१३४

२३६ १३४

अथानुष्ठानान्तराणां त्रिगुणा तर्गतत्वं वदन चतुर्थव क्षायां स क्षाद्भक्तेनिर्गुणत्वमाह चतुर्षु, (भा० ११।२५।२४) -

(१३४) “कैवल्यं सात्त्विकं ज्ञानं रजो वैकल्पिकन्तु यत् ।

प्राकृतं तामसं ज्ञानं मन्निष्ठं निर्गुणं स्मृतम् ॥ ३६२॥

प्राकृतं बालमूकादि–ज्ञानतुल्यम्, वैकल्पिकं देहादिविषयं यत्तद् जो राजसम्, केवलस्य निर्विशेषस्य ब्रह्मणः शुद्धजीव भेदेन ज्ञानं कैवल्यम् त्वं पदार्थमात्रज्ञानस्य कैवल्यत्वानुपपत्तिः, तत्-पदार्थज्ञानसापेक्षत्वात् । सत्त्वयुक्ते हि चित्ते प्रथमतः शुद्धं सूक्ष्मं जीवचैतन्यं प्रकाशते, ततश्चिदेका-कारत्वाभेदेन तस्मिन् शुद्धं पूर्णं ब्रह्मचैतन्यमप्यनुभूयते, ततः सत्त्वगुणस्यैव तत्र कारणताप्राचुर्य्यात् सात्त्विकत्वम्, तथा च श्रीगीतोपनिषदि (१४।१७) — “सत्त्वात् सञ्जायते ज्ञानम्” इत्यादि । भगवज्ज्ञानस्य तु, (भा० ६ १४१३ ५) -

राजसं फल सङ्कल्पं हिसा प्रायादि तामसम् ॥” ३६१॥

श्रीकृष्ण ने कहा हे उद्धव ! जो कर्म मुझ को अर्पित होता है । वह मर्दार्पित कर्म है, एवं जो कर्म ऐहिकपारलौकिक सुख भोग कामना शून्य है, यह सब निज कृत कर्म- सात्त्विक हैं। फल प्राप्ति हेतु जिस कर्म में सङ्कल्प होता है, वह राजस कर्म है, जिस कर्म में हिंसा, दम्भ, एवं मात्सर्य होता है । वह कर्म तामस है ।

जो कर्म मुझ को अर्पण किया जाता है, उसको मदर्पित कर्म कहते हैं, निष्फल शब्द से निष्काम कर्म को जानना होगा, जिस कर्म में फल का सङ्कल्प होता है, उसको फल स्ङ्कल्प कहते हैं। श्लोकस्थ आदि शब्द से दम्भ, मात्सर्य प्रभृति के द्वारा अनुष्ठित कर्म को भी तामस कर्म जानना चाहिये ॥ १३३॥

२३७ १३४

अनन्तर अन्यान्य अनुष्ठान समूह को त्रिगुणान्तर्गतत्व को कहते हुये साक्षात् भक्ति का निर्गुणत्व का कथन चार श्लोकों में करते हैं । भा० ११।२५।२४ में उक्त है-

[[1]]

(१३४) “केवल्यं सात्विकं ज्ञानं रजो वैकल्पिकन्तु यत् ।

प्राकृतं तामसं ज्ञानं मत्रिष्ठं निर्गुणं स्मृतम् ॥ " ३६२॥

हे उद्धव ! बालमूकादि के तुल्य ज्ञान तामस है। देहादि विषयक जो ज्ञान वह वैकल्पिक अर्थात् राजस है । निर्विशेष ब्रह्म के सहित शुद्ध जीव चैतन्य का अभेदानुसन्धानात्मक कैवल्य ज्ञान सात्त्विक है । केवल ‘त्वं’ पदार्थ जीव चैतन्य का ज्ञान से कैवल्य की सम्भावना नहीं है। कारण, ‘तत्’ पदार्थ ज्ञान व्यतीत कैवल्य नहीं हो सकता है। सत्त्व युक्त चित्त में प्रथम सूक्ष्म, शुद्ध जीव चैतन्य प्रकाशित होता है, अनन्तर उस चित्त में चंन्य साम्य से अभेदानुसन्धान के द्वारा एकाकार रूप में शुद्ध पूर्ण ब्रह्म चैतन्य अनुभूत होता है । अर्थात् यद्यपि जीव चैतन्य अणु है, एवं ब्रह्म चैतन्य विभु है, इस अणुत्व एवं विभुत्व अंश में जीव चैतन्य के सहित विभु चैतन्य भेद विद्यमान है, तथापि, जीव भी चैतन्य स्वरूप है, एवं ब्रह्म भी चैतन्य स्वरूप है, इस अंश में अभेद विद्यमान होने के कारण ब्रह्म चैतन्य के सहित ब्रह्म चैतन्य का एकाकार अनुभव होता है । तज्जन्य सत्त्व गुण में ही कैवल्य ज्ञान की प्रचुर कारणता है, अतः कैवल्य ज्ञानको सात्त्विक कहा गया है ।

