१५३

२६७ १५३

अस्तु तावत् शुद्ध भक्तयाभासवार्त्ता, अपराधत्वेन दृश्यमानोऽप्यसौ महाप्रभावो दृश्यते, यथा विष्णुधम्र्मे भगवन्मन्त्रेण कृतनिजरक्षं विप्रं प्रति राक्षस वावयम्–

·

“त्वामत्तुमागतः क्षिमो रक्षया कृत्या त्वया । तत्संस्पर्शाच्च मे ब्रह्मन् साध्वेतन्मनसि स्थितम् ॥४२० ॥

का सा रक्षा न तां वेद्मि वेद्मि नास्याः परायणम् ।

P

किन्त्वस्याः सङ्गमासाद्य निर्वेदं प्रापितः परम् ॥” ४२१॥ इति

नाम का उच्चारण करता है, तो, वह नामोच्चारण कारी व्यक्ति तत् क्षणात् अनेक जन्म सञ्चित पाप राशि से निर्मुक्त होकर सर्वोपाधिशून्य सच्चिदानन्द स्वरूप श्रीभगवान् को प्राप्त करता है । नामोच्चारण मात्र से ही सकल पाप विनष्ट होकर भगवत् प्राप्ति होती है, उसका कारण है, श्रीभगवद तारों में जो क्षमता है, उन उन अवतारों के नामों में भी वह क्षमता है । कारण, नाम एवं नामी में किसी प्रकार प्रभेद नहीं है। श्रीभगवदवतार वृन्द जिस प्रकार अविद्या विनष्ट करके निज स्वरूप प्राप्ति कराते हैं। श्रीनाम में भी उसी प्रकार सामर्थ्य हैं । वरञ्च श्रीनामी से श्रीनाम में अत्यधिक क्षमता का प्रकाश है । मूल श्लोक में “अवशः " पद का उल्लेख है, उसका अर्थ है- अनिच्छा से । यह अर्थ समीचीन है । कारण, अमर कोषकार के मत में ‘वश्’ धातु का अर्थ कान्ति हैं, अर्थात् इच्छा है । उस में भी नाम त्रिविध हैं, (१) जन्मानुरूप नाम – देवकीनन्दन प्रभृति, (२) गृणानुरूप नाम - भक्तवत्सल प्रभृति, (३) वर्मानुरूप नाम - गोवर्द्धनधर प्रभृति ॥

श्रीगर्भोदकशायी को कहे थे ॥ १५२ ॥

T

ब्रह्मा

२६८ १५३

विशुद्ध भक्ति के आभास मात्र से सकल पाप विनष्ट होकर भगवच्चरण कमल के सान्निध्य लाभ होता है—यह तो हो ही सकता है । किन्तु अपराध रूप में प्रसिद्ध जो विशुद्ध भक्ति का आभास है, उस का भी महाप्रभाव दृष्ट होता है - विष्णू धर्म में भगवन्मन्त्र के द्वारा निज रक्षा कारी एक ब्राह्मण के प्रति राक्षस की उक्ति में उसका निदर्शन है-

" त्वामत्तुमागतः क्षिप्तो रक्षया कृतया त्वया । तत्संस्पर्शाच्च मे ब्रह्मन् साध्वेतन्मनसि स्थितम् ॥४२०॥

का सा रक्षा न तां वेद्मि वेद्मि नास्याः परायणम् । किन्त्वस्याः सङ्गमासाद्य निर्वेदं प्रापितः परम् ॥ ४२१॥

॥”

(5)

हे ब्रह्मन् ! मैं तुम्हें भक्षण करने आया था । किन्तु तुमने जो रक्षा विधान किया, उस से मैं पागल बन गया हूँ । उस रक्षा का स्पर्श से मेरे हृदय में पवित्र भावोदय हुआ है । वह रक्षा है क्या ? उस का मूलाश्रय भी क्या है ? मैं उस विषय में कुछ नहीं जानता हूँ । तब मैं यही जान रहा हूँ कि उस रक्षा के सङ्ग प्राप्त कर मेरे हृदय में परम निर्वेद उपस्थित हुआ है । यहाँ समझना होगा कि-ब्राह्मण भक्षण में प्रवृत्त होने के कारण, अपराधी राक्षस के हृदय में भी श्रीभगवन्मन्त्र से रक्षिताङ्ग ब्राह्मण के स्पर्श से राक्षस के हृदय

में परम निर्वेद उपस्थित हुआ था ।

के

[[२६७]]

यथा वा विष्णुधर्माद्य ुदाहृतायाः श्रीभगवद्गृहदीप तैलं पिवन्त्याः कस्याश्चिन्मूषिकाया देवतो मुखोद्धृतवत्तौ दीपे समुज्ज्वलिते सति मुखदाहेन मरणात् राज्ञीत्वं प्राप्य दीपदानादि लक्षण-भक्तिनिष्ठाप्राप्तिरन्ते परमपदप्राप्तिश्च । यथा च ब्रह्माण्डपुराणे जन्माष्टमी-माहात्म्ये कृतजन्माष्टमोकाया दास्या दुःसङ्गेनापि कस्यचित्तत्फलप्राप्तिः । तथा च बृहन्नारदीये तादृश- दुष्टकार्यार्थमपि भगवन्मन्दिरं मार्ज्जयित्वा कश्चिदुत्तमां गतिमवाप, न त्वीदृशत्वं ब्रह्म- ज्ञानस्यापि यथोक्तं ब्रह्मवैवर्ते, -

“विषयस्नेहसंयुक्तो ब्रह्माहमिति यो वदेत् । गर्भवास सहस्रेषु पच्यते पापकृन्नरः ॥ ४२२ ॥

अथ श्रीभगवद्वशोकारितायामपि सकृदल्पप्रयासात्मिकाया अपि भक्तेः कारणता दृश्यते, यथा ब्रह्मपुराणे श्रीशिववाक्यम्, -

