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तदेवमभिप्रेत्य ज्ञानरूपाया भक्तेनिर्गुणत्वमुक्त्वा क्रियारूपाया व्याचष्टे । तत्राप्यस्तु तावत् श्रवणकीर्त्तनादिरूपायाः, भगवत्सम्बन्धेन वासमात्ररूपाया आह, (भा० ११।२५।२५)
(१३५) “वनन्तु सात्त्विको वासो ग्राम्यो राजस उच्यते ।
ि तामसं तसदनंम निकेतन्तु निर्गुणम् ॥ ३७३ ॥
हे राजन् ! मानववृन्द, - प्राण, धन, कर्म, मनः, वाक्य समूह द्वारा देह, पुत्र प्रभृति के प्रति जो कुछ करते हैं - वह सब ही असत् हैं, अर्थात् वृथा है, कारण, सर्वाश्रय परमात्म स्वरूप के प्रति दृष्टि न होने से शाखा में जल सिञ्चन के समान अनेक अनुष्ठान करके भी आत्मप्रसाद लाभ नहीं होता है। कारण, प्रतिदेह में आत्मा पृथक् हैं, अतः पुत्र के प्रति प्रीति करने पर पिता का प्रीति साधन नहीं होता है । इस प्रकार पिता का प्रीति साधन करने से माता का प्रीति साधन नहीं होता है । किन्तु परमेश्वर प्रीत्यर्थ प्राण, धन, मनः वाक्य प्रभृति के द्वारा जो कुछ आचरित होता है, वह वृक्ष के मूलदेश सेचन के तुल्य महाफल प्रद होता है, अर्थात् जिस प्रकार वृक्ष के मूल देश में जल सेचन करने पर शाखा पल्लवादि का सन्तोष होता है, उस प्रकार समस्त शरीर में अन्तर्य्यामी रूप में विद्यमान परमेश्वर की उपासना करने से देह, पुत्र, स्वजन, बन्धु, बान्धव, देवता, गन्धर्व प्रभृति सब को परम सन्तोष होता है, कारण, समस्त देह में एक ही परमेश्वर अन्तर्यामी रूप में विद्यमान हैं ।
मूल श्लोक में “पृथक्त्वात् " पद का उल्लेख है । अर्थात् परमात्माभिन्न वस्तु को आश्रय करके प्रवृत्त होने के कारण - वह असत् है । और “अपृथक्त्वात् " पदका अर्थ है– एकमात्र परमेश्वर को आश्रय करके प्रवृत्त होने के कारण वह सत् है । अतएव निखिल ज्ञान एवं क्रिया शक्ति परमेश्वर के चिद् आभास सम्बलित होकर ही प्रकाशित होती हैं । स्वतन्त्र रूप में जड़ीय देहेन्द्रियादि की ज्ञान एवं क्रिया शक्ति प्रकाश में सामर्थ्य नहीं है । तज्जन्य- परमेश्वर ही निखिल ज्ञान एवं क्रिया शक्ति का प्रवर्तक हैं । अथच उक्त ज्ञान एवं क्रिया शक्ति का विनियोग यदि परमेश्वर के उद्देश्य में होता है तो वह ज्ञान एवं क्रिया शक्ति का निर्गुण क्यों नहीं होगा ? अतएव ज्ञान एवं क्रिया स्वरूप श्रीहरि भक्ति जो निर्गुण है, यह कथन अतिशय युक्ति युक्त है। विशेष कथा यह है कि - श्रीहरि भक्ति कदापि सत्त्वादि गुण सम्बन्ध में आविर्भूत नहीं होती है। किन्तु, ब्रह्म ज्ञान, सत्व गुण सम्बन्ध में ही आविर्भूत होता है, अतएव निर्गुणा भक्ति जो, श्रीभगवान् के भी सुखप्रद गुण समूह के द्वारा अलङ्कृता है, उसका सप्रमाण वर्णन अग्रिम ग्रन्थ में होगा तृतीयस्कन्ध में श्रीकपिल देवने भक्ति की अवस्था का वर्णन निर्गुण सगुण रूप में किया है, वह भक्ति साधक के अन्तः करण में स्थित सत्त्व रजः एवं तमो गुण का ही उपचार भक्ति में किया है । यह सिद्धान्त सुस्थिर हुआ है ॥ १३४ ॥
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श्रीभगवान् उक्त अभिप्राय से ही ज्ञान रूप भक्ति का निर्गुणत्व को कह कर क्रिया रूप भक्ति का निर्गुणत्व का वर्णन करते हैं । उस के मध्य में श्रवण कीर्त्तनादि रूपा भक्ति जो सर्वथा निर्गुण है, उस में कोई संशय नहीं है । भगवत् सम्बन्ध विद्यमान होने के कारण, भगवन्मन्दिर में निवास करना रूप भक्ति भी निर्गुण है, उसका वर्णन भा० ११।२५३२५ में है
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‘वनं वासः’ इति तत्सम्बन्धिनी वसनक्रियेत्यर्थः, वाणप्रस्थानामिति ज्ञ ेयम् । एवं ग्राम्य “इति गृहस्थानाम्, तामसमिति दुराचाराणाम्, द्यतसदनमित्युपलक्षणम्, मनिकेतमिति मत् सेवापराणामिति च वनादीनां वासेन सह “आयुर्धृतम्” इतिवदेकाधिकरणत्वम् । वनस्थ वृक्षषण्डरूपस्य रजस्तमः प्राधान्यादत एव विविक्तत्वलक्षण- तदीयसात्विक गुणस्यापि तद्- युगलमिश्रत्वेन गौणत्वम् । वासक्रियायास्तु सत्त्वोत्पन्नत्वात्तद्-वर्द्धनत्वाच्च सात्त्विकत्वे मुख्यत्वमिति तस्या एवाभिधेयत्वमुचितम् । अतएव ग्राम्य इति तद्धितान्त एव पठितः । एवं
