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ननु निरतिशय- नित्यानन्दरूपस्य भगवतः कथं तया सुखमुत्पद्य ेत, निरतिशयत्व- नित्यत्वयोविरोधात् ? उच्यते, - शास्त्रे खलु निरतिशयानन्दत्वं नित्यत्वञ्च भगवतः श्रूयते,

होकर ही निकलें । कभी विषय प्रदान करते हैं, कभी तो सोचते हैं, विषय प्रार्थना से इसे मुक्त कर दूँ, अतः स्व चरण पद्म प्रदान जिस प्रकार करते हैं, उस प्रकार कभी भक्ति योग भी देते हैं, अर्थात् जब तक योग्य नहीं होता, अर्थात् विषय लोलुपता रहती है, तब तक भक्ति योग नहीं देते हैं । भक्ति प्राप्ति हेतु महती उत्कण्ठा होने से सत्त्वर प्रदान करते हैं ।

एकमात्र भक्ति योग के द्वारा ही भगवान् सन्तुष्ट होते हैं उसका उदाहरण भा० ७ ७१५१ में है -

“नालं द्विजत्वं देवत्वमृषित्वं वासुरत्मजाः ।

प्रीणनाय मुकुन्दस्य न वृत्तं न बहुज्ञता ॥”

श्रीप्रह्लाद ने असुर बालकों को कहा था - हे असुर बालक वृन्द ! द्विजत्व, देवत्व, ऋषित्व, बहु वैभव शालित्व किं वा बहु शास्त्राभिज्ञता मुकुन्द की प्रीति सम्प दन नहीं कर सकती है । उस प्रकार श्रीनृसिंह देव को स्तव करके प्रह्लाद कहे थे भा० हाह

(१४१) “मन्ये धनाभिजनरूपतपः श्रुतौज, स्तेजः प्रभाव-बल पौरुषबुद्धियोगाः ।

नाराधनाय हि भवन्ति परस्य पुंसो, भक्तचा तुतोष भगवान् गजयूथपाय ॥ ३७८ ॥

टीका - हरितोषणे स्वस्य योग्यतामाशङ्कय योग्यतां सम्भावयति मन्य इति द्वाभ्याम् । अभिजनः सत् कुले जन्म । रूपं - सौन्दर्य्यम् । श्रुतं पाण्डित्यम् । ओज इन्द्रिय नैपुण्यम् । तेजः कान्तिः । प्रभावः प्रतापः । बलं शरीरम् । पौरुषम् उद्यमः । बुद्धिः प्रज्ञा । योगोऽष्टाङ्गः । एते धनादयो द्वादशा अपि गुणाः परस्य पुंसः आराधनाय न भवन्ति । हि यतः केवलया भक्तैचव गजेन्द्राय तुष्टोऽभवत् ॥

मेरा विश्वास यह है कि-धन, सत् कुल में जन्म, रूप, तपस्या, वेदाभिज्ञता, ऐन्द्रियक बल, कान्ति, प्रताप, शरीरिक बल, उद्यम, ज्ञान योग एवं अष्टाङ्ग योग- इन द्वादशों के मध्य में हे परम पुरुष ! एक भी तुम्हारे सन्तोष विधान करने में समर्थ नहीं है । किन्तु एकमात्र भक्ति के द्वारा ही भगवान् प्रसन्न होते हैं, तज्जन्य केवल भक्ति से ही गजेन्द्र के प्रति भगवान् प्रसन्न हुये थे । उक्त प्रमाण द्वय के द्वारा प्रतिपादित हुआ कि - एकमात्र भक्ति द्वारा ही भगवान् भक्त के प्रति सु प्रसन्न होते हैं

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प्रह्लाद - श्रीनृसिंह देव को कहे थे ॥ १४१ ॥

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उक्त विषय में प्रश्न हो सकता है कि–निरतिशय नित्य आनन्द स्वरूप ही भगवान् हैं, उनका सन्तोष भक्ति के द्वारा कैसे हो सकता है। भक्ति के द्वारा भगवान् यद्यपि सन्तुष्ट होते हैं, तथापि भगवत् स्वरूपानन्द में निरतिशयत्व एवं नित्यत्व का व्याघात उपस्थित होता है। कारण, जो निरतिशय है,

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भक्तेरपि तथा तत्प्रीतिहेतुत्वं श्रूयते, तत एवं गम्यते, तस्य परमानन्दैकरूपस्य स्वपरानन्दनी स्वरूपशक्तिर्या हलादिनीनाम्नी वर्त्तते, प्रकाशवस्तुनः स्वपरप्रकाशन-शक्तिवत् तत्परमवृत्तिरूपैर्वषा । ताञ्च भगवान् स्ववृन्दे निक्षिपन्नेव नित्यं वर्त्तते । तत्सम्बन्धेन च स्वयमतितरां प्रीणातीति । अतएव तस्य प्रीतिरूपस्यापि भक्तिप्रीणनीयत्वमाह, (भा० ५।१५।१३) (१४२) “यत् प्रीणनाद्वहषि देव तिर्य्यङ् - मनुष्य वस्तृणमा विचित् ।

