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श्रीभगवत् पापकत्वमाह, (भा० ११ १८०४५) -

(१४६) “भक्तयोद्धवानपायिन्या सर्व्वलोक महेश्वरम् ।

सर्वोत्पत्त्यप्ययं ब्रह्मकारणं मोपयाति सः ॥ ३८४ ॥

टीका च- “महेश्वरत्वे हेतुः, सर्वोत्पत्त्यप्ययं सर्व्वस्योत्पत्त्यप्ययौ यस्मात्, अतएव तत्- कारणं मा मां ब्रह्मस्वरूपं वैकुण्ठनिवासिनम्, यद्वा ब्रह्मणो वेदस्य कारणं मामुपयाति सामीप्येन प्राप्नोति” इत्येषा । श्रीगीतासु (८।२२) “पुरुषः स परः पार्थ भक्तया

भा० १२८।३६ में श्री कुन्ती देवी श्रीकृष्ण को कही थीं।

(१४५ ) " श्रृण्वन्ति गायन्ति गृणन्त्यभीक्ष्णशः, स्मरन्ति नन्दन्ति तवेहितं जनाः ।

त एव पश्यन्त्यचिरेण तावकं भवप्रवाहोपरमं पदाम्बुजम् ॥ ३८३ ॥

टीका - अस्य पक्षस्य सिद्धान्ततामभिप्रेत्य श्रवणादि फलमाह - श्रृपवन्तीति । नदन्ति, अन्यैः कीर्त्यमानमभिनन्दन्ति, ये जनाः । ईहितं चरितम् । तावकं त्वदीयं पदाम्बुजम् । त एव पश्यन्त्येव अचिरेणैवेति सर्वत्रावधारणम् । कीदृशं ? भव प्रवाहस्य जन्म परम्पराया उपरमो यस्मिन् तत् ॥

हे गोविन्द ! जो लोक, निरन्तर तुम्हारे चरित्र श्रवण, गान, कीर्तन, स्मरण, एवं अपर के द्वारा गीत का अभिनन्दन करते हैं, वे सब ही अति सत्वर आप के चरण कमल युगल का दर्शन करते हैं, जिस से संसार परम्परा की निवृत्ति होती है । इस श्लोक में ‘त एव’ का प्रयोग है, अर्थ है, वे सब ही दर्शन करते । ‘एव’ कार का प्रयोग होने के कारण ज्ञान कर्मादि साधन समूह के द्वारा दर्शन होने की सम्भावना निरस्त हुई है । इसका उल्लेख सुस्पष्ट है ।

श्रीकुत्ती श्रीभगवान् को कही थीं ॥ १४५॥

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एकमात्र अव्यभिचारिणी भक्ति के द्वारा हो श्रीभगवत् प्राप्ति होती है, उसका वर्णन भा० ११।१८।४५ में है–

(१४६) “भक्तयोद्धवानपायिन्या सर्व्वलोक-महेश्वरम् ।

सर्वोत्पत्त्यप्ययं ब्रह्मकारणं मोपयाति सः ॥ ३८४॥

श्रीकृष्ण कहे थे, हे उद्धव ! जो व्यक्ति पूर्व वर्णित लक्षणाक्रान्त भक्ति का अनुष्ठान करता है, वह ही अव्यभिचारिणी भक्ति सर्व लोक महेश्वर, सर्वोत्पत्ति विनाशक, सर्व कारण कारण विभु स्वरूप मुझ को प्रप्त करता है । मैं महेश्वर हूँ । कारण, मुझ से सब की उत्पत्ति होती है, एवं विनाश भी होता है । अतएव ही विश्व का उपादान कारण एवं निमित्त कारण हूँ। मैं विभु स्वरूप होकर भी वैकुण्ठ में निवास करता मैं हूँ । अथवा, मैं ही ब्रह्म शब्द वाच्य वेद का कारण हूँ। इस प्रकार अर्थ भी सुसङ्गत है, कारण, श्रीभगवद् गीता में उक्त है । “वेदान्त कृद् वेद विदेव चाहन्” अर्थात् मैं ही वेदन्त का कर्त्ता हूँ, एवं मैं ही वेदार्थ वित् हूँ । श्रुति में भी वर्णित है- “अस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेतत्” ‘ऋग्वेद’ इत्यादि । मूल श्लोक में “याति” क्रिया का प्रयोग है। उसके पहले ‘उप’ उपसर्ग का भी प्रयोग है । उस से ‘प्राप्ति’ - अर्थ सूचित हुआ है । श्रीभगवद् गीता में भी (८।२२) उक्त है - “पुरुषः स परः पार्थ ! भक्तयालभ्यस्त्वनन्यया”

लभ्यस्त्वनन्यया” इति ॥ श्रीभगवान् ॥

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