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तदेवं क्रियामात्रस्य तादृशत्वमुक्त्वा तत्प्रवृत्तिहेतुभूतायाः श्रद्धाया अप्याह,

समष्टि रूप वन, रजस्तमः प्रधान है, किन्तु उस में रहने की प्रवृत्ति सात्त्विक है, वन में रहते रहते सत्त्व गुण की वृद्धि होती है, तज्जन्य ‘बनेवासः’ को सात्त्विक कहा गया है। इस प्रकार ग्राम एवं द्यूतसदन को भी जानना होगा । श्री भगवन् मन्दिर किन्तु स्वरूपतः ही निर्गुण है, मन्दिर में निवास करने से सत्त्वगुण की वृद्धि होती है, तज्जन्य निर्गुण है, ऐसा नहीं हैं। किन्तु श्रीभगवन् मन्दिर का निर्गुणत्व की उपलब्धि, भगवत् सेवा परायण भक्त वृन्द के नेत्र से ही होती है। जिस प्रकार क्षेत्र माहात्म्य प्रसङ्ग में कथित है,

“दिविष्ठास व पश्यन्ति सर्वानेव चतुर्भुजान् ।”

अर्थात् देवगण - क्षेत्र वासिगण को चतुर्भुज रूप में देखते हैं, किन्तु साधारण लोक नहीं देखते हैं । श्रीभगवन्मन्दिर के सम्बन्ध में भी उस प्रकार जानना होगा । श्रीधर स्वामिपाद कृत टीका का यही अभिप्राय है ।

“भगवन् निकेतन्तु साक्षात् तदाविर्भावात् निर्गुणं स्थानम्

"

अर्थात् श्रीभगवान् के निकेतन किन्तु साक्षात् उनका आविर्भाव हेतु निर्गुणस्थान है ॥ १३५ ॥ १३६ । इस प्रकार श्रीभगवन् मन्दिर में केवल मात्र रहने को ही निर्गुण कहकर भगवत् सम्बन्धि निखिल क्रिया का ही निर्गुणत्व वर्णन स्वयं श्रीकृष्ण करते हैं (भा० ११।२५।२६)

(१३६) “सात्त्विकः कारकोऽसङ्गी रागान्धो राजसः स्मृतः ।

तामसः स्मृतिविभ्रष्टो निर्गुणो मदपाश्रयः ॥ ३७४ ॥

टीका - कारकः कर्त्ता, असङ्गी-अनासक्तः । रागान्धोऽत्यभिनिवेशवान् । स्मृतिविष्टो अनुसन्धान शूयः मदपाश्रयो मदेक शरण " स हि निरहङ्कारत्वात् निर्गुणः ॥

अनासक्त भाव से जो व्यक्ति कर्म करता है, वह कर्त्ता सात्त्विक है, जो कर्त्ता, फललाभ हेतु अभिनिविष्ट है, वह राजस है, जो व्यक्ति, अनुसन्धान रहित होकर कार्य करता है। वह तामस है। जो व्यक्ति, एकमात्र मुझ में शरणागत है, वह निर्गुण है । यहाँ समझने की बात है कि-क्रिया में ही सात्विक, राजसिक, तामसिक सत्त्व का तात्पर्थ्य है, किन्तु क्रियाश्रय द्रव्य में नहीं । कारण, जो सात्त्विक कार्य्यं करता है, उस का शरीर सत्त्व, रजः तमोगुण का ही विकार है ॥१३६॥

श्रीभक्ति सन्दर्भः

(भा० ११।२५।२७) -

(१३७) “सात्त्विक्याध्यात्मिकी श्रद्धा कर्म्मश्रद्धा तु राजसी ।

(तामस्यधर्मे या श्रद्धा मत्सेवायान्तु निर्गुणा ॥ " ३७५॥

अधर्मोऽपरधर्म्मः, अन्यत् पूर्व्ववत् ॥ श्रीभगवान् ॥