२५६ १४७
तथा मनसोऽप्यगोचरफलदाने श्रीध्रुवचरितं प्रमाणम्, परमभक्ति सम्बलित- स्वलोकदानात् । तद्वशीकारित्वं तदाहृतम् (भा० ११।१४।२०) “न साधयति मां योगः" इत्यादौ । तथा, तत्पद्यान्ते ( भा० ११।१४।२१) -
(१४७) “भक्तया हमेकया ग्राह्यः श्रद्धयात्मा प्रियः सताम्” इति ।
अत्रं वं विवेचनीयम् - यद्यप्यस्य वाक्यस्य एकादश-चतुर्द्द शाध्यायप्रकरणे साध्य-साधन- भक्तयोरविविक्ततयैव महिम-निरूपणमिति साधनपरत्वं दुर्निर्णेयम्, तथापि फलभक्ति–
हे अर्जुन ! उन परम पुरुष को अनन्या भक्ति के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है ।
उक्त प्रमाण समूह के द्वारा प्रति पादित हुआ है कि- अनन्या भक्ति ही भगवत् प्रापिका है ।
श्रीभगवान् कहे थे ॥ १४६ ॥
२५७ १४७
भक्ति मानस सङ्कल्यागोचर फल प्रदान में सक्षम है-उस विषय श्रीध्रुव चरित्र ही प्रमाण है - कारण, श्रीध्र ुव को परम भक्ति सम्बलित निज लोक प्रदान भगवान् किये थे । भक्ति में भगवान् वशीभूत होते हैं उसका उदाहरण भा० ११।१४।२० में है ।
“न साधयति मां योगो न सांङ्क्षय धर्म उद्धव ।
न स्वाध्यायस्तपस्त्यागो यथा भक्तिर्ममोजिता ॥”
टीका-अत एवम्भूतं श्रेयो नान्यदस्तीत्याह न साधयतीति द्वाभ्याम् ।
इस के बाद श्लोक में कह हैं - भा० ११।१४।२१
(१४७) “भक्तचाह मेकया ग्राह्यः श्रद्धयात्मा प्रियः सताम् ।
भक्तिः पुनाति मन्निष्ठा श्वपाकानपि सम्भवात् ।
टीका-श्रद्धया या भक्ति स्तया । सम्भवात् जाति दोषादपीत्यर्थः ॥
फिर
हे उद्धव ! श्रद्धा पूर्विका अव्यभिचारिणी भक्ति के द्वारा साधुगण प्रिय मैं गृहीत होता हूँ । यहाँ इस प्रकार विचार करना आवश्यक है-यद्यपि भा० ११।१४।२१-८१ में साधन एवं साध्य भक्ति के अविचारित भाव से ही भक्ति महिमा वर्णित है, जिस में “भक्तचाहमेकया ग्राह्यः” एवं “न साधयति मां योगः” वाक्य द्वय का प्रयोग हुआ है। तज्जन्य पूर्व वर्णित भक्ति की महिमा वर्णन प्रसङ्ग में साधन भक्ति की महिमा कहना दुःसाध्य है । तथापि साधन भक्ति का फल ही भाव भक्ति है, भाव भक्ति की महिमा कहने से उसके द्वारा साधन भक्तिकी महिमा का निर्णय भी निर्वाध रूप से होता है । अतः भ० ११।१४।२१ अध्याय में वर्णित विषय का तात्पर्य को भक्ति महिमा वर्णन पर ही जानना होगा । अर्थात् जिस साधन भक्ति से भगवान् वशीभूत होते हैं, उस अभिप्राय को प्रकट करने के निमित्त भङ्गी पूर्वक साधन भक्ति की महिमा का कथन हुआ है । यहाँ का अभिप्राय यह है कि- “न साधयति मां योगः " इत्यादि श्लोक में कथित है - अष्टाङ्ग योग, आत्म अनात्म विचार, वर्णाश्रम धर्मसमूह, मुझ को साधित अर्थात् वशीभूत नहीं कर सकते हैं । बलवति भक्ति जिस प्रकार मुझ को वशीभून करती है। इस से प्रतिपन्न हुआ है कि भक्ति हो श्रीभगवान् को वशीभूत करने में समर्थ है। श्लोक में लिखित अष्टाङ्ग योग प्रभृति साधन है, उक्त साधन समूह के सहित ही भक्ति का उल्लेख हुआ है। इस से प्रकरण प्राप्त भक्ति शब्द से साधन
