२५८ १४८
तत्रास्तु तावत्तस्याः साक्षाद्भक्तेः परधर्म्मत्वादिकं भगवदर्पण सिद्ध-तदनुगतिकस्य लौकिक कर्मणोऽपि परधर्म्मत्वमुदाहरिष्यते (भा० १११२६।२१) “यो यो मयि परे धर्मः’ दोष होगा । कारण, श्रद्धा के सहित भक्तचनुष्ठान करने पर ही भगवान् में भाव भक्ति लाभ होता है। ऐसा होने पर पुनर्वार “श्रद्धा” पद का उल्लेख निष्प्रयोजन होगा ।
यद्यपि साधन भक्ति की फलरूपा भाव भक्ति के द्वारा ही श्रीभगवान् वशीभूत होते हैं, तथापि साधन रूपा भक्ति का विवरण ही इस प्रकरण में कहा गया है । अतः भगवद् वशी कारित्व धर्म का उल्लेख साधन भक्ति में ही हुआ है। अथवा भा० ५०६।१८ में उक्त है-
“अस्त्वेवमङ्ग भजतां भगवान् मुकुन्दो, मुक्ति ददाति कर्हिचित् स्म न भक्तियोगम्”
भगवान् मुकुन्द ! भजन कारी भक्त वृन्द को मुक्तिदान करते हैं-किन्तु कभी प्रेम भक्ति प्रदान नहीं करते हैं । इस नीति के अनुसार भक्त के अधीन न होकर प्रेम प्रदान नहीं करते हैं । तज्जन्य साक्षात् सम्बन्ध में साधन भक्ति का हो श्रीभगवद् वशीकरणत्व गुण है। इस प्रकार जानना होगा ।
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अभिप्राय यह है कि - भक्त को प्रेमदान करने के पहले श्रीभगवान् यदि भक्ति द्वारा वशीभूत नहीं होते हैं तो कैपे अदेय वस्तु प्रदान करेंगे ? भा० ११।१४।२२ में उक्त “धर्मः सत्यदयोपेतः” श्लोक में भक्ति को धर्मादि साधन प्रतियोगी रूप में उल्लेख करने के कारण यह श्लोक भी साधन भक्ति महिमा वर्णन पर ही है । कारण, साधन भक्ति से ही चित्त शुद्धि होती है, - इस प्रकार उल्लेख अनेक स्थलों में दृष्ट होता है । भा० ११।१४ २३ में उक्त “कथं विना रोमहर्ष” श्लोक भी साधन भक्ति महिमा वर्णन पर है, कारण, साधन भक्ति की फल स्वरूपा भाव भक्ति द्वारा हृदय शोधित होता है, कहने से तात्पर्य्यतः साधन भक्ति की महिमा का प्रकाश होता है । कारण, साधन भक्ति का अनुष्ठान करते करते मोक्ष सुख के प्रति तुच्छता बुद्धि होती है, अनन्तर चित्त विगलित होता है, अतएव मा० ११।१४।१८ में वर्णित “बाध्यमानोऽपि मद्भक्तः" इत्यादि श्लोक समूह का वर्णन जो साधन भक्ति प्रकरण में हुआ है, इस का समन्वय उत्तम हुआ है ।
प्रकरण प्रवक्ता श्रीभगवान् हैं ॥ १४७ ॥ १४८ - साक्षात् भक्ति की कथा तो दूर है - अर्थात् साक्षाद् भक्ति जो, परम धर्म है, एवं मन का अगोचर फल प्रदान में समर्थ है, उस की महिमा की कथा तो दूर है, जब लौकिक कर्म समूह का अर्पण भगवान् को करने से भक्ति होती है, एवं भक्ति का आनुगत्य है, वे सब कर्म भी जो परम धर्म है, उसका उदाहरण भा० ११।२६।२१ के द्वारा प्रस्तुत करते हैं-
“यो यो मयि परे धर्मः कल्पयते निष्फलाय चेत् ।
तदायासो निरर्थः स्याद् भयादेरिव सत्तमः ॥”
तदायासो निरर्थः
[[२८२]]