अथवा विष्णु धर्मादि ग्रन्थोक्त प्रकरण का अनुसन्धान यहाँ करना चाहिये । उक्त ग्रन्थों में लिखित है - श्रीभगवद् गृह में एक मूषिक रहता था । वह प्रतिदिन श्रीमन्दिर के प्रदीपस्थ तेल पान भी करता था, एक दिन दैव योग से उस प्रदीप की वत्ती उस के मुख में लपेट गई, एवं वत्ती के अनुभाग प्रज्वलित होने से वह अत्यन्त अधीर होकर प्राण त्याग किया। इस से उस को श्रीमन्दिर में दीप दान का फल मिल गया एवं पर जन्म में वह राज महिषी बना । उस महिषी जन्म में बहु दीप प्रदानादि लक्षणा भक्ति निष्ठा भी उस की हुई । अनन्तर देहान्त होने पर वह श्रीभगवद्धाम में प्रस्थान किया था । यहाँ पर भी वह मूषिक तैल पान करता था, अतः वह अपराधी रहा, तथापि प्रदीप को वत्ती दाँतों में लपेट जाने के कारण श्रीमूर्ति के सम्मुख में प्रदीप मुख में लेकर प्राण त्याग करने के कारण श्रीभगवन्मन्दिर में दीप प्रदान रूप भक्ति के आभास से भी श्रीभगवद्धान प्राप्ति का दृष्टान्त प्रदर्शित हुआ। उस प्रकार ब्रह्माण्ड पुराण के जन्माष्टमी व्रत माहात्म्य में लिखा है- जन्माष्टमी व्रत कारिणी दासी के दुःसङ्ग से भी किसी एक व्यक्ति की भगवत् प्राप्ति हुई थी । यहाँ - उक्त दासी का दुःसङ्ग अपराध होने पर भी वह दासी जन्माष्टमी व्रताचरण कारिणी रही, अतः उक्त संज्ञा से अभिहता रही, अतएव उस के सङ्ग प्रभाव से भगवद्धाम प्राप्ति का दृष्टान्त उपस्थापित हुआ । उस प्रकार बृहन्नारदीय में भी दृष्ट होता है- पूर्वं वर्णित दुष्ट कार्य हेतु एक व्यक्ति श्रीभगवन्मन्दिर मार्जन करके भगवद्धाम में गमन किया था । इस में भी जानना होगा, दुष्ट कार्य्यं अपराध है, और उस उद्देश्य से श्रीभगवन्मन्दिर मार्जनभी भक्तयाभास है, उस से भी भगवद्धाम लाभ हुआ था, इस अंश में दृष्टान्त है ।

किन्तु ब्रह्म ज्ञान की इस प्रकार सामर्थ्य कुत्रापि दृष्ट नहीं होती है, कारण, ब्रह्म वैवर्त पुराण में उक्त हैं

“विषयस्नेहसंयुक्तो ब्रह्माहमिति यो वदेत् ।

गर्भवास सहस्त्र ेषु पचयते पापकृन्नरः ॥ १४२२ ।

विषयस्नेह युक्त हृदय में यदि कोई व्यक्ति, मुख से “मैं ब्रह्म हूँ’ इस प्रकार कहता है । अर्थात् अन्तर में विषय के प्रति स्नेह परिपूर्ण है, अथच बाहर कहता है कि -‘मैं ब्रह्म हूँ’ ऐसा होने पर उस पाप से सहस्र जन्म पर्य्यन्त गर्भवास दुःख उस को भोगना पड़ेगा ।

अनन्तर स्वल्प प्रयाससाध्य भक्ति में श्रीभगवान् को वशीभूत करने की सामर्थ्य दृष्ट होती है । इस विषय में ब्रह्म पुराण के श्रीशिववाक्य प्रमाण है ।

[[२६८]]

भोभक्तिसन्दर्भः

“दृष्टः पश्येदहरहः संश्रितः प्रतिसंश्रयेत् । अच्चितश्चार्च्चयेन्नित्यं स देवो द्विजपुङ्गवाः ॥ ४२३ ॥ यथा च विष्णुधर्मे-

“तुलसीदलमात्रेण जलस्य चुलुकेन च । विक्रीणीते स्वमात्मानं भक्तभ्यो भक्तवत्सलः ॥ ४२४ ॥

तदीदृशं माहात्म्यवृन्दं न प्रशंसामात्रमजा मिलादौ प्रसिद्धत्वात् । दर्शितश्च व्यायाः श्रीभगवन्नामकौमुद्यादौ । तथैव नाम्न्यर्थवाद- कल्पनायां दोषोऽपि श्रूयते, “तथार्थवादो हरिनाम्नि” इति हि पाद्म े नामापराधगणने,

“अर्थवादं हरेर्नाम्नि सम्भावयति यो नरः । स पापिष्ठो मनुष्याणां निरये पतति स्फुटम् ॥” ४२५॥ इति कात्यायन -संहितायाम्,

" मन्नाम कीर्त्तनफलं विविधं निशम्य, न श्रद्दधाति मनुते यदुतार्थवादम् ॥

यो मानुषस्तमिह दुःखचये क्षिपामि, संसारघोरविविधातिनिपीड़िताङ्गम् ॥ ४२६ ॥

“दृष्टः पश्येदहरहः संश्रितः प्रतिसंश्रयेत् । अच्चितश्चाच्चयेन्नित्यं स देवो द्विजपुङ्गवाः ॥ ४२३ ॥

महादेव बोले- हे द्विज क्षेष्ठगण ! मैंने देखा है, उन श्रीभगवान् को जो देखता है, श्रीभगवान् भी उस को प्रतिदिन देखते हैं। जो व्यक्ति, श्रीभगवान् को आश्रय करता है, श्रीभगवान् भी उस को सम्यक् - रूप से आश्रय करते हैं, जो व्यक्ति, श्रीभगवान् की पूजा करता है, श्रीभगवान् भी उस की पूजा करते है । * इस से प्रतिपादित हुआ कि - स्वल्पायास साध्य भक्ति ही श्रीभगवान को वशीभूत करती है । विष्णु धर्म :: में लिखित है-