[[२५६]]

“देवानां शुद्धसत्त्वानामृषीणाञ्चामात्मनाम् । भक्तिर्मुकुन्दचरणे न प्रायेणोपजायते ॥ ३६३

मुक्तानामपि सिद्धानां नारायणपरायणः ।

सुदुर्लभः प्रशान्तात्मा कोटिष्वपि महामुने ॥ " ३६४॥

इत्युक्तचा, सत्त्वादि-सद्भावेऽप्यभावात्, (भा० ६ १४११)-

“रजस्तमःस्वभावस्य ब्रह्मन् वृत्रस्य पाप्मनः ।

नारायणे भगवति कथमासीदृढ़ा मतिः ॥ " ३६५॥

(SEP)

I VEP

इत्युक्तचा, तदभावेऽति सद्भावान्न तत्कारणत्वम्, किन्तु तदुत्तरत्वेन तस्य पूर्वजन्मनि श्रीनारदादि-सङ्गवर्णनया, (मा० ११५१३२ ) -

“नैषां मतिस्तावदुरुक्रमाङ्घ्रि, स्पृशत्यनर्थापगमो यदर्थः ।

महीयसां पादरजोऽभिषेक, निष्किञ्चनाना न वृणीत यावत् । " ३६६॥

श्रीभगवद् गीतोपनिषद् में भी १४।१७ उक्त है—

“सत्वात् सञ्जायते ज्ञानं " अर्थात् सत्त्व गुण से ही ज्ञानोदय होता है। किन्तु सत्त्वादविद्यमान होने पर भी भगवद्विषयक ज्ञानाभाव परिलक्षित होता है । भा० ६।१४।२ में कथित है-

[[12]]

“देवानां शुद्धसत्त्वानामृषीणाञ्चामलात्मनाम् । भक्तिर्मुकुन्दचरणे न प्रायेणोपजायते ॥ ३६३॥ मुक्तानामपि सिद्धानां नारायणपरायणः ।

सुदुर्लभ प्रशान्तात्मा कोटिष्वपि महामुने ॥ " ३६४॥

श्रीपरीक्षित् महाराज, श्रीशुकदेव को कहे थे - हे प्रभो ! देवगण की एवं शुद्ध सत्त्व अमलात्मा ऋषिवृन्द की भक्ति श्रं मुकुन्द चरणों में प्रायशः नहीं होती है । सहस्र महत्र मुक्त महापुरुष वृन्द के मध्य में कोई एक व्यक्ति सिद्ध होता है। उस सिद्ध महापुरुषों के कोटि कोटि के मध्य में प्रशान्तात्मा कामादि के द्वारा अक्षोभित चित्त, - नारायण सेवा परायण भक्त सुदुर्लभ है ॥ ३६३ ॥

इस प्रकार कह कर देव एवं ऋषि गण में सत्त्वादि सद्गण विद्यमान होने पर भी भक्ति नहीं होती है । अतः ( भा० ६।१४। १ )

“रजस्तमः स्वभावस्य ब्रह्मन् वृत्रस्य पाप्मनः ।

नारायणे भगवति कथमासीदृढ़ा मतिः ॥ ३६५॥

TR

है ब्रह्मन् ! रजस्तम स्वभावाक्रान्त पापीयात् वृत्र की कैसे अविचलामति श्रीनारायण में हुई ? परीक्षित महाराज की भक्ति के द्वारा प्रदर्शित हुआ है कि सत्त्व रज स्तमो गुण भक्ति का कारण

