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तथा शक्तयाभासस्यापि सर्व्वपापक्षयपूर्वक श्रीविष्णुपद प्रापकत्वं यथा बृहन्नारदीये कोकिला-मानिनोर्मदिरोन्मत्तयोर्धृतकुचीर खण्डदण्डयोर्जीर्णभगवन्मन्दिरे नृत्य तोर्ध्वजारोपण- फलप्राप्तया तादृशत्वं जातम् । तथा व्याधहतस्य पक्षिणः कुवकुरमुखगतस्य तत्पलायनवृत्त्या भगवन्मन्दिर परिक्रमण- फलप्राप्तया तादृशत्वप्राप्तिरिति क्वचित्तत्र महाभक्तिप्राप्तिश्च, यथा बृहन्नारसिंहपुराणे श्रीप्रह्लादस्य तस्य प्राग्जन्मनि वेश्यया सह विवादेन श्रीनृसिंहचतुर्द्दश्यां दैवादुपवासः सम्पन्नो जागरणञ्चेति तथा चाह (भा० ३।६।१५) -

(१५२) “यस्यावतारगुणकर्मं विडम्बनानि नामानि येऽसुविगमे विवशा गृणन्ति ।

तेऽनेक जन्मशमलं सहसैव हित्वा संयान्त्यपावृतमृतं तमजं प्रपद्य े ॥ ४१६॥ असुविगमेऽपीति तदानीन्तनमानित्वम शुद्ध वर्णत्वञ्च व्यञ्जितम् । विवशा इति तदिच्छां

की पवित्रता की वार्त्ता को श्रीनृसिंह देव कहे थे ।

श्रीनृसिंह - श्रीमह्लाद को कहे थे ॥ १५१ ॥

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इस के पहले परम पद प्राप्ति हेतु जिस प्रकार परम्परा क्रम से श्रीभगवद् भक्ति को ही कारण कहा गया है । उस प्रकार भक्ति के आभास से भी सर्व पाप क्षय पूर्वक श्रीविष्णु पद प्राप्ति होती है । बृहन्नारदीय पुराण में लिखित है-मदिरापानोन्मत्त होकर व्यक्ति द्वय, निज को कोकिल मानकर एक दण्ड में वस्त्रखण्ड बंध कर एवं उस को हाथ में लेकर एक भग्न श्रीविष्णु मन्दिर मे नृत्य किये थे, उस से श्रीविष्णु मन्दिर में ध्वजारोपण का फल उन दोनों को मिल गया । अपर वृत्तान्त है-एक पक्षी, व्याध के शराघात से भूतल में निपतित होने पर एक कुक्कुर उस पर बिद्ध पक्षी को मुख से लेकर पलायन परायण होने पर श्रीविष्णु मन्दिर की परिक्रमा उस से अनायास हो गई थी। किन्तु शराहत पक्षी का श्रीविष्णु मन्दिर परिकमण उस से सम्पन्न होने से परिक्रमण जनित फल लाभ उस पक्षी को हो गया, उस से वह पक्षी श्रीविष्णु लोक गमन किया था। स्थान विशेष में भक्ति के आभास मात्र से भी महाभक्ति का फल लाभोल्लेख दृष्ट होता है । बृहन्नारसिंह पुराण में लिखित है- महाभागवत प्रह्लाद, पूर्व जन्म में वेश्यासक्त था, एक दिन वेश्या के सहित प्रह्लाद की लड़ाई हो गई, उस दिन श्रीनृसिंह चतुर्दशी थी, अज्ञात सार से कलह के कारण प्रह्लादका उस दिन उपवास एवं रात्रि जागरण भी हो गया, उसके फल स्वरूप पर जन्म में प्रह्लाद होकर उनका जन्म लाभ हुआ। भक्ति के आभास से ही जो सर्व पाप क्षय होकर श्रीभगवत् प्राप्ति होती है, उस विषय में ३।६।१५ में लिखित है-

(१५२) “यस्यावतारगुणकामं विडम्बनानि नामानि येऽसुविगमे विवशा गृणन्ति ।

तेऽनेकजन्मशमलं सहसैव हित्वा संयान्त्यपावृतमृतं तमजं प्रपद्ये ॥४१६॥

टीका - नामग्रहण मात्रतः, कैवल्यप्रदत्वेनैश्वय्यं व्यञ्जयन् नमस्करोति यस्येति । अवतारादीनां विडम्बनमनुकरणमस्ति येषु । तत्रावतार विडम्बनानिदेवकी नन्दनेत्यादीनि गुण विडम्बनानि सर्वज्ञों भक्तवत्सल इत्यादीनि । कर्म विडम्बनानि-गोवर्द्धनोद्धरणः कंसारातिरित्यादीनि । असु विगमेऽपि विवशा अपि, गृणन्ति केवलमुच्चारयन्ति । शमलं पापम् । अपावृतं निरस्तावरणम् । ऋतं ब्रह्म, प्राप्नुवन्ति ।

श्री ब्रह्मा, गर्भोदशायी भगवान् को कहे थे । हे प्रभो ! जिसने जन्मभर आप का नाम स्मरण नहीं किया है, अथच केवल प्राणान्त के समय यदि अनिच्छा से भी आप के अनन्तनामो के मध्य में कोई एक

[[२६६]] विनापि केनचित् कारणान्तरेणापीत्यर्थः, “वश कान्तौ” इत्यमरः । तादृशशक्तित्वे हेतुमाह, अवतारेति । अवतारादिसदृशानि तत्तत्तुल्य शक्तीनीत्यर्थः ।

तत्तत्तुल्यशक्तीनीत्यर्थः । तत्रावतारविडम्बनानि नृसिंहेत्यादीनि, गुणविडम्बनानि भक्तवत्सलेव्यादीनि, कर्मविडम्बनानि गोवर्द्धनधरेत्यादीनि च ॥ ब्रह्मा श्रीगर्भोदकशायिनम् ॥