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श्रीभगवद्विषयक - रतिप्रदत्वमुक्तम् (भा० ७।७।३३) “एवं निर्जितषड़, वर्गः क्रियते भक्तिरीश्वरे” इत्यादिना । यत्त (भा० ५।६।१८) “अस्त्वेवमङ्ग भजतां भगवान् मुकुन्दो, मुक्ति ददाति कर्हिचित् स्म न भक्तियोगम्” इत्युक्तचापि तद्रतिर्न प्राप्यत इति शङ्कयते, तत्

“कर्मन्यस्मिन्ननाश्वासे धूमभूम्रात्मनां भवान् आपाययति गोविन्द पादपद्मा सवं मधु 11”

टीका - किञ्च अस्मिन् कर्मणि स्त्रे अनाश्वासे अविश्वसनीये । वैगुण्यं बाहुल्येन फलति निश्चया भावात् । धूमेन धूम्रः विवर्ण आत्मा शरीरं येषां तान् अस्मान् । कर्म्मणि षष्ठी । आसवं मकरन्दं, मधु मधुरम् ।

श्रीशौनकादि ऋषि गण कहे थे - हे सूत ! विघ्न बाहुल्य वशतः फललाभ में अविश्वसनीय कर्मात्मक यज्ञीय धूम से हमारे शरीर एवं मन विवर्ण हो गये हैं। इस प्रकार हम सब को आप श्रीगोविन्द चरण कमल मधु आस्वादन कराकर आध्यायित कर रहे हैं। श्रीसुत एवं श्रीशौनकादि की उक्ति से श्रीभगवद् भक्ति की आनन्द स्वरूपता सुस्पष्ट रूप से प्रकाशित हुई है। साधन दशा में ही जब भक्ति आनन्द स्वरूपिणी है, तब सिद्ध दशा में भक्ति परि पूर्ण आनन्द स्वरूपिणी होकर सुतरां प्रकटित होती है । उस का वर्णन भा० ६।४।६७ में है -

(१४०) “मत् सेवया प्रतीतन्ते सालोक्यादिचतुष्टयम् ।

नेच्छन्ति सेवया पूर्णाः कुतोऽन्यत् कालविप्लुतम् ॥ " ३७७ ॥

श्रीवैकुण्ठनाथ - दुर्वासा को कहे थे - मुनिवर ! निष्काम भक वृन्द मेरी सेवा के द्वारा अनायास प्राप्त सालोक्यादि चतुविध मुक्ति को नहीं चाहते हैं, कारण वे सब सेवानन्द से ही परिपूर्ण काम होते हैं, सुतरां काल कवलीकृत स्वर्गादि सुख लिप्सु वे सब होते ही नहीं । स्वर्गादि सुख को काल विनाशी प्रति पादन करने के कारण - श्रीभगवत् सेवा रूपा भक्ति जो काल विनाशी नहीं है, वह सुस्पष्ट हुआ । अतएव भक्ति का निर्गुणत्व भी प्रति पादित हुआ 1

श्रीविष्णु दुर्वासा को कहे थे ॥ १४० ॥

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श्रीभगवद् विषयक प्रीति प्रदत्व का वर्णन भा० ७ ७१३३ में है-

“एवं निजित षड् वर्गेः क्रियते भक्तिरीश्वरे ।

वासुदेवे भगवति मया संलभ्यते रतिः ॥

टीका - निर्जितः षण्णां काम क्रोध लोभ मोह मद मात्सय्यीणाम् इन्द्रियाणां वा वर्गो यैः ।

श्रीप्रह्लाद, असुर बालक वृन्द को कहे थे - हे भ्रातृ वृन्द ! श्रीगुरु शुश्रूषा प्रभृति भक्तचङ्ग का अनुष्ठ न करते करते काम क्रोधादि षड्वर्ग अथवा इन्द्रियादि के वेग पराजित होते हैं । अनन्तर लय विक्षेप शू य हृदय में भगवद् भक्ति का अनुष्ठान करते करते भगवान् परमेश्वर वासुदेव में रतिलाभ होता है । इत्यादि वर्णनों से प्रतिपादित होता है कि- साधन भक्ति में श्रीभगवान् में रति प्रदान सामर्थ्य प्रचुर परिमाण में है । किन्तु भा० ५।६।१८ में उक्त है-

“राजन् पतिर्गुरुरलं भवतां यदूना दैवं प्रियः कुलपतिः क्वच किङ्करो वः ।

a

[[२७०]]

खल्वविवेकादेव, कर्हिचिदिति भक्तियोगाख्य तद्रतिपुरुषार्थतायां शैथिल्ये सत्येवेत्यर्थलाभात्, कर्हि चिदपीत्यनुक्तत्वात्, “असाकल्ये तु चिच्चनौ” इत्यमरकोषाञ्च । तथापि यद्यपि चिरमावृत्तिः स्यात्तदा रतिमपि ददाति, (भा०५।१६।२६) “सत्यं दिशत्यथितमर्थितो नृणाम्”

