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अतएव यद्यपि श्रीभगवान् परमानन्द स्वरूप होने के कारण ही निज स्वरूपानन्द में विभोर

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कल्पत इति दृष्टान्तेनाह, (भा० ११११।४-५ ) -

(१४३) “तत्रोपनीतवलयो रवेर्दीपमिवाहताः ।

आत्मारामं पूर्णकामं निजलाभेन नित्यदा ॥ ३८० ॥ प्रीत्युत्फुल्ल मुखाः प्रोचुर्हर्षगद्गदया गिरा ।

पितरं सर्व्व सुहृदमवितारमिवार्भकाः ॥ ३८१ ॥

तत्र श्रीद्वारकायाम्, रवेरुपहाररूपं दीपमादृतवन्तो जना इवेत्यर्थः । एवं स्तुत्यादिकमपि तत् प्रीणनतामर्हतीत्याह - प्रीत्येति । पितरमर्भका इवेति दृष्टान्तः । तस्य प्रीतावसाधारणं गुण विशेषमप्याह, - सर्व्वसुहृदमिति । सर्व्वसुहृत्त्वे लिङ्गम्– ‘अवितारम्’ इति । तथा आत्माराम पूर्ण कामत्वेऽपि तादृशस्य स्वसम्बन्धाभिमानि प्रीतिमत्पुत्रादिषु प्रीतिविशेषोदयो रहते हैं, तज्जन्य आप आत्माराम एवं पूर्णकाम हैं, तथापि क्षुद्र गुण सम्पन्न वस्तु भी उनके सन्तोष सम्पादन में योग्य है, इसका वर्णन भा० १।११।४-५ में उक्त दृष्टान्त के द्वारा करते हैं-

(१४३) “तत्रोपनीतवलयो रवेर्दीपमिवादृता ।

आत्मारामं पूर्णकामं निजलाभेन नित्यदा ॥ ३८० ॥ प्रीत्युत्फुल्ल मुखाः प्रोचुर्हर्षगद्गदया गिरा ।

पितरं सर्व्व सुहृदमवितारमिवार्भकाः ॥ ३८१ ॥

द्वारका वासि प्रजानृन्द, यद्यपि जानते थे कि - श्रीकृष्ण, आत्माराम एवं परमानन्द स्वरूप होने के कारण सर्वदा ही पूर्णकाम हैं, तथापि सूर्य्य पूजा में प्रदीप प्रदान के समान, द्वारका वासि प्रजावृन्द, वहाँपर विविध उपहार आनयन किये थे। एवं बालक गण, जिस प्रकार प्रीति संपृक्त हृदय से पिता को अनेक कुछ कहते हैं, उस प्रकार ही वे सब प्रीति प्रफुल्ल वदन से हर्षगद् गद वाक्य द्वारा सर्व लोक सुहृत् एवं रक्षक उन भगवान् श्रीकृष्ण को कहने लगे थे । तात्पर्य यह है कि - यद्यपि भगवान् परम आनन्द स्वरूप हैं, तथापि भक्ति पूर्वक उनका स्तव करने से सन्तुष्ट होते हैं। इस विषय में दृष्टान्त यह है - बालक वृन्द, जिस प्रकार परमविज्ञ पिता को प्राप्त कर कल वाक्य से तात्पर्य्य शून्य अनेक कुछ कहते हैं, पिता परम विज्ञ होने पर भी “अमृतं बालभाषितम् " इस उक्ति से सन्तोष प्राप्त करते हैं, उस प्रकार श्री भगवान् श्रीकृष्ण, समस्त शक्ति पति होकर भी निज भक्त वृन्द के प्रीति पूरित कण्ठ से कृत स्तुति से भी सन्तोष प्राप्त करते हैं। भक्त कृत स्तुति से भगवान् सन्तुष्ट होते हैं-उस में उनका असाधारण गुण विषय का वर्णन करते हैं । “सर्व सुहृदम्” अर्थात् आप सर्व जीव के हितकर बन्धु हैं। आप सर्व सुहृद हैं, उस में एक दृष्टान्त यह है– ‘अवितारम्’ अर्थात् सबके रक्षक हैं । अतएव आप आत्माराम एवं पूर्णकाम होकर भी निज सम्बन्धाभिमानी प्रीतियुक्त पुत्रादि के प्रति पिता प्रभृति की प्रीति जिस प्रकार होती है, उस प्रकार श्रीभगवान् के सहित दास सखा, प्रभृति सम्बन्ध के अभिमान कारी अथच श्रीभगवान् में जो लोक प्रीति युक्त हैं, उन सब भक्त के प्रति श्रीभगवान् आनन्द स्वरूप होकर भी प्रीति युक्त होते रहते हैं। इस प्रकार जहाँ जहाँ श्रीभगवान् को कल्प तरु स्थानीय कहकर दृष्टान्त दिया जाता है, वहाँ वहाँ समझना होगा कि - कल्पतरु जिस प्रकार आश्रित जन के सङ्कल्प पूरण करते हैं, श्रीभगवान् भी भक्ति विषय में अनुरूप कृपा प्रकाश उस प्रकार करते हैं। जो लोक, श्रीभगवच्चरणों में प्रीति कामना करके उनका भजन करते हैं - उन सब के प्रति अनुरूप प्रीति प्रदान का याथार्थ्य अवश्य स्वीकार्य है । कारण, कल्पतरु प्राथिव्यक्ति की प्रार्थना पूरण जिस प्रकार करते