‘तुलसीदलमात्रेण जलस्य चुलुकेन च ।

विक्रीणीते स्वमात्म नं भक्तेभ्यो भक्तवत्सलः ॥ ४२४ ॥

तुलसी दल संयुक्त जल गण्डूष मात्र से ही भक्तवत्सल भगवान् वशीभूत होते हैं । अर्थात् प्रतिदान हेतु उपयुक्त वस्तु को न देखकर स्वयं आत्म विक्रय करते हैं । इस से प्रतिपन्न हुआ कि - अल्पायास साध्य भक्ति के द्वारा श्रीभगवान् वशीभूत होते हैं। यह सब वर्णन विषय - प्रसंशा मात्र नहीं है, कारण, अजामिल प्रभृति में इस का यथार्थ प्रभाव दृष्ट होता है, श्रीभगवन्नाम कौमुदी प्रभृति ग्रन्थ में सविस्तार न्याय समूह उट्टङ्कित हैं । भगवन्नाम में अर्थवाद कल्पना करना बहुविध दोष होते हैं । अर्थात् श्रीनाम माहात्म्य श्रवण करके जो व्यक्ति उस को प्रशंसा वाक्य मानता है, वह विविध दोष युक्त होता है ।

पद्म पुराण के नामापराध गणन प्रसङ्ग में वर्णित है “तथार्थवादी हरिनाम्निकल्पनम् " श्रीहरिनाम महिमा वर्णन को प्रशंसा वाक्य मानना एक अपराध है ।

“अर्थवादं हरेर्नाम्नि सम्भावयति यो नरः ।

स पापिष्ठो मनुष्याणां निरये पतति स्फुटम् ॥” ४२५॥

जो मनुष्य श्री हरिनाम माहात्म्य को प्रशंसा वाक्च मानता है, अर्थात् यह तो प्रशंसा वाक्य है, बढ़ा चढ़ाकर कहना है, इस प्रकार मन में पापिष्ठ है, और वह निश्चय ही घोर नरक में ब्रह्म संहिता में बौधायन के प्रति श्रीपरमेश्वर की उक्ति है-

सोचता है, वह व्यक्ति निखिल मनुष्यों के मध्य में अत्यन्त निपतित होगा। इस प्रकार कात्यायन संहिता में लिखित है,श्रीभक्तिसन्दभः

[[२६६]]

इति ब्रह्मसंहितायां बौधायनं प्रति श्रीपरमेश्वरोक्तौ । ततोऽन्तर्भूत-नामानुसन्धानेष्वन्येषु तद्भजनेषु च सुतरामेवार्थवादे दोषोऽवगम्यते । तदेवं यथार्थ एव तन्माहात्म्ये सत्यपि यत्र सम्प्रति तत्तद्भजन- फलोदयो न दृश्यते, कुत्रचिच्छास्त्रे च पुरातनानामप्यन्यथा श्रूयते, तत्र नामार्थवादकल्पना वैष्णवानादरादयो दुरन्ता अपराधा एव प्रतिबन्धकारणं वक्तव्यम् । अतएवोक्तं श्रीशौनकेन (भा० २।३।२४)-

“तदश्मसारं हृदयं बतेंदं, यद्गृह्यमाणैर्हरिनामधेयैः ।

न विक्रियेताथ यदा विकारो, नेत्रे जलं गात्ररुहेषु हर्षः ॥ " ४२७ ॥ ॥

यथा प्रायेण आधुनिकानाम्, यथा वा (भा० १०।६४।२५ ) -

“ब्रह्मण्यस्य वदान्यस्य तव दासस्य केशव ।

“मन्नाम कीर्त्तनफलं विविधं निशम्य, न श्रद्दधाति मनुते यदुतार्थवादम् ।

यो मानुषस्तमिह दुःखचये क्षिपामि, संसारघोर विविधात्तिनिपीड़िताङ्गम् ॥ ४२६ ॥

जो

मनुष्य, मेरा श्रीनाम सङ्कीर्तन के विविध फलों को सुनकर विश्वास नहीं करता है, प्रत्युत प्रशंसा वाक्य मानता है, मैं उस को सांसारिक विविध घोर दुःखराशि से निपीड़िताङ्ग करके राशि राशि दुःख जलधि में निक्षेप करता रहता हूँ । अतएव जिस के मध्य में श्रीभगवन्नामादिका अनुसन्धान है, इस प्रकार भजनाङ्ग के विषय में भी यदि कोई प्रशंसा वाक्य मानता है तो दोष जो होगा, उस विषय में कोई सन्देह नहीं है । कारण, भजनीय श्रीभगवान् को एवं भजन - श्रीहरि भक्ति को अनुसन्धान न करके भी यदि भक्तयङ्गः अनुष्ठित होता है, तो भी भगवद् भजन का फल स्वरूप भगवत् प्राप्ति अवश्य होती है, इस का वर्णन शास्त्र में है, अतएव अनुसन्धान पूर्वक श्रीनाम सङ्कीतनादि भक्तयङ्ग का अनुष्ठान करने पर फल लाभ से मानव धन्य होगा, इस विषय में कहना ही कया है ? अतएव भजनानुसन्धानमय भक्तचङ्ग की महिमा को सुनकर जो लोक प्रशंसा वाक्य मानते हैं, उन सब का अधः पतन अवश्यम्भावी है । किन्तु यथार्थ ही श्रीनाम सङ्कीर्त्तनादि भक्तयङ्ग का माहात्म्य है, तथापि स्थल विशेष में भक्तचङ्ग का अनुष्ठान करने पर भी फलोदय दृष्ट नहीं होता है । अर्थात् श्रीभगवच्चरणों में प्रीति नहीं होती है । उस समय जानना होगा कि - प्राक्तन अपराध के कारण ही फलोदय नहीं होता है। शास्त्र में उस प्रकार वर्णन भी है । उस में भी यदि नामार्थवाद की कल्पना होती है, तथवा वैष्णवानादर रूप दुरन्त अपराध होता है, तो भजन फलोदय में वह प्रधान प्रतिबन्धक होता है । यह जानना होगा । अतएव भा० २।३।३४ में श्री शौनक ने कहा भी है-