नहीं हो सकता है, कारण, वृत्रासुर में सत्व गुणाभाव होने पर भक्ति दृष्ट होती है ॥ ३६५॥

महाराज परीक्षित के प्रश्न के उत्तर में श्रीशुक देव वृत्र के पूर्व जन्म में जो श्रीनारदादि के सहित सङ्ग हुआ था। उसका वर्णन करते हैं - ७३२

“नैषां मतिस्तावदुरुक्रमाङ्घ्रि स्पृशत्यनर्थापगमो यदर्थः ।

महीयसां पादरजोऽभिषेकं निष्किश्वनानां न वृणीत यावत् ॥ " ३६६ ॥

[[२५७]]

इत्युक्तया च भगवत्कृता-परिमलपात्रभूतस्य श्रीमतो महतः सङ्ग एव कारणम् । तत्सङ्गश्व (भा० १।१८। १३)

" तुलयाम लवेनापि न स्वर्गं नापुनर्भवम् ।

ही

भगवत्सङ्गि सङ्गस्य मर्थानां किमुताशिषः ॥ " ३६७॥

इत्युक्तचा निर्गुणावस्थातोऽप्यधिकत्वात् परम-निर्गुण एव, सहमस्य प्रथमे च, (भा० ७।१।१) “समः प्रियः सुहृद्ब्रह्मन्” इत्यादौ, सगुणे देवादौ तस्य कृपा वास्तवी न भवति, किन्तु श्रीमत् प्रह्लादादिष्वेवेति प्रतिपादनान्महतां निर्गुणत्वाभिव्यक्तया तत्सङ्गस्यापि निर्गुणत्वं व्यक्तम् ।

टीका - ननु चैको देवः सर्वभूतेषु गूढ़ः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा इत्यादि श्रुति प्रतिपादितं विष्णु कथं न विदुः कुनो वा तेषां तमित्रप्रवेशः, तत्राह नैषामिति । निष्किञ्चनानां निरस्त विषयाभिमानानां महत्तमानां पादरजवाऽभिषेकं यावन्न वृणीत, तावत् श्रुति वाक्यतो ज्ञातेऽपि एषां मतिरुरुक्रमस्याङ्घ्रि न स्पृत्रति न प्राप्नोति, असम्भावनादिभि विहन्येत इत्यर्थः । अनर्थस्य संसारस्यापगमो यदर्थः, यस्या अस्पिशिन्या मतेरर्थ प्रयोजनम् । महदनुग्रहाभावान्न तत्त्व निश्चयो नापि मोक्षस्तेषामित्यर्थः ॥

यावत् पर्यन्त निष्किञ्चन महापुरुष वृन्द की चरण धूलि से अभिषिक्त होने की प्रार्थना नहीं होगी, तावत् पर्यन्त गृहव्रती वृन्द की मति श्रीगोविन्द चरणारविन्द को स्पर्श करने में सक्षम नहीं होगा। जो मति, श्रीगोविन्द के श्रीचरणों को स्पर्श करती है, उस में सुकृतोत्थ, दुष्कृतोत्थ, अपराधोत्थ, एवं भजनोत्थ यह चतुविध अनर्थ निवृत्त हो जाते हैं । श्रीप्रह्लाद के वाक्य के द्वारा एवं भगवत् कृपा परिमल से सुवासित शक्तिमान महापुरुष गण के सङ्ग हो श्रीभगवद् भक्ति प्राप्ति का मुख्य कारण है - यह प्रदर्शित हुआ ।

उस प्रकार साधु भक्त वृन्द के -सङ्ग का विवरण भा० १।१८।१३ में श्रीशौनकादि ऋषिगण श्रीसूत को कहे थे ।

" तुलयाम लवेनापि न स्वर्गं नापुनर्भवम् ।

भगवत्सङ्गि–सङ्गस्य मर्त्यानां किमुताशिषः ॥ " ३६७॥

टीका - भगवत् सङ्गि नो विष्णुभक्ताः, तेषां सङ्गस्य यो लवः, अत्यल्पः कालः, तेनापि स्वर्गं न तुलयाम, न समं पश्याम, न चापवर्गम् । सम्भावनायां लोट् । मर्त्यानां तुच्छा आशिषो राज्याद्याः न

