१४९

२५९ १४६

तथा संकुद्भजनेनैव सर्व्वमप्यायुः सफलमित्युदाहृतमेव श्रीशौनक- वाक्येन

“सकृन्मनः कृष्णपदारविन्दयो- निवेशितं तद्गुणरागि यैरिह ।

न ते यमं पाशभृतश्च तद्भूटान्, स्वप्नेऽपि पश्यन्ति हि चीर्णनिष्कृताः ॥ ३६५॥ टीका-भक्तिः स्वल्पापि पुनः त्येवेत्याह, सकृदिति । तस्य गुणेषु रागमात्रमस्ति न तु ज्ञानं यस्य, तन्मनः, तावतैव चीर्णकृतं निष्कृतं प्रायश्चित्तं यैः ।

श्री शुकदेव, श्रीपरीक्षित को कहे थे - स्वल्प परिमाण में अनुष्ठिता भक्ति भी पातकी व्यक्ति को शुद्ध करती है जो एकवार मात्र श्री हरि के गुणों में रुचिसम्पनमन को श्रीकृष्णचरण युगल में निवेश कर सकते हैं, वे स्वप्न में भी यम दर्शन नहीं करते हैं, अथवा, उनके पाशधारी किङ्कर गण को दर्शन नहीं करते हैं । कारण, स्वल्पानुष्ठित भक्ति योग के प्रभाव से ही निखिल पापों का प्रायश्चित्त विहित हुआ है। उक्त श्लोक में “तद् गुणरागि” विशेषण मन का है, उस प्रकार विशेषण प्रदान का उद्देश्य, भक्त वृन्द के दृष्टि पथ में उपस्थित होने का सामर्थ्य विधातक भगवत् स्मरण है, इस को सूचित करना है। उक्त अभिप्राय से ही श्रीसिंह पुराण में लिखत है-

“अहममरगणाच्चितेन धात्रा, यम इति लोक-हिताहिते नियुक्तः ।

हरिगुरुविमुखान् प्रशास्मि मर्त्यान, हरिचरणप्रणतान् नमस्करोमि ॥” ३६६॥

मैं देवगण पूजित ब्रह्मा कर्त्तृक “यम” यह नाम से अभिहित होकर लोक मात्र के हित एवं अहित साधन में नियुक्त हूँ। जो सब मनुष्य, श्रीहरि गुरु चरण विमुख हैं, उन सब को शासन करता हूँ, एवं जो. लोक श्रीहरि चरणों में प्रणत हैं, उन को नमस्कार करता हूँ ॥ ३६६ ॥

उस प्रकार अमृतसारोद्वार में स्कन्द पुराण का वचन भी है-

“न ब्रह्मा न शिवाग्नीन्द्रा नाहं नान्ये दिवौकसः ।

शक्तास्तु निग्रहं कत्तु वैष्णवानां महात्मनाम् ॥ " ३६७॥

ब्रह्मा, शिव, अग्नि, इन्द्र, एवं मैं यम) अन्यान्य देवगण, महात्मा वैष्णव वृन्द को निगृहीत करने में समर्थ नहीं है । ३६७॥

श्रीग्रम - निज दूतवृन्द को कहे थे ॥ १४८ ॥

२६० १४९

उस प्रकार ऐकवार भजन मात्र से ही निखिल आयु-सफल होती हैं, - उस का उल्लेख

[[२८८]]

(भा० २।३।१७) “ आयुर्हरति वै पुंसामुद्यन्नस्तञ्च यन्नसौ” इत्यादि-ग्रन्थेन । एवं भक्तया- भासेनाप्यजामिलादौ पापघ्नत्वं दृश्यते । तथा सर्व्वकर्मादि-विध्वंसपूर्वक परमगतिप्राप्तादप स्वल्पायासेनैव भक्ते, कारणत्वं श्रूयते लघुभागवते -