इत्य दौ । तथा पापघ्नत्वादिकं तस्याः श्रवणादिनापि भवत्ययुक्तम् (T०६१।२।१२) “श्रुतोऽनुपठितो ध्यातः” इत्यादौ ।
प्राद्म माघ माहात्म्ये देवदूत वाक्यञ्च,
“प्रहास्मान् यमुना- भ्राता सादरं हि पुनः पुनः भवद्भिर्वैष्णवस्त्याज्यो विष्णुञ्चेद्भजते नरः ॥ ३८७॥ वैष्णवो यद्गृहे भुङ्क्त े येषां वैष्णवसङ्गतिः । तेऽपि वः परिहार्थ्याः स्युस्तत्सङ्ग -हत किल्विषाः ॥ ३८८ बृहन्नारदीये यज्ञमाल्युपाख्यानान्ते, -
“हरिभक्तिपराणान्तु सङ्गिनां सङ्गमाश्रितः । मुच्यते सर्व्वपापेभ्यो महापातक वानपि । ३८॥
टीका-किञ्च यो य इति अयमर्थः । किं वक्तव्यं, मद् धर्मस्य न ध्वंस इति । यतो लौकिकोऽपि घो ध्यो निरर्थो व्यर्थ आयासः सोऽपि मयि परे निष्फलाय चेत् कल्पद्यते निष्कामतया अर्पितश्चेत् तर्हि धर्म एव स्यात् । निरर्थायासे दृष्टान्तः । यथा भय शोकादे र्हेतोः पलायनक्रन्दनादिक्लेशस्तद्वत् ॥
श्रीकृष्ण - श्रीउद्धव को कहे थे, - हे उद्धव ! मद्विषयक धर्म का ध्वंस नहीं होता है। कारण, जो सब लौकिक कर्म्म निरर्थक हैं, अर्थात् विफल श्रम हैं, वे सब कर्म भी यद निष्काम भाव से मुझ को अर्पित होते हैं तो, वे सब भी धर्म रूप में परिगणित होते हैं। लौकिक कर्म जो विफल परिश्रम के हैं, अर्थात् परिश्रम बहुल होकर भी फल शून्य हैं, उस में दृष्टान्त उपस्थित करते हैं। जिस प्रकार अत्यन्त भय से पलायन करना, एवं शोकादि हेतु क्रन्दन करना, प्रभृति दुःख जिस प्रकार विफल होते हैं, अर्थात् पलायन के द्वारा भय की निवृत्ति नहीं होती है, एवं क्रन्दन से शोकादि की निवृत्ति भी नहीं होती है । उस प्रकार लौकिक कर्म में परिश्रम बाहुल्य तो है ही किन्तु फल भी नहीं है । विशुद्ध भक्ति के श्रवण कीर्तन द्वारा पाप निवृत्ति होती है । उसका उदाहरण भ० ११।२।१२ में है-
“श्रुतोऽनुपठितो व्यात आदृतो वामुमोदितः ।
सद्य पुनाति सद्धम्म देव विश्वद्रुहोऽपि हि ॥”
देवर्षि नारद - वसुदेव को कहे थे - हे वसुदेव ! अनुमोदन करने से विश्वद्र ह पातकों से भी पातकी गण पवित्र होते हैं। पद्म पुराण के माघमास स्नान महलय में यमदूत वृन्द के वावग्र भी इस प्रकार है- “प्रहास्मान् यमुना भ्राता सादरं हि पुनः पुनः । भवद्भिर्वेष्णवस्त्याज्यो विष्णुञ्चेद्भजते नरः ॥ ३८७॥
वैष्णवो यद्गृहे भुङ्क्त े येषां वैष्णवसङ्गतिः ।
तेऽपि वः परिहार्थ्याः स्युस्तत्सङ्ग -हत किल्विषाः । " ३८८॥ - इति ।
यमुना भ्राता यम, आदर के सहित हम सब को वारंवार कहे हैं, जो मनुष्य श्रीविष्णु का भजन - करते हैं तुम सब उन सब वैष्णवों को छोड़ देना । अर्थात् उन सब में मेरा कोई अधिकार नहीं है । यहाँ तक कि - जिस के घर में वैष्णव भोजन करते हैं, एवं जिनको बैष्णव सङ्ग है, उनको भी परित्याग करना । कारण, वैष्णव सङ्ग प्रभाव से उनके समस्त पातक विदूरित हो गये हैं ॥ ३८७-३८८ ॥
बृहन्नारदीय के यज्ञ माली उपाख्यान में उक्त है-
