज परीक्षित के विघ्न रूप विप्र शाप को विदूरित करना असम्भव नहीं था । किन्तु परीक्षित् महाराज के हृदय में भक्ति के द्वारा तक्षक दंशन रूप विघ्नापसारण करने की इच्छा नहीं रही अतः सप्तम दिवस में तक्षक उनको दंशन किया था। महाराज परीक्षित ने तो भक्ति की समस्त शक्ति के द्वारा श्रीकृष्ण पाद पद्म सेवालाभ का सङ्कल्प ही किया था । इस प्रकार आचरण करना ही समस्त विशद्ध भक्तों का कर्त्तव्य है । भक्ति के विनिमय से अथवा भक्ति की किसी प्रकार साथ्य को देह दैहिक सम्बन्धान्वित व्यवहारिक विषय सम्पादन हेतु विनियोग करना एकान्त अकर्त्तव्य है ।
राजा कहे थे ॥ १५५ ।
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अनएव महानुभाव लक्षण युक्त आधुनिक भक्त वृन्द में विविध विपत्ति को देखकर भी अविश्वास करना कर्त्तव्य नहीं है । अर्थात् जो, श्रीभगवान् के ऐकान्तिक भक्त होंगे उनको इस प्रकार अन्तराय क्यों होगा ? कारण, श्रीप्रह्लादादि महानुभव गण भक्ति शक्ति के प्रभाव से ही निखिल विपत्ति को
पराभूत किये थे, यह भक्त, जब उक्त विपत्ति को विनष्ट नहीं कर सकते हैं, तब यह उत्तम भागवत नहीं है । इस प्रकार अविश्वास करना नहीं चाहिये । अथवा कोई भगवद् भक्त, भक्ति शक्ति के प्रभाव सेश्रीभक्ति सन्दर्भः
कुत्रचिद्भगवदुपासनाविशेषेणैव तादृशमानुषङ्गिकं फलमुदयते, यथा ( भा० ४८७६) -
(१५६) “यदैकपादेन स पार्थिवात्मज-, रतस्थौ तदङ्गुष्ठ-निपीड़िता मही ।
ननाम तत्रार्द्धमिभेन्द्र धिष्ठिता, तरीव सव्येतरतः पदे पदे ॥ ४४५॥
[
३०६.
अत्र सर्वात्मकतयंत्र विष्णुसमाधिना तादृक् फलमुदितम् । एता दृश्युपासना चास्य भावि- ज्योतिर्मण्डलात्मक - विश्व - चालन- पदोपयोगितयोदितेति ज्ञेयम् ॥ श्रीमैत्रेयः ॥
(१५७) अथ भगवन्निष्ठाच्या वक वस्त्वन्तराभिनिवेशो यथा ( भा० ५।८।२६) -
(१५७)
“एवमघटमानमनोरथाकुलहृदयो मृगदारकाभासेन स्वारब्धकर्मणा
उपस्थित अन्तराय समूह को विनष्ट कर रहे हैं, यह देखकर समझना नहीं चाहिये कि यह विशुद्ध भागवत् नहीं है । इस प्रकार अविश्वस करना नहीं चाहिये । भक्त विशेष की उप सना के वैशिष्टय हेतु अप्रार्थित रूप से ही भक्ति का अनुषङ्गिक पूर्व वर्णित फलों का उदय होता है । ध्रुव का भी वैसा ही हुआ था, जिस समय ध्रुव समाधिस्थ हुये थे, उस समय आप एक पद से खड़े थे, उस समय उनके चरण की अंगुली के भार से निपीड़िता होकर पृथिवी, हस्ती पराक्रान्त नौका के समान अवस्थान को प्राप्त कर चुकी थी । इसका वर्णन भा० ४८।७६ में है-
“यदैकपादेन स पार्थिव त्नज, स्तस्थौ तबङ्गुष्ठ-निपीड़िता मही ।
ननाम तत्रार्द्धमिभेन्द्रधिष्ठिता, तरीव सध्येतरतः पदे पदे ॥ " ४४५ ॥
टीका- तप्याङ्गुष्ठेन निपीड़िता आक्रान्तासती मही तत्र तदा अद्धं ननाम । समे शके ऽर्द्धशब्दस्य नपुंसकत्वात् अंशांशिनोऽभेदाच्च एवं सामानाधिकरण्यः इभेन्द्रेणाधिष्ठिता तरी नौ र्यथा पदे पदे सव्यतो दक्षिणतश्च नमति तद्वत् ॥
ध्रुव की
अङ्गुष्ठ के भर से मही गजराज के पद के द्वारा आक्रान्ता तरी क े समान दक्षिण एवं वाम भाग में अर्द्धक नत हो गई थी । यहाँ, सर्व व्यापक विष्णु में ध्रुव समाधिस्थ होने के कारण ही अप्रार्थित रूप से भी इस प्रकार फल उपस्थित हुआ था । ध्रुव की यह उपासना भावी ज्योति मंण्डलात्मक विश्वपरिचालन पद की उपयोगिता रूप में ही हुई थी। तात्पर्य यह है कि ध्रुव, जिस लोक में प्रस्थान किये थे, उस लोक का नाम ध्रुव लोक है, और वह समस्त ज्योतिश्चक्र भ्रमण हेतु अवलम्बनीय स्तम्भ है, जिस प्रकार शस्त्र चूर्ण करने के निमित्त कृषक मध्यस्थल में पशु बन्धन शकु स्थापन करता है, मूल जिस में पशु बन्धन रज्जु बद्ध रहती है, उसके अवलम्बन से गोलाकार रूप में पशु चतुर्दिक में घूमता रहता है । उस प्रकार ज्योतिश्चक्र, इस ध्रुव लोक को अवलम्बन करके ही पृथिवी के चतुर्दिक में भ्रमण करता रहता है । तज्जन्य ही ध्रुव की अगुष्ट के भर से पृथिवी अर्द्ध विनता हो गई थी ।
श्रीमैत्रेय कहे थे ॥ १५६ ॥