२४२ १३८
अत आह, (मा० ६ २१२४ ) -
(१३८) “धम्मं भागवतं शुद्धं तं वेद्यञ्च गुणाश्रयम्” इति ।
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“शुद्धं निर्गुणम्, वेद्य ं वेदत्रयप्रतिपाद्यं गुणाश्रयम्” इति टीका च । वेद- शब्देनात्र कर्मकाण्डमेवोच्यते, (गी हा२१) – “एवं त्रयीधर्म्मम्” इत्यादेः ॥ श्रीशुकः ।
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अतएव भक्तेः श्रीभगवत् स्वरूपशक्तित्वबोधकं स्वयंप्रकाशत्वमाह, (भा० ५।१४।४५) (१३६) “यज्ञाय धर्म्मपत्ये विधिनैपुणाय, योगाय सांख्यशिरसे प्रकृतीश्वराय ।
नारायणाय हरये नम इत्युदारं, हास्यत् मृगत्वमपि यः समुदाजहार ॥” ३७६
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उक्त रीति से भगवत् सम्बन्धि क्रिया मात्र का निर्गुणत्व कहकर भगवत् सम्बन्धीय क्रिया करने की हेतु रूपा श्रद्धा का निर्गुण कहते हैं- (भा० ११।२५।२०)
(१३७) “सात्त्विक्याध्यात्मिकी श्रद्धा कर्म्मश्रद्धा तु राजसी ।
तामस्यधर्मे या श्रद्धा मत् सेवायान्तु निर्गुणा ॥ " ३७५।
टीका - अधर्मे धर्म इति या श्रद्धा सा तामसी ।
अध्यात्म तत्त्व विषय में जो श्रद्धा-वह सात्विकी है, कर्मानुष्ठान में जो श्रद्धा, वह राजसी है, अपर धर्म में जो श्रद्धा है, वह तामसी है, किन्तु मेरी सेवा हेतु जो श्रद्धा है, वह निर्गुणा है । अधर्म शब्द का अर्थ- अपर धर्म है ।
श्रीभगवान् कहे थे ।१३७॥
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अतएव श्रीशुकदेवने (भा० ६।२।२४ ) में कहा है
(१३८) “धम्मं भागवतं शुद्धं त्रवेद्यश्व गुणाश्रयम् " इति ।
टीका - त्रैवेद्य-वेद त्रय प्रतिपाद्यं गुणाश्रयं यमदूतानां धर्मं कृष्णदूतानाञ्च भागवतं भगवत् प्रणीतं, शुद्ध, निर्गुणं धर्ममाकर्ण्योति योज्यम् । भक्तिमानासीदित्युत्तरस्यानुषङ्गः ।
हे राजन् ! भगवत् प्रणीत धर्म शुद्ध है, अर्थात् मायागुण संस्पर्श रहित होने के कारण निर्गुण है । श्रीविष्णु दूत गण के द्वारा वर्णित भागवत धर्म को अजामिल सुने थे, एवं यमदूतगण कर्त्तृ के वर्णित वेदत्रय प्रतिपाद्य त्रिगुणमय धर्म को भी सुने थे । तत् पश्चात् श्रोविष्णु दूतगण द्वारा वर्णित भागवत धर्म श्रवण करके तत् क्षणात् श्रीभगवान् में भक्तिमान् भी हुये थे । यहाँ वेद शब्द से कर्मकाण्ड ही लक्षित हुआ है । कारण गीता में ६।२१ में उक्त है-
“एवं त्रयी धर्ममनुप्रपन्ना गतागतं काम कामा लभन्ते” ॥
प्रवत्ता श्रीशुक हैं- १३८ ॥