। तुलयाम इति किमुत वक्तव्यम् ।

हे सूत ! श्रीभगवान् में जिनकी प्रगाढ़ आसक्ति है, उन सब भक्त वृन्द के सहित लब मात्र काल सङ्ग होने से जो अपार आनन्द सिन्धु उच्छलित होता है, स्वर्ग अथवा मोक्ष में उस आनन्द सिन्धु का एक कण भी नहीं है । तज्जन्य हम सब, साधु सङ्ग के सहित उस की तुलना नहीं कर सकते हैं । जिस प्रकार सुमेरु पर्वत के सहित एक सर्वप की तुलना सर्वथा असम्भव दोष ग्रस्त है, उस प्रकार सत्य भक्त वृन्द के सहित स्वर्ग वा अपवर्ग की तुलना भी असम्भव दोष ग्रस्त है । अन्य अतितुच्छ राज्यादि सम्पद सुख की तुलना भक्तसङ्ग के सहित जो नहीं हो सकती है, उस विषय में क्या कहें ?

इस प्रकार उक्ति के द्वारा- प्रदर्शित हुआ है कि- निर्गुण मोक्षावस्था से भी भगवद् भक्त सङ्ग का अधिक है - एवं भगवद् भक्त सङ्ग परम निर्गुण है । भा० ७।१।१। में कथित है–

महत्त्व अधिक है

कम

“समः प्रियः सुहृद् ब्रह्मन् भूतानां भगवान् स्वयम्

इन्द्रस्यार्थे कथं दैत्यानबधीद्विषमोयथा ॥ "

[[२५८]]

तथा भक्तेरपि गुणसङ्गनिर्धू ननानन्तरञ्चानुवृत्तिः श्रूयते यदुक्तमुद्धवं प्रति श्रीभगवता

(भा० ११।२५।३३) -

" तस्माद्देहमिमं लब्ध्वा ज्ञान-विज्ञान-सम्भवम् ।

गुणसङ्गं विनिर्धूय मां भजन्तु विचक्षणाः ॥ ३६८ ॥ इति ।

परमेश्वरज्ञानस्य नैर्गुण्यहेतुत्वेन निर्गुणत्वोक्तिस्तु लक्षणामय-कष्टकल्पना । तथा कंवल्य- ज्ञानस्यापि नैगुण्यहेतुत्वादवं शिष्ट धनोबाहर णभेदाप्रवृत्तिश्च स्यात् । तस्मात् स्वत एव निर्गुणं भगवज्ज्ञानम् । अतएव, (भा० ११।२५।२६) -

टीका - यदुक्तं पूर्वस्कन्धान्ते । हतपुत्रा दितिः, शक्रपार्ष्णिग्राहेण विष्णुनां मन्युना शोकदीप्त ेन ज्वलन्ती पर्य्यचिन्तयदिति । तत् श्रुत्वा विस्मितः परीक्षित् पृच्छति सम इति त्रिभिः । नहि समस्य सुहृदश्व वैषम्यं नामास्ति । न च प्रियस्य प्रीति कर्त्तषु वैषम्यं युक्तमित्यर्थः ॥”

सगुण देवादि में श्रीभगवान् की वास्तविकी कृपा नहीं होती है, किन्तु प्रह्लाद प्रभृति में उनकी समधिक कृपा है। इस से भगवद् भक्त वृन्द का निर्गुणत्व अर्थात् भक्त सङ्ग का निर्गुणत्व प्रतिपादित हुआ है । भगवद् भक्ति भी सत्त्व, रज, तमः- गुणातीत है, अतः उक्त गुणत्रय की निवृत्ति के पश्चात् ही गङ्गास्रोतवत् भक्ति की अबाधगति होती है । अर्थात् जब तक साधक के हृदय में सत्त्व, रजः, एवं तमोगुण का लेशमात्र विद्यमान रहता है, तब तक भगवद् भक्ति को गति निर्वाध रूप से श्रीहरि चरण सिन्धु में प्रविष्ट नहीं होती है । भक्ति साधन का अनुष्ठान अनवरत करते करते जब सत्व रजः तमो गुण की कषाय निवृत्ति होती है, तब निर्बाध गङ्गास्रोतवत् श्रीहरि चरण सिन्धु में भक्ति की अनवरत वृत्ति होती है ।