“हरिभक्ति पराणान्तु सङ्गिनां सङ्ग माश्रितः ।
मुच्यते सर्वपापेभ्यो महापातकवानपि ॥ " ३८६ ॥
F
जो मानव, हरिभक्ति परायण भक्त वृन्द के सङ्ग लाभ से कृतार्थ हुए हैं, उनके सङ्ग लाभ करने से
श्रीभक्तिसन्दभः
[[२८३]]
ततः सुतरामेवेदमादिदेश, (भा० ६।३।२९)-
(१४८) “जिह्वा न वक्ति भगवद्गुणनामधेयं, चेतश्च न स्मरति तच्चरणारविन्दम् ।
कृष्णाय नो नमति यच्छिर एकदापि, तानानयध्वमसतोऽकृत विष्णुकृत्यान् ॥ ३८० ॥ आस्तां तावत् (भा० ६।३।२८) “तानानयध्वम्” इत्यादिकेनैतत्पूर्व्वद्वितीय पद्य नोक्तानां मुकुन्दपादारविन्द - मकरन्दर स विमुखानामानय नवार्त्ता, तथा (भा० ६।३।२७) “ते देवसिद्ध " इत्यादिकेनैतत्पूर्व्व तृतीयपद्ये नोक्तानां देव-सिद्ध-परिगीत - पवित्रगाथानां साधूनां समदृशां
महापातकी भी समस्त पापों से मुक्त हो जाते हैं ॥३८॥
अतएव धर्मराज श्रीयम, स्वयं किङ्कर गण के प्रति कहे थे। (भा० ६।३।२६)
(१४८) “जिह्वा न वक्ति भगवद्गुणनामधेयं, चेतश्च न स्मरति तच्चरणारविन्दम् ।
कृष्णाय नो नमति यच्छिर एकदापि, तानानयध्वमसतोऽकृत विष्णुकृत्यान् ॥ " ३६०॥ टीका- किञ्च जिह्वत्यादि । यत् येषां जिह्वत्याद्यान्दयः । न कृतं विष्णुकृत्यं भगवद् व्रतं यैः । एकदापीति सर्वत्राप्यन्वयः ।
जिस की जिह्वा एकवार भी श्रीभगवान् के नाम गुणादि का उच्चारण नहीं करती है, जिस का चित्त भगवच्चरणारविन्द का स्मरण नहीं करता है, वह सब अकृत विष्णु कृत्य हैं, जीवन में एकवार भी
श्रीविष्णु सम्बन्धीय कार्य्य नहीं किये हैं, उन सब असाधु गण को मेरे संयमनीपुरी में ले आओ ।
धर्म राज यमने, विष्णु सम्बन्धि कार्थ्य न करने के कारण जिस को ले आने के निमित्त आदेश किया था। वह तो समीचीन ही है । किन्तु इस के पूर्व श्लोक में आपने कहा है- (भा० ६।३।२८)
“तानानयध्वमसतो विमुखान् मुकुन्द पादारविन्दमक रन्दरसाद खाम् ।
निष्किञ्चनैः परमहंस कुलैरसङ्गं जुष्टाद् गृहे निरयवर्त्मनि बद्धतृष्णान् ॥
[[11]]
टीका - के तह, दण्डार्थमानेया इत्यत्राह तानिति द्वाभ्याम् । असतो दुष्टान्, तानेवाह, मुकुन्दपादार विन्दयो य मकरन्द रूपो रसः, तस्मात् विमुखान्, कथम्भूतात् ? निष्किञ्चनैरजस्रं जुष्टात्, तेषां ज्ञापकमाह निरयवत्र्त्मनि - स्वधर्म शून्ये गृहेबद्धा तृष्णा ये स्तान् ।
हे दूतगण ! उन सब असत्गण को मेरेपास ले आओ, जो निष्किञ्चन, अनासक्त परम हंस गण कर्तृक अनवरत निषेवित मुकुन्द चरणारविन्द रस से विमुख हैं एवं नरक के द्वार स्वरूप गृहस्थ सुख वासना में आसक्त चित्त है, इस प्रकार असत् गण को ही मेरे यहाँ ले आओ ।
इस श्लोक में असाधु गण की आनयन वार्त्ता उद् घोषित है, किन्तु इस के पूर्व श्लोक में (भा० ६।३। २७) उन्होंने कहा है-
“ते देवसिद्ध परिगीत पवित्र गाथा ये साधवः समदृशो भगवत् प्रपन्नाः ।
तान् नोपसीदत हरेर्गदयाभिगुप्तान् नंषां वयं नच वयः प्रभवाम् दण्डे ॥
