२६९ १५४
यथैव भगवद्भक्ता अप्यकुटिलात्मनोऽज्ञाननुगृह्णन्ति, न तु कुटिलात्मनो विज्ञानिति दृश्यते, यथा ( भा० ११।५।४-५ ) –
(१५४) “दूरे हरिकथा केचिद्दूरे चाच्युतकीर्त्तनाः ।
स्त्रियः शूद्रादयश्चैव तेऽनुकम्प्या भवादृशाम् ॥४४२॥
विप्रो राजन्य-वैश्यो वा हरेः प्राप्ताः पदान्तिकम् । श्रौतेन जन्मनाथापि मुह्यन्त्याम्नायवादिनः ॥ ४४३॥
टोका च - “तत्र येऽज्ञास्ते भवद्विधानामनुग्राह्या इत्याह–दूर इति । ज्ञानलब दुर्विदग्धास्त्वचिकित्स्यत्वादुपेक्ष्या इत्याशयेनाह - विप्र इति” इत्येषा ॥ श्रीचमसो निमिम् । १५५ । अथाश्रद्धा - दृष्टे श्रुतेऽपि तन्महिमादौ विपरीत-भावनादिना विश्वासाभावः,
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भगवद् भक्त वृन्द अकुटिल स्वभाव मूर्खगण को अनुग्रह करते रहते हैं, किन्तु कुटिल चित्त विज्ञ गण को उस प्रकार अनुग्रह नहीं करते हैं। इसका वर्णन श्रीमद्भागवतादि ग्रन्थ में सुस्पष्ट रूप में है । (भा० ११।५।४-५)
(१५४) “दूरे हरिकथा केचिदूरे चाच्युतकीर्त्तनाः ।
स्त्रियः शूद्रादयश्चैव तेऽनुकम्पया भवादृशाम् ॥४४२॥ विप्रो राजन्य-वैश्यौ वा हरेः प्राप्ताः पदान्तिकम् ।
श्रीतेन जन्मनाथापि मुहानत्याम्नायवादिनः ॥ ४४३॥
टीका – तत्र ये अज्ञस्ते भवद्विधानामनुग्राह्या इत्याह । दूर इत । दूरे हरिकथा श्रवणं येषां ते । अतएव दूरे चाच्युत कीर्त्तनं येषां ते दूरे अच्युतकीर्त्तनाश्चेति वा । (४) ज्ञानलब दुव्विदग्धास्तु अ चषि त्स्यत्व दुपेक्ष्य इत्याशयेनाह विप्र इति । श्रौतेन उपनयाख्येन उपलक्षणमेतत् । अध्ययनादिनापि हरेः पदान्तिकं तद्भजनोत्तमाधिकार प्राप्ता अपि मुह्यन्ति, कर्मफलेषु सज्जन्ते कुतः । आम्नायेषु ये वादा, अर्थवादास्ते मोहकतया विद्यन्ते येषां ते । तदुक्तं गीतासु । यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः, वेद वादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिन इत्यादिना ॥
श्रीचमस योगीन्द्र, निमिमहाराज को कहे थे - हे राजन् ! जो लोक, अत्यन्त अज्ञ, उन के प्रति -महद् गण अनुकम्पा करते हैं । वे सब द्विविध होते हैं, - प्रथम वे हैं - जिनके निकट भक्त वृन्द का आगमन नही होता है, अतः हरिकथा श्रवण सौभाग्य लाभ उन सब को नहीं होता है। द्वितीय वे हैं- जो जन्मान्ध, जन्मतः बधिर एवं उन्मत्त हैं । उभयविध व्यक्ति के प्रति ही महतों का अनुग्रह होता है । किन्तु ज्ञानलब दुर्विदग्ध मानवगण अचिकित्स्य होते हैं । अर्थात् वे सब दुरभिमानरंग ग्रस्त होते हैं, अतएव उक्तरोग निवृत्ति करना दुःसाध्य होने के कारण उन सब को उपेक्षा करते हैं। इस अभिप्राय से कहा गया है-
ब्राह्मण, क्षत्रिय अथवा वैश्य, शौक एवं श्रौत जन्म में भी श्रीहरिके चरण सान्निध्य प्राप्त करनेकी उपयोगिता को प्राप्त करके भी वेद की पुष्पित वाणी से विमुग्ध वे सब होते हैं ।
श्रीचमस - निमिमहाराज को कहे थे ॥ १५४॥।
(१५५) कोटित्यका वर्णन करने के पश्चात् अश्रद्धा का वर्णन करते हैं । श्रीगुरु, श्रीनाम, श्रीमन्त्र,
।
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यथा दुर्योधनस्यैव विश्वरूपदर्शनादावपि । अतएव यथा (भा० १ १११४) “आपन्नः संसृति घोरां यन्नाम विवशो गृणन्” इत्यादि श्रीशौनकस्य (वि० पु० १।१७।४४) “दन्ता गजानां कुलिशाग्र- निष्ठुराः” इति श्रीप्रह्लादस्यानुभव सिद्धम्, न तथा सर्वेषाम् । ईदृशमानुषङ्गिकं फलन्तु, शुद्धभक्तैर्भगवन्म हिमख्यापनेच्छा यदि स्यात्, तदैवेष्यते, न तु स्वरक्षणाय स्वमहिमदर्शनाय वा, यथैवोक्तम्, (वि० पु० १/१७/४४ ) -
