१५१

२६२ १५१

अतएवोक्तं श्रीविष्णुधर्मोत्तरे,-

“जीवितं विष्णुभक्तस्य वरं पञ्चदिनानि वै । न तु कल्पसहस्राणि भक्तिहीनस्य केशवे ॥ ४९२ ॥

[[२६१]]

अतो यदत्र तृतीये (भा० ३।३१।१२- २१) गर्भस्थस्य जीवस्य भगवतः स्तुतिः श्रूयते, तस्यैव च संसारोऽपि वर्ण्यते, तत्त्रोच्यते-जात्येकत्वेनैक बद्वर्णन मिति,

तत्त्रोच्यते-जात्येकत्वेनैकवद्वर्णन मिति, वस्तुतस्तु कश्चिदेव जीवो

क्षणात् संसार से विमुक्त हो जाता है। कारण, श्रीनाम उच्चारण से निखिल भय के मूलभूत महाकाल भी भीत होते हैं ।

प्रकरण प्रवक्ता श्रीशौनक हैं ॥१४६॥

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२६३ १५०

उस प्रकार ही भा० ६।१६।४४ में लिखित हैं-

(१५०) " न हि भगवन्नघटितमिदं त्वद्दर्शनान्नृणामखिलपापक्षयः ।

यन्नाम– सकृच्छ्रवणात्, पुक्कशोऽपि विमुच्यते साक्षात् ॥ ४११॥

टीका- एवम्भूतस्य भागवत धर्म्म प्रवर्त्तकस्य तवदर्शनात् सर्वपापक्षयो भवतीति कि चित्रमित्याह- नहीति ॥

चित्र केतु महाराज श्रीसङ्कर्षण देव को कहे थे, हे भगवन् ! आप का दर्शन करने से मानव मात्र को निखिल पाप क्षय होते हैं, यह कुछ भी आश्चर्य कर नहीं है। कारण, आपके नाम का एकमात्र श्रवण से नीच जाति पुक्कश भी माया बन्धन से साक्षात् विमुक्त हो जाता 1

२६४ १५१

अतएव श्रीविष्णु धर्मोत्तर में कथित है—

चित्रकेतु श्रीसङ्घर्षण को कहे थे ॥ १५० ॥

“जीवितं विष्णुभक्तस्य वरं पञ्चदिनानि वै ।

न तु कल्पसहस्राणि भक्तिहीनस्य केशवे ॥ " ४१२ ॥

स्वल्पमात्र काल भी भगवद् भजन करने से समस्त जीवन सफल होता है । जो मानव, श्रीविष्णु का भजन करता है, उस के ५ दिनकी आयु भी धन्य है । किन्तु श्रीकेशव में भक्ति हीन जन के सहस्र कल्प जीवन धारण भी अधन्य है । इस प्रसङ्ग में भागवत के तृतीय स्कन्धोक्त ३।३१।१२-२१ पर्यन्त गर्भस्थ जीव के द्वारा जो भगवत् स्तुति है- एवं उसका संसार भी वर्णित है उसका समीचीन समाधान होना आवश्यक । अर्थात् गर्भस्थित जीव की भगवत् स्तुति श्रुत है–पुनर्वार भगवत् स्तव कारी जीव का संसार दुःख भी वर्णित है । ऐसा होने पर स्वल्पकाल भगवद् भजन करने से ही जीव संसार से मुक्त होता है - इस का प्रचुर प्रमाण प्रदर्शित हुआ है । अथच जननी गर्भ में रहकर जीव, दुःख निवृत्ति हेतु भगवान् का स्तव करता है, पुनर्वार वह जीव भूमिष्ठ होकर श्रीभगवान् को भूल जाता है, एवं संसार वासना से अबद्ध हो जाता है । भागवत के तृतीय स्कन्धोक्त प्रकरण, एवं अन्यान्य पुराण संहिता वचनों का उक्त सिद्धान्त के सहित असामञ्जस्य ही होता है, इस का सुष्ठु समाधान क्या है ? अर्थात् पहले कहा गया है- जो व्यक्ति, एक वार मात्र भगवान् को कहता है कि मैं आपका हूँ । श्रीहरि उसको मायाबन्धन से मुक्त करते हैं,

[[२९२]]

भाग्यवान् भगवन्तं स्तौति, स च निस्तरत्यपि, न तु सर्व्वस्यापि भगवज्ज्ञानं भवति । तथा च नैरुक्ताः पठन्ति (१३-१६) “नवमे सर्व्वाङ्ग सम्पूर्णो भवति” इति पठित्वा, “मृतश्चाहं पुनर्जातो जातश्चाहं पुनर्मृतः” इत्यादि तद्भावना पाठानन्तरम्, -