अस्त्वेवमङ्ग भजतां भगवान् मुकुन्दोमुक्ति ददाति कर्हिचित् स्म न भक्तियोगम् ॥

टीका - “ननु भगवतोऽतिसुलभत्वदर्शनात् मोक्षस्य चाति दुर्लभत्वादियमतिस्तुति रेवेत्याशङ्कयाह । हे राजन् ! भवतां पाण्डवानां यदूनाञ्च पतिः पालक, गुरुः, उपदेष्टा, देवमुपास्यः, प्रियः सुहृत् कुलस्य पतिनियन्ता, कि बहूना क्वच कदाचिद् दौत्यादिषु वः पाण्डवानां किङ्करोऽपि आज्ञानुवर्त्ती । अस्तु नामैवं तथापि अन्येषां नित्यं भजतामपि मुक्ति ददाति, नतु कदाचिदपि स प्रेमभक्ति योगम् ॥”

भगवान् मुकुन्द, निज पाद पद्म में भक्ति अनुष्ठानकारी भक्त वृन्द को मुक्ति दान करते हैं, किन्तु कभी भी “प्रेम भक्ति” दान नहीं करते हैं । इस उक्ति से प्रतीत होता कि, - साधन भक्ति के द्वारा भगवत् चरणों में रति लाभ नहीं होता है। इस प्रकार संशय उपस्थित होता है । किन्तु वह संशय, अविचार से ही उत्पन्न होता है, कारण, विचार करने से दृष्ट होता है कि–मूल श्लोक में “कर्हिचित् " पद का उल्लेख हुआ है, किन्तु कर्हिचिदपि पद का प्रयोग नहीं हुआ है । कारण- असाकल्य अर्थ में ही ‘चित् एवं चन’ प्रत्यय होता है । कारण, अमरकोष में उक्त है- “असाकल्येचित् चनौ” अर्थात् असर्वकाल, असर्वदेश, असर्व पात्र विशेष में ही ‘चित् एवं चन’ प्रत्यय का प्रयोग होता है। मूल में उल्लिखित ‘कर्हिचित्’ पद का अर्थ है, - कभी दान नहीं करते हैं । किन्तु यदि कहते कि - ‘कर्हिचिदपि’ तब अर्थ होता कभी भी नहीं देते । इस से उक्त आशङ्का होती । मूल श्लोकस्थ ‘कर्हिचित्’ पद से कभी दान नहीं करते हैं, इस प्रकार अर्थ होता है । कर्हिचित् शब्द के सहित अपि शब्द का प्रयोग न होने से समझना होगा कि - जिस रति का नाम भक्तियोग है, वह भक्ति योग नामक भगवद् रति ही परम पुरुषार्थ है। जब तक उस पुरुषार्थ में अर्थात् श्रीभगवान् में रति ही मूल प्रयोजन है, इस प्रकार निश्चयकर उस की प्राप्ति हेतु आकुल आकाङ्क्षा नहीं होती है, तब तक ही श्रीभगवान् भक्ति साधक को निज चरणार विन्द में प्रीति वा रति प्रदान नहीं करत पद से यही अर्थ होता है ।

। कर्हिचित् '

" तेषां सतत युक्तानां भजतां प्रीति पूर्वकम् ।

ददामि बुद्धि योगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥”

इस रीति से प्रीति पूर्वक सतत भजन यदि होता है, तो भगवान् रति भी प्रदान करते हैं, । ‘कर्हिचित्’ पदका सार्थक उदाहरण भा० ५।११।२६ में है-

“सत्यं दिशत्यथितो नृणां नैवार्थदो यत् पुनयिता यतः ।

स्वयं विधत्ते भजतामनिच्छतामिच्छा पिधानं निजपादपल्लवम् ॥”

टीका - तत्रापि निष्कामाः कृतार्था इत्याहुः सत्यमिति । प्रार्थितः सन् अर्थितं ददातीति सत्यं तथापि परमार्थदो न भवत्येव । यद् यस्मात् यतो दत्तादनन्तरं पुनरपि अर्थिता भवति । ननु नाथितश्चेत्, किमपि न दद्यात् इत्याशङ्कयाहुः । अनिच्छतां निष्का प्राणान्तु इच्छानां पिधानमाच्छादकं, सर्वकामपरिपूरकं निजपाद पल्लवं स्वयमेव सम्पादयति ॥

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प्रार्थित वस्तु प्रदान करने से पुनर्वार अतृप्त होकर प्राप्त करने की वासना होती है, अतः एक समय वैसा ही करते हैं, जिस से प्रार्थना करने का विवर सुरभित हो जाय, अर्थात् विषय तृष्णा उद्गम विवर में निज पद पल्लव ही दे देते हैं, जिससे समस्त तृष्णा श्रीचरणारविन्द की दास्य गन्ध से सुरभित

इत्यादेरिति च कर्हिचित्–पदेन गम्यते ।

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भक्तविषयक- भगवत् प्रीत्येकहेतुत्वमप्युदाहृतम् (भा० ७ ७ ५१) “नालं द्विजत्वं देवत्वम्” इत्यादि । तथा चाह (भा० ७हाह) -

(१४१) “मन्ये धनाभिजन रूपतपः श्रुतौज, स्तेजः प्रभाव-बलपौरुष बुद्धियोगाः ।

नाराधनाय हि भवन्ति परस्य पुंसो, भक्तया तुतोष भगवान् गजयूथपाय ॥ ३७८ अभिजनः सत्कुलजन्म, बुद्धिर्ज्ञानयोगः, योगोऽष्टाङ्गः ॥ प्रह्लादः श्रीनृसिंहदेवम् ॥