श्रीविग्रह, श्रीवैष्णव, एवं श्रीभगवान् प्रभृति की महिमा को देखकर एवं सुनकर भी असम्भावना एवं विपरीत भावना प्रभृति के द्वारा विश्वास के अभाव का नाम अश्रद्धा है । जिस प्रकार श्रीकृष्ण के विश्व- रूपादि दर्शन करके भी श्रीकृष्ण के प्रति दुर्योधन का परमेश्वर बोध न होना । अर्थात् कृष्ण के प्रति दुर्योधन का अविश्वास ही था । दुर्योधन श्रीकृष्ण को परमेश्वर नहीं मानते थे, किन्तु मायावी मानते थे । अतएव भा० १।१।१४ में उक्त है-
“आपन्नः संसृति घोरां यन्नाम विवशोगृणन् ।
॥”
ततः सद्यो विमुच्येत यद्विमेति स्वयं भयम् ॥ "
क्रमसन्दर्भ - विवशोऽपि - विशेषेण पराधीनः सन्नपि । यस्य, श्रीकृष्णस्य नाम, –तस्य सर्वावतार- त्वादवतार नाम्नामपि तत्रैव पर्य्यवसानात् । अतएव साक्षाच्छ्रीकृष्णादपि तशाम प्रवृतिः प्रकाशान्तरेण श्रूयते, श्रीविष्णु पुराणे (४।१५।७) “तत्रत्वखिलानामेव भगवन्नाम्नां कारणान्यभवन्” इति गद्यम् । तविदश्च वासुदेव - दामोदर - गोविन्द केशवादि नाम ज्ञ ेयम् ॥
टीका - तत् प्रभावमनुवर्णयन्तस्तद्यशः श्रवणौत्सुक्यमाविष्कुर्वन्ति आपन्न इति त्रिभिः, संसृति घोरामापन्नः प्राप्तः विवशोऽपि गृणन् ततः संसृतेः । अत्र हेतुः, यद् यतो नाम्नः, भयमपि स्वयं बिभेति ॥
श्री शौनक कहे थे - हे सूत ! घोरतर संसार दशा प्राप्त मानव, अननुसन्धान से भी जिनके नामोच्चारण एवं श्रवणादि द्वारा तत् क्षणात् संसार दशा से मुक्त हो जाते हैं, कारण, स्वयं भयभी जिनके नाम से भीत होता रहता है। विष्णु पुराण में उक्त है - श्रीप्रह्लाद ने कहा था “दन्ता गजानां कुलिशाग्र नाठुराः " इस का अनुभव श्रीप्रह्लाद को था । इस विषय अपर किसी को विश्वास न होने का कारण है-श्रीभगवन् नामापराध है । इस प्रकार विशुद्ध भक्ति का आनुषङ्गिक फल का प्रकाश सब के समक्ष में नहीं होता है । यदि भक्ति महिमा प्रकाश करने की इच्छा भगवान् की होती है तो, इस प्रकार भक्ति का आनुषङ्गिक फल का प्रकाश होता है । किन्तु आत्मरक्षा हेतु अथवा निज महिमा प्रकाश हेतु कभी भी शुद्ध भक्त वृन्द को इच्छा उस प्रकार भक्ति महिमा प्रकाश करने की होती ही नहीं । तात्पर्य यह है कि-
“अन्याभिलाषिताशून्य, ज्ञान कमादि अनावृत, एवं आनुकूल्य से कृष्णानुशीलन रूपा विशुद्धा भक्ति का मुख्य फल ही है- श्रीकृष्ण चरणों की प्रेम सेवा प्राप्ति । अन्यान्य फल, आनुषङ्गिक रूप से उपस्थित होते रहते हैं। जैसे संसार वासनाक्षय, मायानिवृत्ति, अखिल विघ्न विनाश, जन प्रियता, सम्मान लाभ, अर्थादि प्राप्ति प्रभृति । किन्तु जानना होगा कि यह सब विशुद्धा भक्ति के मुख्य फल नहीं हैं । किन्तु अनुषङ्गिक फल हैं, अर्थात् आनुषङ्गिक रूप से अविद्या निवृत्ति प्रभृति होती हैं । स्वार्थ साधन के उद्देश्य से अथवा प्रतिष्ठित होने के निमित्त भक्ति के आनुषङ्गिक फललाभ की इच्छा हृदय में होने से शुद्धा भक्ति नहीं होती है । कारण, श्रीकृष्ण सुखंक तात्पय्ये को छोड़कर अपर कुछ कामना होने से श्रीकृष्ण प्रीति प्राप्ति नहीं होती है, प्रत्युत वहिर्मुखता आ जाती है। भक्ति के आनुषङ्गिक फल का अनुभव श्रीप्रह्लाद ने जिस प्रकार किया था, उसका वर्णन विष्णु पुराण के १।१७।४४ में इस प्रकार है-
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" दन्ता गजानां कुलिशाग्रनिष्ठुराः, शीर्णा यदेते न बलं भमैतत् । महाविपत् पातविनाशनोऽयं, जनार्द्दनानुस्मरणानुभावः ॥ ४४४ ॥ इति ।
श्रोपरीक्षित्प्रभृतिभिस्तु तदपि नेष्टम्, यथा ( भा० १।१६।१५) -
(१५५) “द्विजोपसृष्टः कुहकस्तक्षको वा, दशत्वलं गायत विष्णुगाथाः " इति ।
स्पष्टम् ॥ राजा ॥