“अवाङ्मुखः पीड्यमानो जन्तुभिश्च समन्वितः ।

सांख्यं योगं समभ्यसेत् पुरुषं वा पञ्चविंशकम् ॥४१३

ततश्च दशमे मासि प्रजायते” इत्यादि ।

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सर्व्वस्वप्यवस्थासु भक्तेः समर्थत्वन्तु वर्णितम् । भेदेऽप्येकवद्वर्णनमन्यत्रापि दृश्यते, (भा० ३।११।३५) तृतीये यथा पाद्मकल्प सृष्टिकयनेऽपि श्रीसनकादीनां सृष्टिः कथ्यत इति ।

इस कथन का वास्तविक समाधान क्या ? समाधान हेतु कहते हैं- उच्यते - भगवदुन्मुख एवं भगवद् वहिर्मुख भेद से जीव द्विविध होते हैं, यह द्विविध जीव में धर्मगत पार्थक्य होने पर भी जाति गत पार्थक्य नहीं है, इस अभिप्राय से ही उभय विध जीव को जाति साम्य से एकत्व दृष्टि से एक रूप कहा गया वास्तविक तत्थ्य यह है कि- किसी साधु सङ्ग वा साधु कृपा पाप्त सौभाग्यवान् जीव ही गर्भ यातना से प्रपीड़ित होकर श्रीभगवान् का स्तव करता है। एवं श्रीभगवच्चरणों में प्रपन्न होता है। वह जीव ही माया बन्धन से मुक्त होता है, किन्तु समस्त जीवों की भगवत् स्मृति गर्भ में नहीं होती है, न तो वह श्रीभगवान् का स्तव ही करता है । निरुक्तवादिवृन्द कहते हैं-नवममास में गर्भस्थ शिशु के सर्वाङ्ग सम्पूर्ण होते हैं, इस प्रकार पाठ करके “मृतश्चाहं पुनर्जातो जतश्चाहं पुनर्मृतः” अर्थात् मैं मरकर पुनर्वार जन्मग्रहण किया एवं जन्म ग्रहण कर पुनर्वार मर रहा हूँ । इत्यादि गर्भस्थ जीव की भावना का पाठ करके कहते हैं ।

“अवाङ्मुखः पीड्यमाणो जन्तुभिश्च समन्वितः । सांख्यं योगं समभ्यसेत् पुरुषं वा पञ्चविंशकम् ॥

ततश्च दशमे मासि प्रजायते” ॥४१३॥

अर्थात् जीव, गर्भ में अधोमुख में रहकर क्षुद्र क्षुद्र कीट द्वारा वेष्टित एवं पीड़ित होकर सांख्य योग अभ्यास करता है, अनन्तर दशम मास में जन्म ग्रहण करता है, इत्यादि उक्ति में ‘पुरुषं वा’ यहाँ ‘वा’ शब्द का उल्लेख होने के कारण कतिपय जीवों का श्रीभगवद् विषयक ज्ञानोदय होता है—यह ज्ञात होता है । अर्थात् समस्त जीवों की गर्भ में श्रीहरि स्मृति नहीं होता है, भक्ति की सामर्थ्य - तो सर्वावस्था में अव्याहत है ।

भगवदुन्मुख एवं भगवद्विमुख रूप से द्विविध जीव का विभाग एवं तज्जन्य वलेश अङ्गीकार – इत्यादि जीव गत भेद वर्णन विषय में प्रमाण क्या है, जिस से जाति गत ऐवच रूपेण वर्णन होने पर भी अवस्थान भेद होता है ? उत्तर में कहते हैं - भा० ३।११।३५ में उक्त नियम उक्त है-

“सनकञ्च सनन्दञ्च सनातनमथात्मभूः ।

सनत् कुमारञ्चमुनीन् निष्क्रिय नूदूर्ध्वरत सः ॥”

टीका - यद्यपि प्रतिकल्पं सनकादि सृष्टिर्नास्ति, तथापि ब्रह्म सर्गत्वादिहोच्यते । वस्तुतस्तु मुख्य सर्गादय एव प्रति कल्पं भवन्ति, सनकादयस्तु ब्राह्म कल्प सृष्टा एवानुवर्त्तन्ते ।

पारस्परिक भेद विद्यमान होने पर भी उभय को एक रूप से वर्णन किया जाता है। उसका दृष्टान्त