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महिमद्वारापि साधनम हिमपरत्वमेव, यत्रेदृशमपि फलं भवतीति ( भा० ११११४३१) " वदन्ति कृष्ण श्रेयांसि" इत्यादि - प्रश्नमारभ्य साधनस्यैवोपक्रान्तत्वात्, (भा० ११।१४।२६) “यथा यथात्मा परिमृज्यतेऽसौ, मत्पुण्यगाथा-श्रवणाभिधानः” इत्यादिना तस्यैवोपसंहृतत्वाच्च ।
को ही जानना होगा। किन्तु भक्ति रसामृत सिन्धु ग्रन्थ में भक्ति गुण वर्णन, प्रसङ्ग में सुस्पष्ट उल्लेख है कि-साधन भक्ति की फल रूपा भक्ति के बिना साधन भक्ति के द्वारा श्रीभगवान् को वशीभूत करना असम्भव है । अर्थात् भक्ति रसामृत सिन्धु गन्थ में प्रथमतः
“अन्याभिलाषिता शून्यं ज्ञानकर्माद्यनावृतम् ।
आनुकूल्येन कृष्णानुशीलनं भक्तिरुत्तमा ।”
के द्वारा भक्ति का लक्षण किया गया है । अनन्तर, उक्त उत्तमा भक्ति के तीन भेद साधन, भाव, प्रेम कहे गये हैं । उस के मध्य में क्लेशघ्नी, शुभद्रा, साधन भक्ति के गुण हैं, मोक्ष लघुताकृत एवं दुर्लभा, भाव भक्ति के असाधारण गुण हैं, सान्द्रानन्द विशेषात्मा, श्रीकृष्णाकर्षिणी-प्रेम भक्ति के गुणद्वय का उल्लेख है । उस में भी प्रेम भक्ति में उक्त षड़, गुण विद्यमान है । इस वणन से प्रतीत होता है कि- श्रीकृष्ण को वशीभूत करने की शक्ति प्रेम भक्ति की हैं। अथच “न साधयति मां योगः " इत्यादि श्लोकों में भक्ति को अष्टाङ्ग योग प्रभृति साधनों का प्रतियोगी रूप में उल्लेख किया गया है, कारण साधन का प्रतियोगी साधन ही हो सकता है, साधन का फल नहीं जिस प्रकार पण्डित ही पण्डित का प्रतियोगी हो सकता है, किन्तु मूर्ख पण्डित का प्रतियोगी नहीं होगा । उस प्रकार अष्टाङ्ग योग वर्णाश्रम धर्म प्रभृति साधन है, उन सब साधनों का प्रतियोगी साधन भक्ति ही हो सकती है, साध्य रूपा भाव भक्ति अथवा प्रेम भक्ति नहीं हो सकती । अथच प्रेम भक्ति के विना भगवान् वशीभूत भी नहीं होते हैं। इस प्रकार संशय निरसन हेतु विचार का प्रारम्भ यहाँ हुआ है । सन्दर्भकार कहते हैं - भा० ११।१४।१
" वदन्ति कृष्ण श्रेयांसि बहूनि ब्रह्मवादिनः ।
तेषां विकल्प प्राधान्यमुताह एक मुख्यता ॥”
टीका - एवं तावद् भगवता भक्तया मोक्ष इत्युक्तम्, अन्ये तु अन्यानि साधनानि वदन्ति तत्र विशेष निर्धारणां गच्छति । वदन्तीति श्रेयांसि श्रेयः साधनानि । कि विकल्पेन प्राधान्यम्, उताहो कि वा
एकस्यैव मुख्यता ॥ मुख्यता ॥