भा० ११।२५। ३३ में श्रीभगवान् उद्धव के प्रति कहे हैं–

" तस्माद् देहमिमं लब्धा ज्ञान विज्ञान सम्भवम् ।

गुणसङ्ग विनिर्धूय मां भजन्तु विचक्षणाः ॥ ३६८॥

टोका – तस्मात् विवेकिनामिदमेव युक्तमित्य ह-तस्मादिति । ज्ञान विज्ञानयोः सम्भवो यस्मिस्तमिदं नरदेहम् ॥

अतएव विवेकी व्यक्ति का यही एकान्त कर्त्तव्य है । इस मनुष्य देह में परोक्ष एवं अपरोक्ष ज्ञान लाभ होता है, तज्जन्य यह देह सुदुर्लभ है । सुनिपुण जन इस देह को प्राप्तकर सत्त्व, रजः, तमोगुण सङ्ग परित्याग पूर्वक मेरा भजन करे । एतज् जन्य परमेश्वर विषयक ज्ञान, निर्गुण होने के कारण, अर्थात् परमेश्वर के प्रति भक्ति का उदय होने से निर्गुण अवस्था की प्राप्ति होती है । अतः भगवद् भक्ति को जो निर्गुण कहा गया है । किन्तु भक्ति निर्गुणा नहीं है। वह लक्षणामय कष्ट कल्पना मात्र है । कारण, कैवल्य ज्ञान का भी नैगुण्य है, अर्थात् कैवल्य ज्ञान से भी सत्त्व, रजः तमोगुण की निवृत्ति होती है । अतः कैवल्य ज्ञान भी नैगुण्य हेतु है । ऐसा होने पर कंवल्य ज्ञान से भगवद् भक्ति का कोई वैशिष्ट्य नहीं होता है । कंवल्य ज्ञान में भी गुणातीत अवस्था होती है, एवं भक्ति में भी त्रिगुणातीत अवस्था होती है । अतः ज्ञान एवं भक्ति में पार्थक्य क्या रहता है ? यदि उभय में पार्थक्य नहीं रहता तो-

कैवल्यं सात्त्विकं ज्ञानं मन्निष्ठ निर्गुणं स्मृतम् "

इस प्रकार उभय में भेद कथन के निमित्त भगवान् की प्रवृत्ति ही नहीं होती । अतएव स्वरूपतः हो भगवद् विषयक ज्ञान निर्गुण है । तज्जन्य भा० ११।२५।२९ में भगवान् कहे थे-

[[२५६]]

“सात्त्विकं सुखमात्मोत्थं विषयोत्थस्तु राजसम् ।

तामसं मोहदैन्योत्थं निर्गुणं मदपाश्रयम् ॥ ३६६ ॥

इत्यत्र तत्सुखस्यापि निर्गुणत्वं वक्ष्यते । एवं श्रवणादिलक्षण-क्रियारूपाया अपि भक्तेः

(भा० ११२/१६) -

“शुश्रूषोः श्रद्दधानस्य वासुदेवकथा-रुचिः ।

स्यान्महत्सेवया विप्राः पुण्यतीर्थनिषेवणात् ॥” ३७०॥

इत्युक्त्या तदेकनिदानत्वेन निर्गुणत्वमेव । ननु (भा० ८।२४।३८)

“मदीयं महिमानश्च परं ब्रह्मेति शब्दितम् ।

वेत्स्यस्यनुगृहीतं मे संप्रश्नैविवृतं हृदि ॥ " ३७१॥

इति श्रीमत्स्यदेवस्य वचनेन ब्रह्मज्ञानमपि श्रीभगवत्प्रसादोत्थं श्रूयते, तत् कथं तस्य सगुणत्वम् ? उच्यते, — ब्रह्मज्ञानं द्विविधानां जायते, तत्र भगवदुपासकानामानुषङ्गिकत्वेन,

“सात्त्विक सुखमात्मोत्थं विषयोत्थस्तु राजसम् ।

तामसं मोहदैन्योत्थं निर्गुणं मदपाश्रयम् ॥ ३६६ ।

‘त्वं’ पदार्थ - अणु चैतन्य जीव स्वरूप का अनुभव हेतु जो सुख है, वह सात्त्विक है, विषयानुभव जनित सुख राजस है, मोह एवं दैन्य से उत्थित सुख तामस है। मदीय अनुभव जनित जो सुख है वह