जो, साधु हैं, सर्वभूत में समदृष्टि सम्पन्न हैं, एवं भगवत् प्रपन्न हैं, उनसब महापुरुष वृन्द के गुणसमूह का कीर्त्तन, देव एवं सिद्ध पुरुष गण करते रहते हैं । वे सब सर्वदा ही श्रीहरि की गदा के द्वारा अभिरक्षित हैं, सुतरां उन सब महापुरुष वृन्द के निकट तुम सब कभी न जाना। उनसब को दण्डित करने में हम सब समर्थ नहीं हैं । यहाँतक कि - काल भी उनसब को संयमन करने में अक्षम है। कारण, जो लोक भगवत् शरणागत हैं, वे सब भक्त, काल, कर्म एवं मायातीत हैं, इस प्रकार महापुरुष वृन्द को आनयन करने में यमराज का निषेध तो है ही, किन्तु जिस की जिह्वा, कभी भी गुण, नाम का कीर्त्तन मानव जन्म को प्राप्त
[[२८४]] भगवत्पराणां निकटगमन- ‘निषेधवार्त्तापि, यद्यस्य जिह्वापि श्रीभगवतो गुणञ्च नामधेयञ्च वा एकदा जन्ममध्ये यदा कदापि न वक्ति जिह्वाया अभावे चेतश्च तच्चरणारविन्दमेकदापि न स्मरति, चेतसो विक्षिप्तत्वे शिरश्च कृष्णाय कृष्णं लक्षीकृत्य नो नमति,
R
“शाठ्यं नापि नमस्कार कुर्व्वतः शार्ङ्गधन्विने । शतजन्मार्जितं पापं तत्क्षणादेव नश्यति ॥” ३६१ ॥ इति स्कान्दोक्त-महिमानं नमस्कारं न करोति, तानानयध्वम् । तत्र हेतुः, - असतः, असत्त्वे हेतुः, - अकृत - विष्णुकृत्यान्, यथा च स्कान्दे रेवाखण्डे श्रीब्रह्मोक्तौ,-
“स कर्त्ता सर्व्वधर्माणां भक्तो यस्तव केशव । स कर्त्ता सर्व्वपापानां यो न भक्तस्तवाच्युत ॥ ३६२॥ पापं भवति धर्मोऽपि तवाभक्तैः कृतो हरे । निःशेषधर्म्मकर्त्ता वाप्यभक्तो नरके हरे ।
पाद्म े च -
सदा तिष्ठति भक्तस्ते ब्रह्मापि विमुच्यते ॥ २६३॥
प्र
“मन्निमित्तं कृतं पापमपि धर्माय कल्पते । मामनादृत्य धर्मोऽपि पापं स्यान्मत् प्रभावतः ॥३६४॥
कर कभी नहीं करती है, जिह्वा के अभाव में चित्त भी भगवत् चरणारविन्द का स्मरण नहीं करता है, विक्षिप्त चित्त के कारण यदि स्मरण नहीं होता तो भी यदि श्रीकृष्ण को लक्ष्य करके एकवार मात्र भी नमस्कार नहीं करता है तो उसका फल वर्णन करते हैं-दूतगण - उस व्यक्ति को मदीय भवन में ले आना । स्कन्द पुराणोक्त नमस्कार महिमा को कहते हैं-
TIP
(a
“शाठ्य नापि नमस्कारं कुर्व्वतः शार्ङ्गधन्विने ।
शतजन्मार्जितं पापं तत्क्षणादेव नश्यति ॥” ३६१ ॥
ग
अर्थात् शठता पूर्वक भी यदि कोई व्यक्ति शार्ङ्गधन्वा श्रीविष्णु को प्रणाम करता है तो, उस के शत जन्मार्जित पाप तत्क्षणात् विनष्ट हो जाता है, । एतादृश महिमान्वित नमस्कार भी जो व्यक्ति नहीं करता है, उस पापी को ले आना। कारण, वह असत् है । जो लोक श्रीविष्णु सम्बन्धी कुछ भी कार्य्य नहीं करते हैं, वे सब अन्यान्य सद् गुण युक्त होने से भी असत् हैं । इस अभिप्राय से ही स्कन्द पुराण के रेवाखण्ड में श्रीब्रह्मा ने कहा भी है-
[[1913]]
W
[[66]]
स कर्त्ता सर्व्वधर्माणां भक्तो यस्तव केशव ।