" तदश्मसारं हृदयं वतेदं यद्गृह्यमाणैर्हरिनामधेयैः ।

न विक्रियेताथ यदा विकारो, नेवे जलं गात्ररुहेषु हर्षः ॥ ४२७ ॥

टोका - अश्मवत् सारो बलं काठिन्यं यस्य । विक्रिया लक्षण माह - अथेति । गात्ररुहेषु रोमसु हर्ष उद्गमः ॥

उस हृदय को पाषाणवत् अति कठोर जानना होगा, श्रीहरिनामादि श्रवण से भी जो हृदय विगलित नहीं होता है ॥

इस प्रकार चित्त की अवस्था वर्तमान काल में दृष्ट होती है । भा० १०।६४।२५ में उक्त है ।

[[३००]]

स्मृतिर्नाद्यापि विध्वस्ता भवत्सन्दर्शनार्थिनः । ४२८॥

तदुक्तरीत्याध्यवसित-भक्तेरपि नृगस्य (भा० ६।३।२६) “जिह्वा न वक्ति” इत्यादि यमवाक्य- विरुद्धं यमलोकगमनं प्राप्तवतो विना चार्थवाद - कल्पनामयं भावं श्रुतशास्त्रस्यापि तथ्य सत्यां तादृशमाहात्म्यायां भक्तौ श्रीमदम्बरीषादिवत् सेवाग्रहं परित्यज्य दानकर्माग्रहो न स्यात् । तादृशापराधे भक्तिस्तम्भश्च श्रूयते, यथा पाद्म नामापराधभञ्जनस्त्रोत्रे, -

“नामैकं यस्य वाचि स्मरणपथगतं श्रोत्रमूलं गतं वा

शुद्ध वाशुद्धवर्णं व्यवहित-रहितं तारयत्येव सत्यम् ।

“ब्रह्मण्यस्य वदान्यस्य तव दासस्य केशव ।

स्मृतिर्नाद्यापि विध्वस्ता भवत्सन्दर्शनार्थिनः ॥ ४२८ ॥

हे केशव ! आप गो ब्राह्मण हितकारी परमोदार दाता हैं । जो आप का दास है, एवं आप का की स्मृति कभी विनष्टा नहीं होती है। इस का जाज्वल्यमान दृष्टान्त नृग है ।

दर्शनार्थी है, उस में आप उन्होंने कहा भी है-

अनन्तरम् -

“स त्वं कथं मम विभोऽक्षिपथः परात्मा योगेश्वरैः श्रुतिदृशामल हृद्विभाव्यः । साक्षादधोक्षज उरुव्यसनान्धबुद्धेः स्यान्मेऽनुदृश्य इह यस्य भवापवर्गः ॥ "

अनु जानीहि मां कृष्ण यान्तं देव गति प्रभो । यत्र क्वापि सतश्चेतो भूयान्मे त्वत्पदास्पदम् ॥

भा० ६।३।२६ में उक्त है - जिह्वा न वक्ति भगवद्गुणनामधेयं

चेतश्च न स्मरति तच्चरणारविन्दम् ।

कृष्णाय नो नमति यच्छिर एकदापि

तानानयध्वमसतोऽकृत विष्णुकृत्यान् ॥”

टीका - किञ्च जिह्वत्यादि । यत् येषां जिह्वत्याद्यन्वयः, न कृतं विष्णुकृत्यं भगवद् व्रतं यैः एकदापीति सर्वत्रान्वयः ॥

अर्थात् एकवार भी जिस की जिह्वा श्रीभगवद् गुण कर्म लाभ का कीर्तन नहीं करती है, जिस का चित्त, एक्वार भी श्रीकृष्णचरणारविन्द वा स्मरण नहीं करता है, जिस का मस्तक, एकवार भी श्रीकृष्ण को प्रणाम नहीं करता है, उस को यमपुरी में ले आने के निमित्त दूतों के प्रति यम राज का आदेश है । किन्तु उक्त समस्त आचरण करने पर भी एवं श्रीनामादि में अर्थवाद कल्पना न करने पर भी व्यक्ति विशेष का यदि यम लोक गमन होता है, तो भी भक्ति की महिमा यथावत् अक्षुण्ण रहती है, कारण, वह भक्त, श्रीअम्बरीषादि के समान सेवाव्रती ही होता है, किन्तु कदाचिदपि काम्यकर्माग्रहशील नहीं होता है । भक्ति के समीप में अपराध होने पर भक्ति स्तम्भित हो जाती है। पद्म पुराण के अपराध भञ्जन स्तोत्र में लिखित है-

“नामैकं यस्य वाचि स्मरणपथगतं श्रोत्रमूलं गतं वा शुद्धं वाशुद्धवर्णं व्यवहित-रहितं तारयत्येव सत्यम् ।

[[३०१]]

तच्चेद्द ह–द्रविण – जनता – लोभ– पाषण्ड‍ ध्ये

निक्षिप्तं स्यान्न फलजनकं शीघ्रमेवात्र विप्र ॥ ४२ ॥

देहादि-लोभार्थं ये पाषण्डा गुर्ववज्ञादि- दशापराधयुक्तास्तन्मध्ये इत्यर्थः । स्कान्दे प्रह्लाद संहितायां द्वारकामाहात्म्ये, -