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टीकायाञ्च ब्रह्मकृत–सृष्टिमात्र कथन साभ्येनैकीकृत्योक्तिरियमिति योजितम्, श्रीवाराहा- वतारवच्च, तत्र प्रथम- मन्वन्तरस्यादौ पृथिवीमज्जने ब्रह्मनासिकातोऽवतीर्णः श्रीवराहस्तामुद्धरन् हिरण्याक्षेण संग्रामं कृतवानिति वर्ण्यते । हिरण्याक्षश्च षहुमन्वन्तरस्यावसानजातप्राचेतस- दक्षकन्याया दितेर्जातः । तस्मात्तथा वर्णनं तदवतारमात्रत्व - पृथिवीमज्जनमात्रः वैवय विवक्षयैव घटते, तद्वदत्रापीति । कश्चिदेवान्यो जन्यो जीवः स्तौत्यन्यः संसरतीत्येव मन्तव्यम् । अत्र पूर्व्ववत् परमगतिप्राप्तौ भक्तेः परम्परा-कारणत्वञ्च दृश्यते, बृहन्नारदीये ध्वजारोपणमाहात्म्ये,-

‘यतीन’ विष्णुभक्तानां परिचर्या परायणैः ।

ईक्षिता अपि गच्छन्ति पापिनोऽपि परां गतिम् ॥ " ४१४ ॥ इति ।

उक्त श्लोकस्थ स्वामि पाद कृत टीका में है । अर्थात् भागवत के तृतीय स्कन्ध में पाद्मकल्प सृष्टि प्रसङ्गः श्रीसनकादि की सृष्टि वर्णित है, वहाँ उन्होंने कहा है-

ब्रह्मकृत सृष्टिमात्र कथन साम्येन की कृत्योक्तिरियमिति ।

"

में

अर्थात् ब्रह्मा कर्त्तृक कृत सृष्टिमात्र वर्णनसाम्य हेतु उभय को एक करके कहा गया है । ब्राह्म कल्प में भी सनकादि ऋषि गण की कथा वर्णित है, एवं पाद्म कल्प सृष्टि प्रसङ्ग में भी उन सब की सृष्टि कथा का उल्लेख है । अथच स्वामि पादने कहा है

भी

" यद्यपि प्रतिकल्पं सनकादि सृष्टिर्नास्ति तथापि ब्राह्मसर्गत्वादिहोच्यते ॥” यद्यपि प्रति कल्प में

सनकादि की सृष्टि नहीं है, तथापि ब्राह्म कल्प के अनुसरण से सनकादि की सृष्टि की कथा कही गई है। यहाँ पर श्रीवराह अवतार के समान ही सनकादिक को जानना होगा । श्रीवराह अवतार के प्रम में लिखित है कि - प्रथम स्वायम्भुव मन्वन्तर के आदि भाग में पृथिवी रसातल

प्रमङ्ग गता होने से ब्रह्मा की नासिका से श्रीवराह देव अवतीर्ण होकर पृथिवी को उद्धार किये थे, एवं हिरण्याक्ष के सहित युद्ध किये थे । यह विवरण भागवत के तृतीय स्कन्ध में है । अथच हिरण्याक्ष षष्ठ चाक्षुष मन्वन्तर के अवसान के समय प्रचेतानन्दन दक्ष कन्या दिति से जन्म ग्रहण किया था । अतएव प्रथम मन्वन्तर में पृथिवी का उद्धार, और षष्ठ मन्वन्तर में हिरण्याक्ष बध हुआ, यह लीलाद्वय का काल गत पार्थवय होने पर एक कालोचित लीला के समान वर्णन हुआ है, उद्देश्य यह है कि-पृथिवी उद्धार एवं हिरण्याक्ष बध नामक लोलाद्वय का सम्पादक - श्रीवराह देव ही हैं। इस प्रकार एकत्व दृष्टि से ही लीला द्वय का काल गत पार्थक्य होने पर भी एक कालीय रूप में ही वर्णन किया है । उस प्रकार यहाँ पर भी प्राप्त साधु सङ्ग सौभाग्यवान् किसी जीव गर्भ में श्रीभगवान् का स्तव करता है, अन्य वहिर्मुख जीव संसार दशा को प्राप्त करता है । यद्यपि जोव द्वय की उन्मुखता एवं वहिर्मुखता हेतु भाव गत पार्थवय है, किन्तु चित् स्वरूप गत पार्थक्य उभय में नहीं है । अतएव उन्मुख एवं वहिर्मुख जीव का वर्णन ऐकचरूप से किया गया है । इस प्रकार वर्णन करके बहिर्मुख जीव के हृदय में भगवद् भजन करने की प्रवृत्ति जाग्रत करना ही मुख्य उद्देश्य है । अतएव परम गति ल भ हेतु साक्ष त् रूप से भक्ति ही कारण है, एवं परम्परा रूप से भी परम गति प्राप्ति हेतु भक्ति ही कारण है, इस का वर्णन शास्त्र में है । बृहन्नारदीय पुराणके ध्वजारोपण माहात्म्य में वर्णित है-