स कर्त्ता सर्व्वपापानां यो न भक्तस्तवाच्युत ॥ ३६२॥
पापं भवति धर्मोऽपि तवाभक्तः कृतो हरे । निःशेषधर्मकर्त्ता वाप्यभक्तो नरके हरे ।
सदा तिष्ठति भक्तस्ते ब्रह्मापि विमुच्यते ॥ " ३६३॥
हे केशव ! जो, तुम्हाराभक्त है, वह समस्त धर्म का कर्त्ता है, हे अच्युत ! जो तुम्हारा भक्त नहीं है, वह समस्त पाप कर्त्ता है । हे हरे ! तुम्हारे अभक्त के द्वारा अनुष्ठित धर्म भी पाप में परिणत होता है । है हरे ! निःशेष धर्मानुष्ठान करके भी यदि वह तुम्हारे भक्ति का आचरण नहीं करता है तो, वह अभक्त जन सर्वदा नरक वास करता है, और भक्तिमात् जन, ब्रह्महत्या करके भी समस्त पापों से मुक्त हो जाता है ॥३२॥ पद्म पुराण में भी लिखित है-
“मन्निमित्तं कृतं पापमपि धर्माय कल्पते ।
मामनादृत्य धर्मोऽपि पापं स्यान्मत्प्रभावतः ॥ " ३६४ ॥
[[२८५]]कीर्त्तनञ्चास्य” इत्यादिना, (भा० ११।५।२-३ )
युक्तञ्चैतत् (भा० ७।११।११ ) - “ श्रवणं मुखबाहूरुपादेभ्यः” इत्यादिना, (भा० ११।१८।४३) “सर्व्वेषां मदुपासनम्” इत्यादिना, (पाद्म) “सर्व्वे विधिनिषेधाः स्युः " इत्यादिना च परम-नित्यत्वादि-प्रतिपादनात् । एषां कीर्त्तनादीनां
मत्रिमित्त कृत पाप भी धर्म में परिणत होता है। मेरा अनादर करके कृत धर्म भी मेरा प्रभाव से पाप रूप में परिणत होता है । यह सब वाक्य युक्ति युक्त हैं । कारण, - भा० ७११२ ११-१२ में उक्त है-
“श्रवणं कीर्त्तनञ्च स्य स्मरणं महतां गतेः । सेवेज्यावनतिर्दास्यं सख्यमात्म समर्पणम् ।
नृणामयं परोधर्म सर्वेषां समुदाहृतः ।
त्रिशल्लक्षणवान् राजन् सर्वात्मा येन तुष्यति ॥”
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टीका - अस्य श्रीकृष्णस्य श्रवणादयो नव । इज्या - अर्चनम् ॥ ११ ॥ एवं त्रिशल्लक्षणवान् ॥ " १२ ॥ श्रीनारद, युधिष्ठिर को कहे थे- महापुरुष मात्र का एकमात्र आश्रय श्रीहरि का श्रवण, कीर्त्तन स्मरण, उनकी सेवा, पूजा, उनको प्रणाम, उनका दास्य, सख्य, उनको आत्मनिवेदन, यह नवविध धर्म आचरण करना मानव मात्र को अवश्य चाहिये । यह मुख्य कर्त्तव्य है, अर्थात्, समस्त मनुष्य के पक्ष में हो श्रीहरि कथा श्रवण कीर्त्तनादि करना अवश्य कर्त्तव्य है । भा० ११५२-३ में उक्त है-
“मुखबाहूरुपादेभ्यः पुरुषस्याश्रमैः सह । चत्वारो जज्ञिरेवर्णा गुणैविप्रादयः पृथक् । य एषां पुरुषं साक्षादात्म प्रभवमीश्वरम् ।
न भजन्त्यवजानन्ति स्थानाद् भ्रष्टाः पतन्त्यधः ॥”
टीका - स्वजनकस्य गुरोर्भगवतोऽनादराद् गुरुद्रोहेण दुर्गात यान्तीति वक्त भगवतः सकाशाद् वर्णाश्रमाणामुत्पत्तिमाह मुखेति । गुणैः सत्त्वेन विप्राः । सत्त्वरजोभ्यां क्षत्रियः । रजस्तमोभ्यां वैश्यः, तमस शूद्र इति । एषां मध्ये ये अज्ञात्वा न भजन्ति, ये च ज्ञात्वापि अवजानन्ति । आत्मनः प्रभवो जन्म यस्मात् तम् । तत्रदभजने कृतघ्नतामप्याह - ईश्वरमिति स्थानात् वर्णाश्रमाद् भ्रष्टाः ॥