“वर्त्तमानञ्च यत् पापं यद्भूतं यद्भविष्यति । तत् सर्व्वं निर्दहत्याशु गोविन्दानल कीर्त्तनात् ॥ ३६८ ॥ तथैव च तत्र यथाकथञ्चित् तद्भक्तिसम्बन्धस्य कारणत्वं दृश्यते ब्रह्मवेव-

“स समाराधितो देवो मुक्तिकृत् स्याद्यथा तथा । अनिच्छ्यापि हुतभुक् संस्पृष्टो दहति द्विजाः ॥ ३६६॥ स्कान्दे उमा-महेश्वर-संवादे, -

[[10]]

“दीक्षा-मात्रेण कृष्णस्य नरा मोक्षं लभन्ति वै । किं पुनर्ये सदा भक्तया पूजयन्त्यच्युतं नराः ॥ " ४०० ॥ बृहन्नारदीये -

“अकामादपि ये विष्णोः सकृत् पूजां प्रकुर्व्वते । न तेषां भवबन्धस्तु कदाचिदपि जायते ॥ ४०१ ॥ ॥

ये

(भा० २।३।१७) श्रीशौनक वाक्य में है-

“आयुर्हरति वै पुंसामुद्यन्नस्तञ्च यन्नसौ ।

तस्य यत् क्षणो नीत उत्तमः श्लोक वार्त्तया ॥

टीका - किश्च वृथैव क्षीणमायुरिति । असौ सूर्य्यः उद्यन् उद्गच्छन्, अस्तमदर्शनञ्च यन् गच्छन्, यत् येन, क्षणो नीतः, तस्य आयुऋते वर्जयित्वा वृथैव हरति ॥

र्घ्य, उदयास्त के द्वारा पुरुष को आयु को

हरण करते हैं, किन्तु जो मानव, श्रीहरि कथा प्रसङ्ग

में क्षण काल अति वाहित करते हैं, उनकी आयुः को हरण नहीं करते हैं

अजामिल प्रभृति में तो भक्ति के आभास मात्र से भी निखिल पाप विनष्ट होने का दृष्टान्त दृष्ट होता है । स्वल्पायास द्वारा अनुष्ठित भक्ति, समस्त अर्जित पाप कर्म को विनष्ट करके परमगति प्रदान करती है, उस का वर्णन भी लघुभागवत में है ।

“वर्तमानश्च यत् पापं यद्भूतं यद्भविष्यति ।

तत् सव्र्व्वं निर्दहत्याशु गोविन्दानल कोर्त्तनात् ॥ ३६८ ॥

अनलस्थानीय श्रीगोविन्दनाम कीर्तन के प्रभाव से वर्त्तमान्, भूत, एवं भविस्यत् कालीन जितने भी पाप हैं, वे समस्त पाप विनष्ट हो जाते हैं। ब्रह्मवैवर्त पुराण में उस प्रकार वर्णित है, कि यथा कथञ्चित् भक्ति के सम्बन्ध मात्र से निखिल पाप विनष्ट होते हैं ।

“स समाराधितो देवो मुक्तिकृत् स्य द् यथा तथा ।

अनिच्छ्यापि हुतभुक् संस्पृष्टो दहति द्विजाः ॥ ३६६ ॥

हे द्विजगण ! अग्नि, जिस प्रकार अनिच्छा से भी संस्पृष्ट होकर दग्ध करता है, उस प्रकार भगवान् श्रीहरि जिस किसी प्रकार से आराधित होकर मुक्ति प्रदान करते हैं । स्कन्द पुराण के उमामहेश्वर संवाद में उक्त है-

‘दीक्षा मात्रेण कृष्णस्य नरा मोक्षं लभन्ति वै । कि पुन में सदा भक्तचा पूजयन्त्यच्युतं नराः ॥ " ४००ll

T

मानवगण, श्रीकृष्ण मन्त्र में दीक्षित होने से मुक्त होते हैं, यह निश्चय है । और जो लोक सर्वदाक