“पूजितो भगवान् विष्णुर्जन्मान्तरशतैरपि । प्रसीदति न विश्वात्मा वैष्णवे चावमानिते ।ः “४३०॥ स्कान्द एवान्यत्र मार्कण्डेय–भगीरथसंवादे,-

" दृष्ट्वा भागवतं दूरात् सम्मुखे नोपयाति हि । न गृह्णाति हरिस्तस्य पूजां द्वादशवार्षिकीम् ॥४३१॥ दृष्ट्वा भागवतं विप्रं नमस्कारेण नार्च्चयेत् । देहिनस्तस्य पापस्य न च वै क्षमते हरिः ॥ ४३२ ॥ ।

एवं बहून्ये वापराधान्तराण्यपि दृश्यन्ते । एवमेव श्रीविष्णुपुराणे शतधनुर्नाम्नो राज्ञो

तच्चेद्द ेह- द्रविण जनता- लोभ-पाषण्डमध्ये

निक्षिप्तं स्याश फलजनकं शीघ्रमेवात्र विप्र ॥ " ४२६ ॥

एक ही श्रीहरिनाम जिस की जिह्वा में स्फुरित होता है, अथवा जिस के स्मरण पदवी को प्राप्त करता है, किंवा श्रवण गोचरीभूत होता है । वह शुद्ध वर्ण से ही अथवा अशुद्ध वर्णोच्चारण से ही उच्चारित होता है । अथवा व्यवहित होकर हो, अथवा व्यवहित रहित होकर ही, उच्चारित होने से उच्चारण कारी को श्रीनाम निश्चय ही पचित्र करता है । किन्तु यदि वह नाम देह पोषण निमित्त, धन लोभ हेतु जनता लोभ हेतु प्रयुक्त होता है, अथवा गुरु अवज्ञा प्रभृति दशनामापराध युक्त व्यक्ति कर्तृक उच्चारित होता है, तो, शीघ्र श्रीकृष्ण प्रीति प्रदान नहीं करता है। किन्तु वहिर्मुखता सम्पादन करता है, यदि दैवाद् महत् कृपा अथवा भगवत् कृपा होती है तो बुद्धि निर्मल होकर नाम ग्रहण होता है उस से नाम ग्रहण का फल श्रीकृष्ण चरणों में प्रीति होती है । स्कन्द पुराण के प्रह्लाद संहितास्थ द्वारका माहात्म्य में लिखित है-

“पूजितो भगवान् विष्णुर्जन्मान्तरशतैरपि ।

प्रसीदति न विश्वात्मा वैष्णवे चावमानिते ॥ ४३०॥

विश्वात्मा भगवान् विष्णु, शत शत जन्म में यदि आराधित होते हैं, तो उस मानव के प्रति विश्वात्मा भगवान् विष्णु प्रसन्न होते हैं, किन्तु वैष्णव को अपमानित करने से उस मानव के प्रति प्रसन्न नहीं होते हैं । स्कन्द पुराण के अन्यस्थान में जो मार्कण्डेय भगीरथ संवाद है, उस में उक्त है-

“दृष्ट वा भागवतं दूरात् सम्मुखे नोपयाति हि । न गृह्णाति हरिस्तस्य पूजां द्वादशवार्षिकीम् ॥४३१॥ दृष्ट वा भागवतं विप्रं नमस्कारेण नार्च्चयेत् । देहिनस्तस्य पापस्य न च वं क्षमते हरिः ॥ " ४३२॥

भगवत् भक्त को दूर से आते हुये देखकर सम्मुख के ओर जो नहीं जाता है, हरि, उसके द्वारा अनुष्ठिन द्वादशवार्षिकी पूजा को अङ्गीकार नहीं करते हैं। भागवत विप्र को देखकर नमस्कार के द्वारा जो उनकी अर्चना नहीं करता है, श्रीहरि, उस मनुष्य के पापों को क्षमा नहीं करते हैं । इस प्रकार अनेक अपराधों का वर्णन शास्त्रों में है। इस प्रकार ही श्रीविष्णु पुराण में वर्णित है। शतधनु नामक एक भगवदाराधन तत् पर राजा थे। किन्तु उन्होंने एकदिन वेद एवं वैष्णव निन्दक व्यक्ति के सहित स्वल्प काल सम्भाषण किया था, उस से राजा कुक्कुर हो गये थे । अतएव भा० १।२।१६ में उक्त है-

[[३०२]]

श्रीभक्तिसन्दर्भ भगवदाराधनतत्परस्यापि वेद- वैष्णवनिन्दकाल्पसम्भाषयैव कुक्कुरा दियोनिप्राप्तिरुक्ता । अतः (भा० ११२।१६) “शुश्रूषोः श्रद्दधानस्य” इत्यादौ, (व्र० सू० ४।१।१) “आवृत्ति रसकृदुपदेशात् " इत्यादौ च पुरुषाणां प्रायः सापराधत्वाभिप्रायेणैवावृत्तिविधानम् । सापराधान. मावृत्त्य पेक्षा चोक्ता पाद्म नामापराधभञ्जनस्त्रोत्र नामोपलक्ष्य-

“नामापराधयुक्तानां नामान्येव हरन्त्यघम् । अविश्रान्तिप्रयुक्तानि तान्येवार्थंकराणि च ॥ ४३३॥

“शुश्रूषोः श्रद्धधानस्य वासुदेव कथारुचिः ।

स्यान्महत् सेवया विप्राः पुण्यतीर्थ निषेवणात् ॥

टीका - ननु सत्यमेव कर्म निर्मलनी हरिकथारतिः, तथापि तस्यां रुचिर्नोत्पद्यते कि कूर्म्मस्तत्राह शुश्रूषोरिति ॥ पुण्यतीर्थ निषेवणात् निष्पापस्य महत् सेवा स्यात्, तया च तद्धर्म्मश्रद्धा, ततः श्रवणेच्छा, ततो रुचिः स्यादित्यर्थः ।