हे कृष्ण ! वेदज्ञ ऋषिगण, मानव वृन्द को मङ्गल प्राप्त कराने के निमित्त विविध साधनों का उल्लेख करते रहते हैं, अथच उन सब की उक्ति के मूल प्रमाण, वेद को ही मानते हैं, यदि उन सब के उल्लिखित साधन समूह वेद मूलक नहीं होते तो उन सब की उक्ति - अयथार्थ होती। ऐसा होने पर वेद मूलकसाधन
- समूह
के मध्य में प्रत्येक का याथार्थ्य अङ्गाङ्गि भाव से मानना होगा, अथवा ’ इदं वा इदं वा " रूप से अर्थात् यह भी हो सकता है, यह भी हो सकता, इस रीति से प्रत्येक ही मङ्गल प्राप्तिका मुख्य साधन होगा ? उद्धवकृत इस प्रश्न से आरम्भ कर साधन विषय का ही उपक्रम हुआ है । एवं उपसंहार वाक्य में भी साधन भक्ति में ही पर्थ्यवसान दृष्ट होता है । ( भा० ११।१४।२६)
“यथा यथात्मा परिमृज्यतेऽसौ मत्पुण्यगाथा-श्रवणाभिधानः ।
तथा तथा पश्यति वस्तु सूक्ष्मं चक्षुर्यथैवाज्ञ्जन सम्प्रयुक्तम् ॥
।
"
टीका - ननु ब्रह्म विदाप्नोति परम् । तमेव विदित्वातिमृत्युमेति इत्यादि श्रुतिभ्यो ज्ञान देव अविद्या निवृत्त्या त्वत्प्राप्तिरवगम्यते कुतो भक्तियोगेनेत्युच्यते तत्राह यथा यथेति । आत्मा चिसं परिमृज्यते शोध्यतेश्रीभक्ति सन्दर्भः
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विशेषतस्तु तत्र (भा० ११११४ १८) “धर्म्मः सत्यदयोपेतः” इत्याद्यन्तं तदीयमन्तः प्रकरणं प्रायः साधनमहिमपरमेव । तत्र “बाध्यमानोऽपि " इति पद्यम्, - साध्यभक्तौ जातायां बाध्यमानत्वा- योगात्. (भा० १० ८७।३५) “दधति सकृन्मनस्त्वयि य आत्मनि नित्यसुखे, न पुनरुपासते पुरुषसारहरावसथान्” इत्युक्तेः,
“विषयाविष्टचित्तानां विष्ण्वावेशः सुदूरतः । वारुणी - दिग्गतं वस्तु व्रज नैन्द्री किमाप्नुयात् ॥ ३८५
मत्पुष्यकथानां श्रवणैरभिध नैश्च । भक्त रेवावान्तरव्यापारो ज्ञानं, न पृथगित्यर्थः ।
अर्थात् मेरी कथा का श्रवण कीर्तन द्वारा चित्त जैसा जैसा परिमार्जित होगा, वैस वैसा ही सूक्ष्म पारमार्थिक वस्तु दर्शन की योग्यता होगी । इस प्रकार श्रवण कीर्त्तनादि लक्षणा साधन भक्ति में ही पर्य्यवसान किया गया है । किन्तु चतुर्दश अध्याय में कथित प्रकरण के मध्य में
“बध्यमानोऽपि मद्भक्तो विषयैरजितेन्द्रियः ।
प्रायः प्रगल्भया भक्तया विषयैर्नाभिभूयते” ११।१४।१८
टीका-अपि च आस्तां तावदुत्तम भक्त कथा, यतः प्राकृतोऽपि भक्तः कृतार्थ एवेत्याह बाध्यमान इति द्वाभ्याम् । विषयैराकृष्यमाणोऽपि । प्रलग्भया - समर्थया ॥
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मेरा अजितेन्द्रिय भजन शील भक्त, विषय द्वारा बाधित होने पर भी प्रगलया भक्ति के प्रभाव से प्रायशः बाधित नहीं होता है । यह अष्टादश श्लोक से आरम्भकर
सम्यक्
“धर्मः सत्यदयोपेतोविद्या वा तपसान्विता ।
मद्भक्तचापेत मात्मानं न सम्यक् प्रपुनाति हि ॥