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यथा दृश्यते, तथा तेषु तं प्रीतिमन्तमित्यर्थः । एवं कल्पतरुदृष्टान्तेऽपि भगवतो भक्ति विषयिका कृपा यथार्थमेवोपपद्यते, – ये खलु सहजतत्प्रीतिमेवात्मनि प्रार्थयमाना भजन्ते, तेभ्यस्तद्दान- याथार्थ्यस्यावश्यकत्वात् । तस्मादरत्येवानन्दरूपस्यापि भक्तावानन्दोल्लास इति । सूतः ॥ १४४ । एवं भक्तिरूपायास्तच्छक्तेर्जीवेऽभिव्यक्तौ भगवानेव कारणम् । तत्तदिन्द्रियादिप्रवृत्तौ च स एवेति तस्मिंस्तया जीवस्योपकारकाभासत्वमेव । तथापि भक्त नुरज्यदात्मत्वे भगवतः स्वकृपाप्राबल्यमेव कारणमिति वदत् पूर्व्वार्थमेव साधयति, (भा० १२२८।४०)

(१४४) “किं वर्णये तव विभो यदुदीरितोऽसुः

संस्पन्दते तमनु वाङ्मन इन्द्रियाणि ।

स्पन्दन्ति वै तनुभृतामज- शर्वयोश्च

स्वस्याप्यथापि भजतामस भावबन्धुः ॥ ३८२॥

हैं, एवं वाञ्छित पूरण करना धर्म जिस प्रकार आगन्तक अथवा अभिनय नहीं है, किन्तु स्वभाव सिद्ध है, उस प्रकार ही जो लोक, श्रीभगवान् के प्रति अकपट प्रीति प्रार्थना करके भजन करते हैं, उन सब को स्वयं के प्रति अकपट स्वाभाविक प्रीति प्रदान भी श्रीभगवान् का स्वरूप धर्म है, आगन्तुक वा अभिनय नहीं है। अतएव आनन्द स्वरूप श्रीभगवान् में भक्ति जनित आनन्दोत्लास अवश्य है ।