पाद्मे देवद्य ति-स्तुतौ,-

" सकृदुच्चारयेद्यस्तु नारायणमतन्द्रितः । शुद्धान्तःकरणो भूत्वा निर्वाणमधिगच्छति ॥ ४०२ ॥

तत्रान्यत्र, –

“सम्पर्काद्यदि वा मोहाद्यस्तु पूजयते हरिम् । सर्व्वपापविनिर्मुक्तः प्रयाति परमं पदम् ॥ ४०३॥ इतिहास–समुच्चये श्रीनारद पुण्डरीक-संवादे च, –

[[२८६]]

“ये नृशंसा दुराचाराः पापाचाररताः सदा । ते यान्ति परमं धाम नारायणपदाश्रयाः ॥ ४०४॥ लिप्यन्ते न च पापेन वैष्णवा वीतकल्मषाः । पुनन्ति सकलान् लोकान् सहस्रांशुरिवोदितः ॥४०५॥ जन्मान्तरसहस्र ेषु यस्य स्यान्मतिरीदृशी । दासोऽहं वासुदेवस्य सर्व्वान् लोकान् समुद्धरेत् ॥ ४०६ ॥ स याति विष्णुनालोक्यं पुरुषो नात्र संशयः । किं पुनस्तद्गतप्राणाः पुरुषाः संयतेन्द्रियाः ॥ १४०७ः१

भक्ति पूर्वक श्रीकृष्ण की पूजा करते हैं, वे लोक, मुक्त होंगे, इस में कहना ही क्या है ? बृहन्नारदीय में भी लिखित है-

“अकामादपि ये विष्णोः सकृत् पूजां प्रकुर्व्वते ।

न तेषां भवबन्धस्तु कदाचिदपि जायते ॥ " ४०१ ॥

जो लोक, अनिच्छा से श्रीविष्णु की पूजा एकवार मात्र करते हैं, उनको कभी भी भवबन्धन प्राप्त करना नहीं पड़ता है ॥ १०४ ॥

पद्म पुराण की देवद्य ति स्तुति में उक्त है-

“सकृदुच्चारयेद्यस्तु नारायण मतन्द्रितः ।

शुद्धान्त करणो भूत्वा निर्वाणमधिगच्छति ॥ "

जो मानव, आलस्य त्यागकर एक बार भी श्रीनारायण नामोच्चारण करता है, वह शुद्ध चित्त होकर मोक्षलाभ का अधिकारी होता है ॥ ४०२ ॥

पद्म पुराण के अन्यस्थल में लिखित है-

“सम्पर्काद्यदि वा मोहाद्यस्तु पूजयते हरिम् ।

सर्व्वपापविनिर्मुक्तः प्रयाति परमं पदम् ॥ ४०३ ॥

जो मानव, किसी सम्पर्क से अथवा मोह से श्रीहरि की पूजा करता है, वह समस्त पापों से मुक्त होकर परम पद को प्राप्त करता है ।

इतिहास समुच्चय के श्रीनारद पुण्डरीक संवाद में लिखित है-

“ये नृशंसा दुराचाराः पापाचार - रताः सदा ।

ते यान्ति परमं धाम नारायणपदाश्रयाः ॥ ४०४ ॥ लिप्यन्ते न च पापेन वैष्णवा वीतकल्मषाः । पुनन्ति संकलान् लोकान् सहस्रांशु रिवोदितः ॥४०५॥ जन्मान्तरसहस्रषु यस्य स्यान्मतिरीदृशी ।

दासोऽहं वासुदेवस्य सर्व्वान् लोकान् समुद्धरेत् ॥ ४०६ ॥ स याति विष्णुसालोक्यं पुरुषो नात्र संशयः कि पुनस्तद्गतप्राणाः पुरुषाः संयतेन्द्रियाः ॥ ४०७॥ ॥

FR

[[२६०]]