श्रीचमस योगीन्द्र - निमि महाराज को कहे थे-द्वितीय पुरुष गर्मोदशायी श्रीप्रद्युम्न के मुख बाहु, उरु एवं चरण से सत्त्व, रजः, एवं तमोगण के सहित क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र - यह चारवर्ण की उत्पत्ति हुई है, एवं उक्त पुरुष के जघन हृदय, वक्षःस्थल एवं मस्तक से क्रमशः सत्त्वादि गुण के सहित गृहाश्रम, ब्रह्मचर्य वानप्रस्थ - एवं सन्यास नामक आश्रम चतुष्टय की उत्पत्ति हुई है । श्रीभगवान् श्रीहरि के सहित अभिन्न पुरुष ही यह चार वर्ण एवं आश्रम का जनक हैं। चारवर्णस्थ एवं चार आश्रमस्थ यदि कोई निज जनक श्रीभगवान् का भजन नहीं करना है, तो अवज्ञा ही करता है । ऐसा होने पर पितृ द्रोही पातकी निज उच्चस्थान से भ्रष्ट होकर अधः पतित होता है । भा० ११-१८-४३ में उक्त है-
“ब्रह्मचर्यं तपः शौचं सन्तोषो भूत सौहृदम् ।
गृहस्थस्याप्यतौ गन्तुः सर्वेषां मदुपासनम् ॥ " मदुपासनम् ॥”
टीका - अन्य धर्मान् काश्चिद् गृहस्याप्यतिदिशति । ब्रह्मचर्य्यमिति । तपः स्वधर्म्मः । शौचं - रागादि राहित्यञ्च । तस्य ब्रह्मचर्थ्य प्रकारमाह ऋतौ गन्तुरिति ।
गृहस्थ का जो अपर धर्म आचरणीय है, उस की कहते हैं-ब्रह्मचर्य्य, तपः शौच, सन्तोष, प्राणिमात्र
[[२८६]]
त्रयाणामपि सुकराणामभावे परेषां सुतरामेवाभावो भवेदिति सामान्येनैव विष्णुकृत्य रहितत्व- मुक्तम् । जिह्वादीनां करणभूतानामपि कर्तृत्वेन निर्देशः पुरुषानिच्छ्यापि यथाकथचित् कीर्तनादिकमादत्ते । ‘चरणारविन्दम्’ इति विशेषाङ्ग निर्देशः श्रीयमस्य भक्त्ति ख्यापक एव, न तु तन्मात्रस्मरणनियामकः । अत्र अभक्तानामानयनेन भक्तानामनानयनमेव विधीयते,- आनयनस्योत्सर्गसिद्धत्वात्, “वैवस्वतं संयमनं प्रजानाम्’ इति श्रुतेः । (भा० ६।१।१६ ) -
के प्रति सौहाद्दर्य, एवं ऋतु काल में भार्य्यागमन प्रभृति आचरणीय धर्म हैं, किन्तु समस्त वर्ण एवं समस्त आश्रमों में एकमात्र आचरणीय अनिवार्य धर्म है- मदीय उपासना । इस से प्रतिपन्न हुआ है कि सर्ववर्णो एवं आश्रमीयों का अवश्य कर्त्तव्य श्रीभगवदुपासना है ।
पद्म पुराण में तो समस्त विधिनिषेधों के सार रूप में भगवदुपासना ही विहित है-
मर्त्तव्यः सततं विष्णु विस्मर्त्तव्यो न जातुचित् ।
॥”
सर्वेविधि निषेधाः स्युरेतय रेव किङ्कराः ॥ "
सर्वदा विष्णु का स्मरण करना चाहिये, कभी भी श्रीविष्णु का विस्मरण नहीं होना चाहिये। निखिल विधि-श्रीविष्णु स्मरण के ही किङ्कर हैं, एवं निखिल निषेध भी श्रीविष्णु विस्मरण के हो किङ्कर हैं । अर्थात् राज सम्मान से जिस प्रकार राज किङ्कर वृन्द का सम्मान होता है, उस प्रकार श्रीविष्णु स्मरण से समस्त विधि का सम्मान, होता है, राज सम्मान न करने से जैसे सब किङ्करों का असम्मान होता है । तद्रूप