निष्पाप मानव, तीर्थ भ्रमण करने पर महत् सङ्ग उसका होता है, निष्पाप व्यक्ति के द्वारा हो महत् सेवा होती है, उस से महत् के आचरित धर्म में महत्व बोध होता है, अनन्तर उन महत् के मुख से उनके आचरित धर्म के विषय में श्रवणेच्छा होती है । अनन्तर धर्म में रुचि होती है । अतएव निष्पाप होना आवश्यक है, अन्यथा प्रतिकूल आचरण से मानव उत्तम वस्तु लाभ से वञ्चित हो जाता है । ब्रह्मसूत्र ४।१।१ में उक्त है-

“आवृत्तिरसकृदुपदेशात् "

मानवगण प्रायशः अपराधी होते हैं, जो अपराधी नहीं हैं, उन के पक्ष में एकवार अनुष्ठान से फलोदय होता है, किन्तु अपराधी के पक्षमें श्रवणादि अङ्गों की आवृत्ति की आवश्यकता है, कारण, असकृत् अनुष्ठान हेतु श्रुति का विधान है । स च एषोऽणिमा, ऐतदात्म्यमिदं सर्वं तत् सत्यं स आत्मा, तत्त्वमसीत्यादि श्रुति समूह का कथन नौ वार हुआ है। एकवार अनुष्ठित होने पर फल होता है, इस प्रकार शास्त्र वचन के साथ इस का विरोध नहीं है, कारण, उक्त वचन अदृष्ट फल विषयक है, और प्रस्तुत प्रकरण आत्मलाभ रूप प्रत्यक्ष फल विषयक होने क े कारण, धान्य को तूष रहित करने के निमित्त जिस प्रकार पुनः पुनः अवघात करना आवश्यक होता है, वैसे ही आत्म साक्षात् कार पर्य्यन्त पुनः पुनः श्रवणादि की आवृत्ति होनी चाहिये भा० १।१।३ में वर्णित है-

" निगम कल्पतरोर्गलितं फलं शुकमुखादमृतद्रवसंयुतम् ।

॥”

पिवत भागवतं रसमालयं मुहुर हो रसिका भुवि भावुकाः ॥ "

यह श्रीभागवत है, और इसका पान पुनः पुनः निरन्तर ही करें। इस में एक कण भी अपेय नहीं है, मोक्ष होने पर भी भगवत पान का विराम नहीं है, स्वर्गादि सुख की भाँति मुक्त गण इस को परित्याग नहीं करते हैं, किन्तु सर्वदा सेवन करते हैं। आत्माराम गण भी निरन्तर श्रीहरि की उपासना करते रहते हैं । अपराधी व्यक्तियों के पक्ष में पुनः पुनः भक्तयङ्ग की आवृत्ति करना आवश्यक है । पद्म पुराण के नामापराध भञ्जन स्त्रोत में नाम को उद्देश्य करके उक्त है-

“नामापराध युक्तानां नामान्येव हरन्त्यधम् ।

अविश्रान्तिप्रयुक्तानि तान्येवार्थंकराणि च ॥ ४३३॥

नामापराध युक्त व्यक्ति के पक्ष में नामापराध क्षालन हेतु अपर उपायावलम्बन की आवश्यकता नहीं है, अविश्रान्त श्रीहरिनाम ग्रहण से अपराध विनष्ट होता है, एवं नाम का फलोदय भी होता है । एतज्जन्य ही त्रैलोक्य सम्मोहन तन्त्रादि में अष्टादशाक्षर मन्त्र की आवृत्ति विहित है-

[[३०३]]

एतदपेक्षयैव वलोक्य - सम्मोहनतन्त्रादावष्टादशाक्षरादेरावृत्तिविधानम्, यथा-

“इदानीं शृणु देवि त्वं केवलस्य मनोविधिम् । दशकृत्वो जपेन्मन्त्रमापत्करूपेन मुच्यते ॥ ४३४ ॥ सहस्रजप्तेन तथा मुच्यते महतैनसा । अयुतस्य जपेनैव महापात्तव नाशनम् ॥ ४३५॥ तथा ब्रह्मवैवर्त्ते नामोपलक्ष्य-

“नन् ब्राह्मणमत्यन्तं कामतो वा सुरां पिवन् ।

कृष्ण कृष्णेत्यहोरात्र सङ्कीर्त्य शुचितामियात् ॥ ४३६॥

अनापराधालम्बनत्वेनैव वर्त्तमानानां पापवासनानां सहैवापराधेन नाश इति तात्पर्य्यम् । एतादृश-प्रतिबन्धापेक्षयैवोक्तं विष्णुधर्मे-

“रागादिदूषितं चित्तं नास्पदं मधुसूदने । बध्नाति न रति हंसः कदाचित् कई माम्बुनि ॥४३७॥ न योग्या केशवं स्तोतुं वाग्दुष्टा चानृतादिना । तमसो नाशनायालं नेन्दोलेखा घनावृता ॥ ४३८ ॥

“इदानीं शृणु देवि त्वं केवलस्य मनोविधिम् ।

दशकृत्वो जपेन्मन्त्रमापत्कल्पेन मुच्यते ॥ ४३४ ॥ सहस्रजप्त ेन तथा मुच्यते महतैनसा ।

अयुतस्य जपेनैव महापातकनाशनम् ॥ ४३५ ॥

हे देवि ! मैं अष्टादशाक्षर मन्त्रविधि को कहता हूँ । सुनो। दशवार मन्त्र जप करने से बह आपत से मुक्त होता है । सहस्र मन्त्र जप करने से महापाप से मुक्त होता है अयुत जप करने से महापातक विनष्ट होता है। ब्रह्म वैवर्त में नामोपलक्ष्य में वर्णित है-

“हतन् ब्राह्मणमत्यन्तं कामतो वा सुरां पिवन् ।

कृष्ण कृष्णेत्यहोरा त्वं सङ्कीर्त्य शुचितामियात् ॥ ४३६ ॥

ब्राह्मण हत्या करके अथवा स्वेच्छा से मदिरापान करके जो पाप होता है-उस की शुद्धि अहोरात्र कृष्ण कृष्ण कीर्तन करने से होती है