“यतीनां विष्णुभक्तानां परिचय-परायणैः ।

ईक्षिता अपि गच्छन्ति पापिनोऽपि परां गतिम् ॥ ४१४ ॥

F

[[२६४]]

एवं विष्णुधमें-

“कुलानां शतमागामि समितीतं न्था शतम् । कारयन् भगवद्धाम नयत्यच्युतलोकाम् ॥४१५॥ ये भविष्यन्ति येऽनीता आकल्पात् पुरुषाः कुले ।

तांस्तारयति संस्थाप्य देवस्य प्रतिमां हरेः । " ४१६ ॥ इति ।

दूतान् प्रति यमाज्ञा चेयम्-

“येनाच्च भगवद्भक्तचा वासुदेवस्य कारिता । नवायुतं तत्कुलजं भवतां शासनादिगम् ॥ ४६७॥ यथाह (भा० ७।१०।१८)

"

(१५१) “ त्रिसप्तभिः पिता पूतः पितृभिः सह तेऽनघ ।

यत् साधोऽस्य गृहे जातो भवान् वै कुलपावनः ॥ ४१८ ॥

त्रिसप्तभिः प्राचीन कल्पगत तदीय-पूर्व्व- पूर्व्व-जन्मसम्बन्धिभिः पितृभिः सह । अस्मिन् जन्मनि हिरण्यकशिपु कश्यप- मरीचि दान एव तत् पितर इति ॥ श्रीनृसिंह, प्रह्लादम् ॥

त्यागी विष्णु भक्त वृन्द के मध्य में परिचर्या परायण वैष्णव वृन्द जिस के प्रति दृष्टि करते हैं, वे सब महापापी होने पर भी परागति को प्राप्त करते हैं । इस प्रकार वर्णन विष्णु धर्म में भी दृष्ट होता है-

“कुलानां शतमागामि समतीतं तथा शतम् । कारयन् भगवद्धाम नयत्यच्युत लोकताम् ॥ ४१५॥

[[1116]]

ये भविष्यन्ति येऽतीता आकल्पात् पुरुषाः कुले ।

तांस्तारयति संस्थाप्य देवस्य प्रतिमां हरेः ॥ ४१६॥

जो श्रीभगवान् के मन्दिर निर्माण करा देते हैं वे, आगामी एवं अतीत शत शत कुल को श्रीहरि लोक प्राप्त कराते हैं । कल्प अर्थात् ब्रह्मा के एक दिवस पर्य्यन्त काल में जो सब व्यक्ति, जन्म ग्रहण करेंगे । एवं जो लोक गत हो गये हैं, श्रीहरि की प्रतिमा संस्थापन करके उन सब को उद्धार करते हैं । इस प्रसङ्ग

दूतगण के प्रति धर्मराज यम का आदेश दृष्ट होता है ।

में

“येनाचर्चा भगवद्भक्तया वासुदेवस्य कारिता ।

नवायुतं तत्कुलजं भवतां शासनातिगम् ॥ " ४१७॥

जो, प्रगाढ़ भक्ति के सहित वासुदेव श्रीकृष्ण की प्रतिमा स्थापन करता है, उस के वंश जात नव अयुत पुरुष - तुम सब के शासन के अतीत हैं, अर्थात् उन सबके प्रति तुम सब का कोई अधिकार नहीं है ।

भा० ७।१०।१८ में श्रीनृसिंह देव श्रीप्रह्लाद को कहे थे—

(१५१) ‘त्रिसप्तभिः पिता पूतः पितृभिः सह तेऽनघ ।

यत् साधोऽस्य गृहे जातो भवान् वै कुलपावनः ॥ " ४१८ ॥

हे निष्पापिन् ! साधो ! तुम्हारे पिता एक विंशति कुलके सहित पवित्र हुये हैं । कारण, कुल पावन तुम- इस हिरण्यकशिपु के घर में जन्म ग्रहण किये हो, यहाँ पर ज्ञातव्य यह है कि - प्रह्लाद के वर्तमान जन्म के पूर्व में एक विशति पुरुष की सम्भावना नहीं है । कारण, प्रह्लाद के पिता हिरण्यकशिपु, पितामह कश्यप, प्रपितामह, मरीचि, वृद्ध प्रपितामह ब्रह्मा है । अतएव श्रीनृसिंह देव के वाक्य असंलग्न हो सकता । अतएव जानना होगा कि - श्रीनृसिंह देव के नित्य लीला परिकर प्रह्लाद के सहित किसी साधन सिद्ध प्रह्लाद का सायुज्य है । उस साधन सिद्ध प्रह्लाद का ही पूर्व कल्प गत पूर्व पूर्व जन्म सम्बन्धान्वित पितृगण

श्रीभक्तिसन्दभः

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