ही श्रीविष्णु स्मरण न करने से समस्त विधियों का लङ्घन होता है । इत्यादि प्रमाणों से भगवद् भक्ति का नित्यत्व एवं अवश्य कर्त्तव्यत्व प्रति पादित हुआ है । अतएव सुख साध्य कीर्त्तन, स्मरण, एवं प्रणाम, यह तीन के मध्य में एक का अनुष्ठान न होने से अवश्य ही अन्याङ्ग भक्ति का अनुष्ठान नहीं होगा। इस अभिप्राय से ही मूल श्लोक में कहा गया है- जिन्होंने विष्णुकृत्य नहीं किया है, उन को मदीय निर्यातन भवन में ले आना । अर्थात् यमराजने कहा था “अकृत विष्णु कृत्यम्” अर्थात् श्रीविष्णु स्मरण, कीर्तन, नमन, यह तीन के मध्य में जिस का एक भी नहीं है-उस को जानना होगा, कि उस में विष्णु सम्बन्धी कोई कृत्य नहीं हैं । अतएव उनसब असत् व्यक्ति गणका मेरे पास ले आओ । यहाँ ज्ञातव्य यह है कि-मूल श्लोक में करण स्थानीय जिह्वा, चित्त एवं मस्तक को कर्तृ स्थानीय रूप में उल्लेख किया गया है । अर्थात् जो जिह्वा के द्वारा श्रीहरि के नाम, गुण कीर्तन नहीं करता है, इस प्रकार न कह कर, कहा गया है - जिसकी जिह्वा श्रीहरि के गुण नाम कीर्तन नहीं करती है, इस से जिह्वा कर्त्ता रूप में उल्लिखित हुई है। इस से व्यक्त हुआ है कि - श्रीभगवन्नाम उच्चारण कारी व्यक्ति की अनिच्छा से भी जसे तसे यद कीर्त्तन स्मरणादि भक्तयङ्ग का अनुष्ठान होता है तो, उस के समीप में तुम सब न जाना । मूल श्लोक में उल्लिखित है- “चेतश्च न स्मरति तच्चरणारविन्दम्” अर्थात् जिस का चित्त श्रीहरि चरणारविन्द का स्मरण नहीं करता है, । इस में जिस भक्तयङ्ग का उल्लेख हुआ है, अर्थात् यमराज ने भक्ति मात्र को सूचित करने के निमित्त हो ‘चरणारविन्द’ पद का प्रयोग किया है । श्रीभगवान् के किसी भी अङ्ग का स्मरण, अथवा किसी भी भक्तयङ्ग का अनुष्ठान करने से ही मानव कृतार्थ होता है । यहाँ अभक्त वृन्द को आनयन करने का आदेश से सुस्पष्ट प्रतीत होता है कि भक्त गण को आनयन न करना ही विधि है । आनयन विधि सामान्य विधि है, कारण, धर्मराज यम ही प्रजावृन्द के संयमन कारी हैं। श्रुति में उक्त हैं- “वैवस्वतं संयमनं प्रजानाम्
भा० ६।१।१९ में उक्त है-
[[19]]
[[२८७]]
" सकृन्मनः कृष्णपदारविन्दयो, निवेशितं द्गुणराग यैरिह ।
न ते यमं पाशभृतश्च तद्भवान्, स्वप्नेऽपि पश्यन्ति हि चीर्णनिष्कृताः ॥ ३६५॥ इत्यत्र ‘तद्गुणरागि’ इति विशेषणं तु तेषां तद्दृष्टिपथगमनसमयस्यापि यद्घातकम्, तादृश तत्स्मरणस्य प्रभाव - विशेषमेव बोधयतीति । ज्ञ ेयम् । यथैव नारसिंहे, -
“अहममरगणाच्चतेन धात्रा, यम इति लोक – हिताहिते नियुक्तः ।
हरिगुरुविमुखान् प्रशास्मि मर्त्यान्, हरिचरणप्रणतान् नमस्करोमि ॥ ३६६ ॥
तथैवामृतसारोद्धारे स्कान्दवचनम् -
““न ब्रह्मा न शिवाग्नीन्द्रा नाहं नान्ये दिवौकसः । शतु निग्रहं कत्तु वैष्णवानां महात्मनाम् । ३६७॥ श्रीयमः स्वदूतान् ॥