अतएव -

“सकृदेव प्रपन्नो यस्तवास्मीति च याचते । अभयं सर्व्वथा तस्मै ददाम्येतद्व्रतं मम ॥ ४०८ ॥ इति रामायणे श्रीरामचन्द्रवाक्यश्च-

“सकृदेव प्रपन्नो यस्तवास्मीति च याचते । अभयं सर्व्वथा तस्मै ददाम्येतद्व्रतं हरेः ॥४०६ ॥ इति च गरुडपुराणम्, तथा चाह, (भा० १।१।१४) -

(१४६) “आपन्नः संसृति घोरां यन्नाम विवशो गृणन् ।

ततः सद्यो विमुच्येत यबिभेति स्वयं भयम् ॥ ४१० ॥ इति ।

  • स्पष्टम् ॥ श्रीशौनकः ॥

जो लोक, कुटिल चित्त, दुराचार, एवं सर्वदा पापाचार रत हैं - वे भी यदि श्रीनारायण के चरणों में शरणागत होते हैं, तो, जहाँ जाने से पुनर्वार प्रत्यावर्तन नहीं होता है, वे सब उस लोक को जाते हैं । ॥४०४ ॥ वैष्णव वृन्द, कभी पाप में लिप्त नहीं होते हैं । कारण, श्रीहरि चरण आश्रय के प्रभाव से उन सब के पाप प्रवृत्ति का बीज भी विनष्ट हो जाता है, एवं उदित सहस्रांशु के समान समस्त लोकों को पवित्र करने में सक्षम होते हैं ।॥४०५॥

सहस्र सहस्र सौभाग्य के फल से “मैं वासुदेव का दास हूँ " इस प्रकार जिसकी मति हुई है, वह लोकों को उद्धार करता है । एवं स्त्रयं विष्णु लोक में निवास करने का अधिकारी होता है । और जो लोक श्रीहरि में समर्पित आत्मा होते हैं, एवं संयतेन्द्रिय हैं, वे सब निखिल पापों से मुक्त होकर श्रीहरि चरण समीप में तो गमन करते ही हैं ॥४०६-५०७॥

अतएव रामायण में श्रीरामचन्द्र की उक्ति में प्रकाश है-

’ सकृदेव प्रपन्नो यस्तवास्मीति च याचते ।

अभयं सर्व्वथा तस्मै ददाम्येतद्व्रतं मम ॥ ४०८ ॥

जो, शरणागत होकर एकवार भी कहे, हे हरे ! मैं आपका हूँ, मैं उसको सर्वथा सर्वदा अभय प्रदान करता हूँ ।

श्रीगरुड़ पुराण में भी लिखित है-

“सकृदेव प्रपन्नो यस्तवास्मीति च याचते ।

अभयं सर्वथा तस्मै ददाम्येतद्व्रतं हरेः ॥ ४०६ ॥

जो, शरणागत होकर एकवार ही कहता है कि हे हरे ! “मैं आप का हूँ " श्रीहरि उसको सब प्रकार से सर्वदा अभय प्रदान करते हैं । यही श्रीहरि का व्रत है । श्रीमद् भागवत के १।१।१४ में उक्त है-

( १४६ ) " आपन्नः संसृति धोरां यन्नाम विवशो गृणन् ।

ततः सद्यो विमुच्येत यद्विभेति स्वयं भयम् ॥ " ४१० ॥

टीका - तत् प्रभावमनुवर्णयन्तस्तद् यशः श्रवणौत्वयमा विष्कुर्वन्ति आपन्न इति त्रिभिः संसृति सुघोरामापन्नः प्राप्तः विवशोऽपि गृणन् ततः संसृतेः । अत्र हेतुः तद् यतो नाम्नः, भयमपि स्वयं बिभेति ।

श्रीशौनक श्रीसूत को कहे थे - ‘जो मानव, घोरतर संसार के मध्य में निपतित है, एवं अत्यन्त पराधीन अवस्था को प्राप्त किया है, वह भी यदि श्रीकृष्ण के नामोच्चारण करता है तो, नाम प्रभाव से तत्