अपराध को अवलम्बन करके ही वर्त्तमान पाप वासना होती है, नाम सङ्कीर्तन के द्वारा अपराध के सहित पाप वासना भी विनष्ट हो जाती है, यही उक्त प्रकरण का तात्पर्य है ।

अतएव इस प्रकार प्रतिबन्धक की अपेक्षा करके ही विष्णु धर्म में वर्णित है -

“रागादिदूषितं चित्तं नास्पदं मधुसूदने ।

बध्नाति न रति हंसः कदाचित् कर्द्दमाम्बुनि ॥४३७॥ न योग्या केशवं स्तोतुं वाग्दुष्टा चानृतादिना । तमसो नाशनायालं नेन्दोर्लेखा घनावृता ॥ ४३८ ॥

विषयासक्ति प्रभृति दोषों से दुष्टचित्त, भगवान् श्रीमधुसूदन में स्थिर नहीं होता है। हंस कभी भी कर्दमयुक्त जल में प्रीत नहीं होता है. मिथ्या के द्वारा जो वाक्य दूषित है, वह कभी भी केशव का स्तव करने में सक्षम नहीं होता है । जिस प्रकार चन्द्र कला यदि मेघ द्वारा आच्छन्न होती है तो अन्धकार विनष्ट नहीं कर सकती है ।

सिद्ध महापुरुष वृन्द के भगवद् भजनानु शीलन, परमानन्द लाभ हेतु होता है, अर्थात् वे सब जितने ही भक्तचङ्ग का अनुशीलन करते रहते हैं, उतने ही अपूर्व आनन्दास्वादन लाभ करते रहते हैं । असिद्ध

में

[[३०४]]

सिद्धानामा वृत्तिस्तु प्रतिपदमेव सुखविशेषोदयार्था, असिद्धानामावृत्तिनियमः फलपर्य्याप्ति- पर्य्यन्तः, तदन्तरायेऽपराधावस्थिति वितर्कात् । यतः कौटिल्यम्, अश्रद्धा, भगवह्निष्ठाच्यावकः- वस्त्वन्तराभिनिवेशः, भक्तिशैथिल्यम्, स्वभत्तः चादिकृतमानित्वमित्येवमादीनि महत् सङ्गाद- लक्षण-भक्तचापि निवर्त्तयितुं दुष्कराणि चेर्त्ताहि तस्यापराधस्यैव कार्य्याणि तान्येव च प्राचीनस्य तस्य लिङ्गानि । अतएव कुटिलात्मनामुत्तममपि नानोपचारादिकं नाङ्गीकरोति भगवान् यथा दूत्यगतो दुर्योधनस्य । आधुनिकानाञ्च श्रुतशास्त्राणामप्यपराध दोषेण श्री भगवति श्रीगुरौ तद्भक्तादिषु चान्तरानादरादावपि सति वहिस्तदचनाद्यारम्भः कौटिल्यम् । अतएव कुटिलमूढानां भजनाभासादिनापि कृतार्थत्वमुक्तम्, कुटिलानान्तु भक्तयनुवृत्तिरपि न

भक्त वृन्द के निमित्त पुनः पुनः भक्तयङ्ग अनुशीलन का जो नियम कथित है, वह भक्ति का मुख्य फल रूप श्रीभगवत् स्फूति साधक हृदय में होने के निमित्त है । कारण, साधक का जब अनुभव होगा कि श्रीनामादि भक्तयङ्ग का अनुष्ठान यथावत् सम्पन्न करने पर भी अभीष्ट देव की स्फूर्ति जब सधक हृदय नहीं होती है, तब जानना होगा कि - श्रीभगवत् स्फूर्ति का बाधक अपराध हृदय में विद्यमान है । कारण, उस से (१) कौटिल्य, (२) अश्रद्धा, (३) भगवद् विषयक निष्ठा शैथिल्य कारक भिन्न वस्तु में अभिनिवेश, (४) भजन में शैथिल्य, (६) एवं भजनादि जन्य अभिमान प्रभृति होते हैं। महत् सङ्गादि स्वरूप भक्तचङ्ग अनुष्ठान के द्वारा भी जब उक्त दोष समूह अपसारित नहीं होते हैं. तब जानना होगा कि - श्रीनामापराध के कार्य्य स्वरूप उक्त दोष समूह को जानना होगा । यदि वर्त्तमान जन्म में उस प्रकार कोई अपराध नहीं हुआ है, अथच उक्त दोष समूह हैं, तब समझना होगा कि पूर्व जन्मार्जित अपराध के कारण ही उक्त कौटिल्यादि दोष समूह की विद्यमानता हृदय में है । अर्थात् साधक जिस समय अनुभव करेगा कि- विविध भजनानुष्ठान यथावत् करने पर भो हृदय की कुटिलता, (१) भक्ति, भक्त, भगवान् में अविश्वास, (२) भजन निष्ठापहारक विषयान्तर में अभिनिवेश (३) भजन विषय में शैथिल्य (४) स्वयं भजन करते रहते हैं - इस प्रकार अभिमान (५) यह पाँच दोषों का अवसारण हृदय से नहीं हो रहा है, तब जानना होगा कि - वर्तमान जन्म में अथवा प्राक्तन जन्मान्तर में अनुष्ठित प्रचुर अपराध सञ्चित हैं, ऐसा न होने से ही महत सङ्ग एवं महत् मुख से श्रीहरि कथा श्रवणादि करने से भी हृदय से उक्त पञ्चदोष द्विति क्यों नहीं होते हैं ? अतएव कुटिल चित्त युक्त व्यक्ति के द्वारा प्रदत्त विविध उपचार भी श्रीहरि अङ्गीकार नहीं करते हैं । उस का दृष्टान्त - महाभारतीय उद्योग पर्व में है, कुरुपाण्डव युद्धारम्भ होने के पहले स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण, दूत होकर सन्धिकार्य के निमित्त हस्तिनापुर में उपस्थित होने के समय कुटिलमति दुर्योधन स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण को वशीभूत करने के निमित्त राजपथ के उभय पाश्र्ववर्ती गृह समूह को सुसज्जित करके प्रतिगृह में श्रीकृष्ण नाम सङ्गीर्तन प्रभृति भक्तचङ्ग का अनुष्ठान कराये थे । किन्तु कुटिलता प्रदुक्त यह सब अनुष्ठान होने के कारण, उस को देखना सुनना न पड़, तज्जन्य श्रीकृष्ण नयन मुद्रित करके एवं कर्ण में अङ्गुलि प्रदान पूर्वक राज सभा में उपस्थित हुये थे । अतएव कपटता पूर्वक भगवत् भजनानुष्ठान करने से श्रीभगवान् प्रसन्न नहीं होते हैं, एवं निज हृदय भी अस्वच्छ रहता है । वर्त्तमान शरीर में अवस्थान कर अपराधानुष्ठान कारी जन वृन्द भक्ति शास्त्र श्रवणादि करने पर एवं बाहर भगवान् एवं श्रीगुरुदेव, तथा भगवद् भक्त के प्रति अर्चनादि अनुष्ठान करने से भी चित्त में अनादर प्रभृति दोष विद्यमान होने के कारण, उक्त अनुष्ठान समूह को कौटिल्य जानना होगा । एतज्जन्य अकुटिल मूर्खगण भजनादि के आभास मात्र से भी कृतार्थ होते हैं । इस का वर्णन पहले हुआ है । कुटिल चित्त वृत्ति सम्पन्न