में

प्रकरण प्रवक्ता श्रीसूत हैं ॥ १४३ ॥ । १४४ । इस प्रकार भक्ति स्वरूपा भगवत् शक्ति का आविर्भाव जीव में होने का कारण श्रीभगवान् ही हैं। यद्यपि जीव मात्र की बुद्धि इन्द्रिय प्रभृति की स्वस्व विषय में प्रवृत्ति के प्रति कारण भी श्रीभगवान् ही है । इन्द्रिय वृन्द को निज निज विषयों में प्रवृत्ति प्रदान कर श्रीभगवान् जो उपकार करते रहते हैं, वह यथार्थतः उपकार नहीं है–उपकार का आभास मात्र है । तथापि श्रीभगवान् भक्त के प्रति जो अनुरक्त चित्त होत े हैं, उसका कारण ही है- श्रीभगवान् में असाधारणी कृपा का प्राबल्य । अर्थात् श्रीभगवान् की कृपा - साधारणी एवं असाधारणी भेद से द्विविध हैं, उस के मध्य भगवद् वहिर्मुख साधारण जीव मात्र के बुद्धीन्द्रिय प्रभृति को निज निज विषयों में प्रवृत्त होने की सामर्थ्य प्रदान, भगवान् करते हैं, वह उनकी असाधारणी कृपा है, अथवा, आपाततः दृष्टि से उसको कृपा मानतो हैं, किन्तु वह वास्तविक कृपा नहीं है । कारण, जड़ीय वस्तु भोग हेतु जीव मात्र के इन्द्रिय वृन्द को प्रवृत्ति प्रदान करके निज स्वरूपानन्दास्वादन से वञ्चित करना ही होता है, अतः उस साधारणी कृपा का नाम कृपाभास ही है। अपर कृपा - असाधारणी है, अर्थात् जिस कृपा से जीव, बुद्धीन्द्रिय द्वारा जड़ीय वस्त ग्रहण करने में अरुचि प्राप्त कर श्रीभगवत् स्वरूपानन्दास्वादन बुद्धीन्द्रिय के द्वारा करने में उन्मुख होता है। उसका नाम ही श्रीभगवान् की असाधारणी कृपा है। प्राप्त महत् सङ्ग सम्पन्न जीव ही इस प्रकार कृपा पाप्त करने का अधिकारी होता है, शास्त्र, इस कृपा को ही जीव के प्रति श्रीकृष्ण का परम कारुणिकत्व की अभिव्यक्ति कहते हैं। भक्त में श्रीभगवान् का चित्त जो अनुरक्त होता है, उस के प्रति श्रीभगवान् की निज कृपा ही मूल कारण है। इस को कहने के निमित्त भा० १२।८।४० में श्री मार्कण्डेय ऋषि पूर्व वर्णित तात्पर्य का वर्णन करते हैं-

(१४४) “कि वर्णये तवविभो यदुदीरितोऽसुः

संस्पन्दत े तमनु वाङ् मन इन्द्रियाणि ।

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हे विभो, तव किमहं वर्णये, -त्वत्कृपालुतायाः कियन्तमंशं वर्णयेयमित्यर्थः । यतो येन त्वयैव उदीरितः प्रेरितोऽसुः प्राणः संस्पन्दते प्रवर्त्तते, तमसुमनु च वागादयः स्पन्दन्ते । तत्र हेतुः - ‘वे’ अन्वयव्यतिरेकाभ्याम् (वृ० ४।४।१८) “श्रोत्रस्य श्रोत्रम्” इत्यादि श्रुतिभिश्च तत् प्रसिद्धमित्यर्थः । न केवलं प्राकृतानां तनुभृताम्, किन्तु अज-शर्वयोश्च । अतः स्वस्य ममापि तथैव । एवं यद्यपि न क्वचिदपि कस्यापि स्वातन्त्र्यम्, तथापि दारुयन्त्रवत् त्वत्प्रवत्तितैरपि वागादिभिर्भजतां पुंसां भावेन स्वदत्तयैव भक्तचा बन्धुरसीति ॥ मार्कण्डेयः श्रीनर-नारायणौ ।