अर्थात् हे उद्धव ! सत्य एवं दया युक्त धर्म, एवं तपस्या युक्त विद्या, मुझ में भक्ति हीन चित्त को शोधन करने में अक्षम है । ११।११।२२ पर्य्यन्त श्लोक समूह में साधन भक्ति की महिमा वर्णित हुई है । तन्मध्य में " बाध्यमानोऽपि मद्भक्तः” यह श्लोक, यद्यपि साधन भक्ति महिमा वर्णन प्रसङ्ग में पठित है, तथापि समझना होगा कि - साधन करते करते जिस समय श्रीभगवान् में साध्य स्वरूपा भाव भक्ति का उदय होगा, तब ही उक्त कथन सार्थक होगा, अर्थात् उस समय साधक विषयों के द्वारा बाधित अर्थात् अभिभूत नहीं होगा । किन्तु साधन अवस्था में विषयादेश से भक्ति बाधित हो जाती है । इस अभिप्राय से ही भा० १०।८७।३५ में श्रुतियों ने कहा है-
“दघति सकृन्मनस्त्वयि य आत्मनि नित्यसुखे,
न पुनरुपासते पुरुषसारहरावसथान् ॥”
हे प्रभो ! जो नित्य सुख, नित्यप्रिय, परमात्म स्वरूप आप में एक वार भी मन धारण करते हैं- वे पुनर्वार धैर्य्य, गाम्भीर्य्य, दया दाक्षिण्य प्रभृति हृदय सारापहरणकारी विषय की सेवा नहीं करते हैं, इस प्रकार उक्ति हेतु एवं विष्णु पुराण में लिखित
“विषयाविष्टचित्तानां विष्ण्वावेशः सुदूरतः ।
वारुणी- दिग्गतं वस्तु व्रजन्नैन्द्रों किमाप्नुयात् ॥ ३८५
जिस प्रकार पश्चिम दिक् में विद्यमान वस्तु लाभ हेतु पूर्वदिक में धावित होने से वह वस्तु लाभ असम्भव है, स प्रकार जिस का चित्त, विषय में आविष्ट है, उस के पक्ष में श्रीविष्णु में चित्ताविष्ट होना
[[२८०]]
इति विष्णुपुराणाच्च तन्महिम-परत्वेन गम्यते । अत्र व तावद्वक्ष्यते, (भा० ११११४।२३) -
“कथं विना रोमहर्षं द्रवता चेतसा विना ।
विनानन्दाश्रुकलया शुध्येद्भक्तचा विनाशयः ॥” ३८६ ॥
इत्यनेन, (भा० ११ १४।२४) मद्भक्तियुक्तो भुवनं पुनाति” इति कैमुत्यवाक्येन च साध्य- भक्तः संस्कारहारित्वम्, ततो विषया एव बाध्यमाना भवन्तीति ।
अथ (भा० ११।१४।१६) यथाग्निः सुसमिद्धाचिः” इति पद्य नामाभासादेः सर्व्वपापक्षयकारित्व- प्रसिद्धेस्तत्परम् । अथ (भा० ११।१४।२० ) " न साधयति मां योगः” इत्येतत् सार्द्धपद्य योगादीनां साधनरूपाणां प्रतियोगित्वेन निद्दिष्टत्वात् श्रद्धा-सहायत्वेन विधानाच्च तत्परम् । साध्यायां श्रद्धोल्लेखः पुनरुक्त इति । यद्यपि फलभक्तिद्वारैव तद्वशीकारित्वं तस्यास्तथाप्यत्र असम्भव है । इत्यादि प्रमाण के अनुसार साध्य स्वरूप भाव भक्ति पर ही उक्त ‘बाध्यमानोऽपि’ श्लोक है । इस प्रकरण के ११।१४।२३ में कहेंगे- TR
“कथं विना रोमहर्षं द्रवता चेतसा विना ।
विनानन्दाचुकलया शुध्येद्भक्तचा विनाशयः ॥ ३८६॥
हे उद्धव ! भक्ति के विना कैसे चित्त शुद्ध हो सकता है ? श्रवण कीर्त्तनादि से चित्त विगलित न होने पर भक्ति अस्तित्व का बोध कैसे होगा ? शरीर में रोमहर्ष एवं नेत्र में अनन्दाश्रु के विना चित्त द्रवता का परिचय प्राप्त कैसे होगा ॥ ?
