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परमसुखरूपत्वञ्च दृश्यते । तत्र साधनदशायाम् (भा० १।२।२२) “अतो वे कवयो नित्यं भक्ति परमया मुदा" इत्यादी, (भा० १।१८ १२) “कर्म्मण्यस्मिन्ननाश्व से” इत्यादौ च तद्रूपत्वाभिव्यक्ति-दर्शितैव । सिद्धदशायान्तु सुतरां तत् प्रकटोभवति, यथा ( भा० ६।४।३७)
(१३ ) ’ यज्ञाय धर्म्मपतये विधिनैपुणाय, योगाय सांख्यशिरसे प्रकृतीश्वराय ।
नारायणाय हरये नम इत्युदारं, हास्यन् मृगत्वमपि यः समुदाजहार ॥ ३७६ ॥
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टीका-तस्य सेवनुरागमाह । यज्ञायेति । यज्ञ रूपाय धर्मपत्ये यज्ञादि फलवाते । विधौ नैपुण्यं यस्यतस्मै धर्मानुष्ठात्रे योगोऽष्टाङ्गस्तस्मै । सांख्यं ज्ञानं तच्छिरः, प्रधान फलं यस्तु तस्मै योगाय । प्रकृतीश्वराय - मायानियन्त्रे, अतएव नारं, जीव समूह, अरणमाश्रयो यस्य तस्मै सर्व जीव नियते । एवं कर्म ज्ञान देवता काण्डैः प्रति पादिताय हरये नम इति उदारम् उच्चः यः सम्यगुच्चारितवान् । मृगत्वं, मृगदेहमपि हास्यन् त्यक्षन् । य एवम्भूतः तस्य तदुचितमिति वा, तस्यानुवर्त्म नार्हतीति वा सम्बन्धः ।
महा भागवत भरत, द्वितीय जन्म में मृगदेह प्राप्त किये थे, किन्तु पूर्व जन्म के संस्कार हेतु मृगदेह त्याग के समय उन्होंने उच्चःश्वर से कहा था- ‘जो यज्ञ पुरुष, यज्ञादि फल दाता, यथाविधि धर्मानुष्ठान कारी, अष्टाङ्ग योग स्वरूप, आत्मानात्म विवेक के मूल स्वरूप, मायानियन्ता, सर्व जीवान्तर्यामी हैं, उन श्रीहरि को नमस्कार करता हूँ । अर्थात् जो कर्म, ज्ञान, एवं देवता काण्ड के प्रति पाद्य हैं, उन श्रीहरि को मैं आत्म समर्पण कर रहा हूँ। इस प्रकार कहते कहते मृगदेह को परित्याग किये थे । इस प्रकरण में ज्ञातव्य यह है कि भरत - मृत्यु यन्त्रणाग्रस्त थे, उस में भी मृग शरीर में श्रीभगवन् नामात्मक वावयस्फूति होना अत्यन्त असम्भव है । कारण, पशु पक्षी प्रभृति शरीर में जो रसना है, उस में ध्वनि उच्चारित होने की ही सम्भावना है, किन्तु हरि, कृष्ण प्रभृति वर्णोच्चारण की सामर्थ्य नहीं है । एक ओर मृत्यु समय दूसरी ओर मृगशरीर, उस में भी भरत ने सुस्पष्ट रूप से श्रीभगवन्नामोच्च रण किया था। इस से सुस्पष्ट प्रतीत होता है कि, वह कीर्त्तन लक्षणा भक्ति, रसना की अपेक्षा नहीं करती–किन्तु स्वयं प्रकाशित होती है। श्रीहरि भक्ति, यदि स्वरूप शक्ति की वृत्ति स्वरूपा नहीं होती तो जिह्वा प्रभृति की अपेक्षा न करके स्वयं प्रकाशित नहीं हो सकती । इस प्रकार गजराज के विषय में भी जानना होगा ।
प्रवक्ता श्रीशुक हैं । १३६ ॥ १४० । भगवद् भक्ति- परम सुख स्वरूपिणी है, उसका वर्णन श्रीमद्भागवत में है। उसके मध्य में साधन अवस्था में भक्ति का परम सुख रूपत्वका वर्णन भा० १।२।२२ में है-
“अतो वै कवयो नित्यं भक्ति परमया मुदा ।
वासुदेवे भगवति कुर्वन्त्यात्मप्रसादनीम् ॥”
टीका-तत्र सदाचारं दर्शयन् उपसंहरति अत इति । आत्म प्रसदनों मनः शोधनों वासुदेवे भक्त कुर्वन्तीति भजनीय विशेषोदर्शितः ।
FE 17PR
में
अतएव सुविज्ञ जन, परम आनन्द के सहित भगवान् श्रीवासुदेव में नित्य मनः शोधनी भक्ति करते रहते हैं । इस श्लोक में ‘परमया मुदा’ इस प्रकार उल्लेख के द्वारा साधन दशा में भी भक्ति परमानन्द धर्म प्रदर्शित हुआ है । उस प्रकार भा० १।१८।१२ में वर्णित है-
अनुष्ठान
।
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(१४०) “मत्सेवया प्रतीतन्ते सालोक्यादिचतुष्टयम्
नेच्छन्ति सेवया पूर्णाः कुतोऽन्यत् कालविप्लुतम् ॥ ३७७॥
अनान्यस्य कालविप्लुतत्वमिति सेवायास्तदभावप्राप्त निर्गुणत्वं सिद्धम् । अत्र कालविप्लुतं सालोक्यादिभ्यो ऽतिशये तु किमुतेति ॥ श्रीविष्णुदुव्र्वाससम् ॥