(१३५) वनन्तु सात्त्विको वासो ग्राम्यो राजस उच्यते ।
तामसं द्यूतसदनं मनिकेतन्तु निर्गुणम् ॥ ३७३ ॥
टीका - वनं विविक्तत्वाद् सात्त्विको वासः । भगवन्निकेतनन्तु साक्षात् तदाविर्भावान्निर्गुणं स्थानम् । वान प्रस्थाश्रमिवृन्द की वन सम्बन्धिनी टास क्रिया साविक है. इस प्रकार गृहस्थगण के ग्राम में निवाप करना राजस है, दुराचार व्यक्ति वृन्द के निवास जहाँ पर होता है, अर्थात् जूया, मद्यपान, मिथ्या प्रवञ्चना जहाँगर होती रहती है, वहाँ निवास करना तामस है । किन्तु भगवत् सेवापरायण भक्त वृन्द के श्रीभगवन्मन्दिर में निवास करना, निर्गुण है, यहाँ ज्ञातव्य यह है कि- वन, ग्राम, द्यूतसदन, प्रभृति में वास क्रिया के सहित एकाधिकरणता कही गई है ।
कारण, “६नेवासः सात्त्विकः " इस प्रकार प्रकाश करने से इस प्रकार अर्थ होता है-
अर्थात् “वनं वासः” इस प्रकार उल्लेख श्लोक में होने के आधार आधेय उल्लेख न करके “बनं एवं दास को एकाधार में जिस प्रकार “आयुर्धृतं " अर्थात् आयु ही घृत है, आपाततः इस प्रकार अर्थ बोध होता है। वस्तुतः घृत आयुष्कर है, तज्जन्य आयुष्कारण घृत के सहित अभेदोक्ति हुई है, प्रस्तुत स्थल में भी वैसा जानना होगा । रजस्तम गुण के प्राधान्य हेतु यहाँ प्रश्न हो सकता है कि- वृक्ष समष्टि का नाम ही वन है, वृक्ष समूह भी रजस्तमोगुण प्रधान हैं, ऐसा होने पर रजस्तमः प्रधान वन का सात्विकत्व कैसे हो सकता है ? उत्तर में कहते हैं, - यद्यपि वन, रजस्तमः प्रधान है, तथापि निर्जन होने के कारण, वन का एक सात्विक गुण
भी है । किन्तु सात्त्विक गुण विद्यमान होने पर भी रजस्तमो गुण मिश्रित होने के कारण, वन का निर्जनता रूप सात्विक गुण भी गौण है । किन्तु वन में निवास क्रिया सत्व गुण से उत्पन्न होने के कारण एवं सत्त्व गुण
वर्द्धक हेतु सात्त्विक धर्म का मुख्यत्व है । अर्थात् साधक के हृदय में जब सत्त्व गुण प्रकाशित होता है, तभी निर्जन वन में वास करने की प्रवृत्ति होती है। एवं निर्जन वन में रहते रहते सत्त्व गुण की वृद्धि होती है । तज्जन्य वन में वास रूप क्रिया मुख्य सात्त्विक है । अतएव “वनेवासः” क्रिया का ही अभिधेयत्व है, अर्थात् कर्त्तव्य विहित है । अतएव ‘ग्राम्य’ पद का उल्लेख तद्धितान्त रूप में हुआ है । अर्थात् " ग्रामेवासः ग्राम्यः” इस प्रकार उल्लेख हुआ है। अभिप्राय यह है कि - ग्राम में निवास करने पर भोग वासनारूप रजोगुण का उद्गम होता है, एवं भोग वासना रूप रजोगुणाक्रान्त हृदय होने से ही ग्राम में वास करने की प्रवृत्ति होती है । तज्जन्य ग्राम में निवास को राजस कहा गया है। इस प्रकार “द्यूत सदनं” स्थल में भी वास किया हो अभिप्रेत है । अर्थात् जिस समय तमो गुण प्रबल होता है, उस समय उक्त स्थान में रहने की प्रवृत्ति होती है । वहाँ रहते रहते तमो गुण की वृद्धि अत्यधिक होती है । इस अभिप्राय से ही द्यूतसदन को तामस कहा गया है । मन्निकेतन-निर्गुण है । अर्थात् मेरा मन्दिर निर्गुण है । जिस प्रकार स्पर्श मणि के स्पर्श से लौह भी स्वर्ण होता है, उस प्रकार सच्चिदानन्द स्वरूप भगवत् सम्बन्ध माहात्म्य से प्रकृत इष्टकादि द्वारा निर्मित भगवान् के मन्दिर भी निर्गुण होता है । यहाँ ज्ञातव्य यह है कि - वृक्ष
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‘द्यूतसदनम्’ इत्यत्र च वास क्रियैव विवक्षिता, ‘मन्निकेतम्’ इत्यत्रापि, किन्तु भगवत् सम्बन्ध- माहात्म्येन निकेतस्थापि निर्गुणत्वं भवेत्, स्पर्शमणि न्यायेन । तादृशत्वन्तु तादृशभक्ति- चक्षुभिरेवोपलब्धव्यम् ( ब्राह्मे ) – “दिविष्ठास्तत्र पश्यन्ति सर्व्वानेव चतुर्भुजान् " इतिवत् । एवमेव टीका च - “भगवन्निकेतन्तु साक्षात्तदाविर्भावान्निर्गुणं स्थानम्” इत्येषा ॥