श्रीभक्ति सन्दर्भः

भवतीति स्कान्दे श्रीपराशरवाक्ये दृश्यते, -

[[३०५]]

" न ह्यपुण्यवतां लोके मूढ़ानां कुटिलात्मनाम् भक्तिर्भवनि गोविन्दे कीर्त्तनं स्मरणं तथा ॥ ४३९ ॥ इति ।

एतदपेक्षयोक्तं विष्णुधमें-

“स यं शतेन विघ्नानां सहस्र ेण तथा तपः । विघ्नायुतेन गोविन्दे नृणां भक्तिनिवार्य्यते ॥ ४४० ॥ इति । अतएवाह (भा० ३ १६।३६)

(१५३) “तं सुखाराध्यमृजुभिरनन्य शरणैर्नृ भिः ।

स्पष्टम् ॥ श्रीसूतः ॥

व्यक्ति

वृन्द के

प्रकाशित है-

॥”

कृतज्ञः को न सेवेत दुराराध्यमसाधुभिः ॥ ४४१॥

द्वारा भक्ति की अनुवृत्ति नहीं हो सकती, स्कन्द पुराण के श्रीपराशर के कथन में

“न ह्यपुण्यवतां लोके मूढ़ानां कुटिलात्मनाम् । भक्तिर्भवति गोविन्दे कीर्त्तनं स्मरणं तथा ॥ " ४३६॥

)

अपुष्पवान् कुटिल चित्त मूर्ख वृन्द की भक्ति श्रीगोविन्द चरणों में नहीं होती है, एवं कीर्त्तन स्मरण भी नहीं होते हैं । इस प्रकार कौटिल्य को लक्ष्य करके ही विष्णु धर्मोत्तर में लिखित है-

“सत्यं शतेन विघ्नानां सहस्र ेण तथा तपः ।

विघ्नायुतेन गोविन्दे नृणां भक्तिनिवाय्र्यते ॥ " ४४०

शत शत विघ्न के द्वारा सतता विनष्ट होती है, सहस्र सहस्र विद्या से तपस्या नष्ट होती है, एवं अयुत विघ्नों से श्रीगोविन्द के चरणारविन्दों में मनुष्य वृन्द की भक्ति रुद्धा हो जाती है । अतएव श्रीमद्भागवल के ३।६।३६ में कहा गया है-

(१५३) “तं सुखार ।ध्यमृजुभिरनन्यशरणैर्नृभिः ।

कृतज्ञः को न सेवेत दुराराध्यमसाधुभिः ॥ ४४१ ॥

क्रमसन्दर्भ – तमिति । ऋजुभिरकुटिलेरतएवानन्यशरणें, असाधुभिस्ततोऽन्य दृशैः, कृतज्ञः शरणागति मात्रे सुखाराध्यता विज्ञः तस्य पुरुषार्थ चतुष्टय दातृत्वात् । तदेवं सति को न सेवेत ? सेवापरित्यागेन तत्तदन्यद्वाञ्छेदित्यर्थः ।

श्रीसुत - श्रीशौनक को कहे थे - सरलता एवं अनन्य भाव से शरणागत मानवों के पक्ष में सुखाराध्य श्रीकृष्ण की सेवा न करके कौन मानव रह सकता है ? किन्तु अपवित्र कुटिलात्मा मनुष्यों के पक्ष में श्रीभगवान् श्रीकृष्ण दुराराध्य हैं । अभिप्राय यह है कि- जब तक हृदय में कुटिलता रहती है, तब तक उस हृदय को असाधु कहते हैं, असाधु हृदय के द्वारा अनुष्ठित भजन से भगवान् सन्तुष्ट नहीं होते हैं । किन्तु सरल हृदय से एवं एकान्त भाव से भगवच्चरणों में शरण ग्रहण करके अल्प भजन करने से भी भगवान् सन्तुष्ट होते हैं । कारण, वह साधु है, एवं उस के द्वारा अनुष्ठित भक्ति के आचरण से भगवान् गोविन्द

सन्तुष्ट होते हैं ।

श्रीसूत कहे थे ॥ १५३ ॥

[[३०६]]