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भगवदनुभव-कर्तृत्वेऽनन्य हेतुत्वमाह, (भा० १८२३६) -

(१४५ ) " शृण्वन्ति गायन्ति गृणन्त्यभीक्ष्णशः, स्मरन्ति नन्दन्ति तवेहितं जनाः ।

स्पन्दन्ति वै तनुभृतामजशर्व योश्च

स्वस्याप्यथापि भजतामसि भावबन्धुः ॥ ३८२॥

अन्तर्यामी श्रीभगवान् ही प्राणादि इन्द्रिय वर्ग का प्रवर्त्तक हैं। उनकी प्रेरणा से ही तनु, वाक् मन, इन्द्रिय प्रभृति निज निज क्षेत्र में कार्य्यक्षम होत े हैं । अतएव श्रीभगवान् का स्तव करत े समय अपनी कुछ भी सामर्थ्य नहीं है, यह अनुभव करके श्रीमार्कण्डेय बोले थे,- हे विभो ! मैं कैसे आप का स्तव कर सकता हूँ ? आप के द्वारा प्रेरित होकर ही प्राण निःश्वासादि में क्रिया कारित्व होता है, आप की प्रेरणा से ही शरीर धारी जीव मात्र की, यहाँतक कि - ब्रह्मा, शिव, एवं मेरी वाक्यमन, इन्द्रिय प्रभृति ज्ञान एवं क्रिया शक्ति सम्पन्न होते हैं । अतएव किसी में भी स्वतन्त्र रूप से कुछ भी करने की सामर्थ्य नहीं हैं । तथापि आप के द्वारा प्रवर्तित वाक् प्रभृति इ-न्द्रय के द्वारा जो लोक आप का भजन करते रहते हैं, उनके पक्ष में आप के द्वारा प्रदत्त भक्ति के द्वारा ही आप उन सब के भावबन्धु रूप में प्रकाशित होते हैं । अर्थात् परम हित कारी रूप में उनसब भजन कारो के समक्ष में प्रकट होते हैं । अतएव मैं आप की परम कृपालुता के किस अंश का वर्णन कर सकता हूँ ? आप की प्रेरणा से ही इन्द्रिय प्रभृति निज क्षेत्र में प्रवृत्त होने में समर्थ हैं, आप की प्रेरणा व्यतीत कोई भी कुछ करने में सक्षम नहीं हैं, उसका वर्णन श्रुति ने इस प्रकार किया है- “श्रोत्रस्य श्रोत्रम्” अर्थात् श्रोत्र की श्रवण सामर्थ्य जिन के चिदाभास सम्बलन से ही प्रकाशित होती है। विधि एवं निषेध मुख उस विषय का वर्णन श्रुति में सुस्पष्ट रूप से ही हैं। केवल प्रकृत देह धारी व्यक्ति गण के प्रति आप की यह प्रेरणा है, यही नहीं, किन्तु अप्राकृत ब्रह्मा, एवं शङ्कर के सम्बन्ध में भी यही व्यवस्था है । अत मेरा सम्बन्ध में भी वही व्यवस्था है । काष्ठ पुतलिका को जिस प्रकार नट इच्छानुरूप परिचालित कर नृत्य कराता रहता है, उसकी क्षमता स्वयं की नहीं है । उसी प्रकार प्राकृत अप्राकृत निखिल जीव को आप जिस प्रकार प्रेरणा करते हैं, वे सब उस प्रकार निज निज कार्य क्षेत्र में कार्य्य करते रहते हैं । अतएव भजनांश में भी किसी का स्वातन्त्र्य नहीं है, जिस को जिस प्रकार भाव प्रदान कर प्रिय हितकारी भावबन्धु आप होते हैं, आप की प्रेरणा प्राप्त व्यक्ति भी उसी प्रकार आप का भजन करते हैं, आप स्वयं भक्ति प्रदान कर उस के सेव्य होते हैं । उक्त कथन का तात्पर्य यह है कि- भक्ति रूपाचित् शक्ति का आविर्भाव जीव हृदय होने का एक मात्र कारण ही श्रीभगवत् कृपा है ।

मार्कण्डेय श्रीनर नारायण को कहे थे ॥ १४४॥ १४५ । श्रीभगवान् की श्रवण कीर्त्तनादि रूपा विशुद्धा भक्ति को छोड़कर अपर किसी साधन से भगवदनुभव नहीं होता है ।

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त एव पश्यन्त्यचिरेण तावकं भवप्रवाहोपरमं पदाम्बुजम् ॥ ३८३ ॥ स्पष्टम् ॥ श्री कुन्ती श्रीभगवन्तम् ॥