प्रीयेत सद्यः स ह विश्वजीवः, प्रीतिः स्वयं प्रीतिमगाद्गयस्य । " ३७६ ॥ विश्वजोवः सर्व्वजीवनहेतुः, देवादीनां द्वन्द्वैक्यम्, प्रीतिः सुखरूपोऽति । श्रीशुकः ॥ १४३ । अतएव तथाभूतत्वेनात्मारामस्य पूर्णकामस्यापि तस्य क्षुद्रगुणवस्त्वपि परितोषाय

अर्थात् जिस से अधिक अपर कुछ भी नहीं हैं, एवं जो ध्वंस प्रागभाव रहित है। उसका यदि अतिशय सुख होता है, तो निरतिशयत्व एवं नित्यत्व का व्याघात होना अवश्यम्भावी है। इस के उत्तर में कहते हैं- उच्यते । अर्थात् इस विषय में सार सिद्धान्त को कहते हैं। शास्त्र में श्रीभगवत् स्वरूप का वर्णन निरतिशय आनन्द एवं नित्य रूप में हुआ है । एवं भक्ति का वर्णन, भगवत् सुख हेतु रूप में हुआ है । अतएव उक्त वाक्य की सामञ्जस्यरक्षा करके ही सिद्धान्त करना समीचीन है । उस से बोध होता है कि-श्रीभगवान् अनन्तस्वरूप सम्पन्न होने पर भी मुख्य परमानन्द विग्रह हैं। उनकी ह्लादिनी नाम्नी जो स्वरूप शक्ति है– वह शक्ति श्रीभगवान् को स्वरूपानन्दास्वादन कराने में एवं भक्त वृन्द को भगवत् सेवा सुखास्वादन कराने में सक्षम है। जिस प्रकार सूर्य्य - निज प्रकाश शक्ति के द्वारा निज को एवं अपर वस्तु समूह को प्रकाशित करने में सक्षम है, उस प्रकार प्रकाश शील वस्तु का स्वभाव यह है कि वह स्वयं को एवं अपर को प्रकाश करने में समर्थ है, उस ह्लादिनी शक्ति की परम वृत्ति रूपा यह भक्ति है, उक्त शक्ति को भगवान् भक्त वृन्द में निक्षेप करके नित्य विद्यमान हैं। अतएव ह्लादिनी शक्ति की सार वृत्ति रूपा प्रीति लक्ष्णा भक्ति के द्वारा भगवान् अतिशय सन्तुष्ट होते हैं ।

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अतएव स्वयं सुखरूप श्रीभगवान् भक्ति से ही अतिशय प्रीत होते हैं–इस का उदाहरण भा० ५।१५।१३ में है-

(१४२) “यत् प्रीणनादुर्वार्हषि देव-तिर्य्यङ् - मनुष्य-वीरुत्तृणमाविरिचात् ।

प्रीयेत सद्यः स ह विश्वजीवः, प्रीतिः स्वयं प्रीतिमग द्गयस्य ॥ ३७६ ॥

टीका - यस्य भगवतः प्रीणनात् । देवादीनां द्वन्द्वेषयम्, तत् सद्यः प्रीयेत । प्रीतिं गच्छेत् । स विश्व जीवः सर्वान्तर्यामी स्वयं प्रीति रूप एव । वर्हिषि यज्ञ े गयस्य, ह स्फुटं - प्रीतिमगात्, तृप्तोऽस्मीति – प्रत्यक्षं प्रीतिमाविष्कृतवानित्यर्थः ।

विश्व जीव - शब्द का अर्थ- सर्व जीवन हेतु है । प्रीति- अर्थात् भगवान् सुख रूप होकर भी सुखी हुये थे । अर्थात् जो श्रीभगवान्, सन्तुष्ट होने पर देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी, लता, तृण, प्रभृति समस्त ब्रह्माण्ड तृप्त होते हैं, उन सर्व जीवन हेतु श्रीभगवान् स्वयं सुखरूप होकर भी गय राजा के यज्ञ में ‘तृप्तोऽस्मि’ ‘मैं परितृप्त हूँ ।’ इस प्रकार कहकर स्वीय तृप्ति को प्रकट किये थे ।

टीम

प्रवक्ता श्रीशुक हैं ॥१४२॥