इस से ज्ञात होता है कि-भाव भक्ति का उदय में ही सम्यक् चित्त शुद्ध होता है । विशेष कर “मद् भक्तियुक्तो भुवनं पुणाति प्रमाण के द्वारा निर्णीत हुआ है कि- प्रेम भक्ति लाभ करने बाद ही जगद् गत जीव हृदय शोधन करने की क्षमता आती है। इस प्रकार कैमुत्य वाक्य के द्वारा भी साध्य भाव भक्ति में साधक हृदयस्थ भोगवासना संस्कार विनष्ट करने की क्षमता प्रकाशित हुई है। अर्थात् जो भाव भक्ति, जगद् गत जीव हृदयस्थ भोग वासना संस्कार विनष्ट कर सकती है। वह सुतरां साधक के हृद्गत भोग वासना संस्कार विनष्ट करेगो । अतएव साध्य, भाव भक्ति लाभ के पश्चात् ही साधक हृदय विषयों से अबाधित होता है । अर्थात् विषयावेश- साधक हृदय को अभिभूत नहीं कर सकता है ।
अनन्तर भा० ११।१४ १६ में वर्णित-
“यथाग्नि सुसमिद्धाचिचः करोत्येधांसि भस्मसात् ।
तथा मद्विषया भक्तिरुद्धवैनांसि कृत्स्नशः ॥”
हे उद्धव ! सम्यक् प्रज्वलित वह्नि, जिस प्रकार काष्ठ राशि को भस्मसात् करता है, उस प्रकार, मैं जिस का विषय हूँ, इस प्रकार भक्ति भी निखिल पापराशि को सम्पूर्ण रूप से विनष्ट करती है। इस श्लोक की साधन भक्ति पर ही जानना होगा । कारण, नामाभासादि की ऐसी सामथ्यं है कि उस से समस्त पाप विनष्ट होते हैं। अनन्तर " भा० ११।१४ २० में लिखित “न साधयति मां योगः " श्लोक भी, - साधन रूप योगादि के प्रतियोगी रूप में भक्ति का उल्लेख होने से, एवं श्रद्धा युक्त अनुष्ठान विहित होने पर साधन भक्ति पर ही है । कारण, यदि उक्त श्लोक को साधन भक्ति पर न स्वीकार किया जाय तो, अर्थात् साध्य भाव भक्ति पर माना जाय तो “श्रद्धयात्मा” यहाँ सहार्थ बोधक श्रद्धा पद का उल्लेख है, उस से
पुनरुक्त
[[1]]
कार
श्रीभक्ति सन्दर्भः
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साधनरूपाया मुख्यत्वेन प्राप्तत्वात् तत्रैवोदाहृतम् । किंवा (भा० ५।६।१८) “अस्त्वेवमङ्ग भजतां भगवान् मुकुन्दो, मुक्ति ददाति कर्हिचित् स्म न भक्तियोगम्” इति न्यायेन, नावशः सन् प्रेमाणं ददातीति तस्या एव साक्षात्तद्गुणकत्वं ज्ञ ेयम् । अथ (भा० ११ १४।२२) " धम्मः सत्यदयोपेतः” इति पद्यञ्च धर्मादि-साधन प्रतियोगित्वेन निद्दशात् साधनभक्ते रेवान्यत्रापि तत्फलतयोदाहृतत्वाच्च तत्परम् । यत्तं " कथं विना” इत्यादिकम्, तच्च साधन-भक्ति- फलस्य शोधकत्वातिशय-प्रतिपादनेन तत्परमिति । तस्मात् साध्वेव (भा० ११।१४।१८) “बाध्यमानोऽपि " इत्यादि-पद्यानि तत्तत्प्रसङ्गे दर्शितानि ॥ श्रीभगवान् ॥
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