है किन्तु निर्गुण है । भगवदनुभव जनित सुख जो निर्गुण है, उसका कथन पश्चात् होगा। इस प्रकार श्रवण कीर्त्तनादि लक्षणा क्रिया रूपाभक्ति का भी निर्गुणत्व जानना होगा। कारण भा० १२ १६ में कथित हैं-

“शुश्रूषोः श्रद्दधानस्य वासुदेवकथा–रुचिः ।

स्यान्महत्सेवया विप्राः पुण्यतीर्थ निषेवणात् ॥ ३७० ॥

T

टीका - ननु सत्यमेव कर्म निर्मूलनी हरिकथा रतिः, तथापि तस्यां रुचिर्नोत्पद्यते कि कूर्म्म स्तत्राह- शुश्रूषोरिति । पुण्यतीर्थ निषेवणात् निष्पापस्य महत् सेवा स्थात् तया च तद्धर्म श्रद्धा । ततः श्रवणेच्छा । ततो रुचिः सादित्यर्थः ॥

श्रीसूत - शौनकादि ऋषि वृन्द को कहे थे, - हे विप्रगण ! पुण्य तीर्थ की सेवा करने से प्रायशः महत् सङ्गलाभ की सम्भावना हो सकती है । महत् सङ्ग से महत् मुखोच्चारित हरिकथा श्रवण में इच्छा का उद्गम होता है । एवं उक्त हरिकथा श्रवण करने से उक्त महापुरुष के प्रति श्रद्धा का उद्गम होता है । एवं उनकी सेवा करने का सौभाग्योदय भी होता है । उक्त महापुरुष की सेवा करने से वासुदेव कथा में रुचि होती है । उक्त विवरण से सुस्पष्ट प्रतीति होती है कि- श्रीभगवत् कथा श्रवण कीर्तनादि करने की प्रवृत्ति के एकमात्र हेतु है सत्सङ्ग । अथच उस सत् सङ्ग भी निर्गुण है । तज्जन्य भगवद् भक्ति जो निर्गुणा है, उस में कोई संशय नहीं है ।

यहाँ संशय हो सकता है कि, - भगवत् प्रसादोत्थ ब्रह्मज्ञान भी होता है । भा० ८२४३८ में वर्णित है–

“मदीयं महिमानञ्च परं ब्रह्म ेति शब्दितम् ।

वेत्स्यस्यनुगृहीतं मे संप्रश्नविवृतं हृदि ॥ ३७१ ॥

[[२६०]]

ब्रह्मोपासकानां स्वतन्त्रत्वेन । भगवदुपासकस्तु भगवच्छक्तिरूपया भक्त्या किश्चिद्भेदेनैव गृह्यते तच्च, ( गी० १८५४) “ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति” इत्यादि- श्रीगीतोक्तयनुसारेण, (भा० १७ १०) “आत्मारामाश्च मुनयः” इत्याद्यनुसारेण च भगवतः

टीका - मे मया अनुगृहीतं प्रसदीकृतं हृदि अपरोक्षं वेत्स्यसि । त्वया कृतैः सम्प्रदनर्मया ‘ववृतं प्रकाशितं सन्तम् ॥

..

श्री मत्स्यदेव - सत्यव्रत महाराज को कहे थे, मेरो महिमा, अर्थात् महत्व - विभुत्व रहद से अभिहित है, एवं वह तत्त्व -मत् कर्तृक अनुगृहीत है, इसका अनुभव–निज हृदय में प्रश्नादि के द्वारा ‘विस्तृत रूप से अवगत हो सकोगे । अतएव ब्रह्म ज्ञान का सगुणत्व का निर्देश कैसे हो सकता है ? कारण, सत्सङ्ग से अथवा सत् कृपा से उत्थित होने के कारण, क्रियारूपा साधन भक्ति यदि निर्गुणा होती है. तो भगवत् कृपा से आविर्भूत ब्रह्म ज्ञान भी निर्गुण कैसे नहीं हो सकता है ? अर्थात् साधु सङ्ग जिस प्रकार निर्गुण है, उस प्रकार श्रीभगवत् कृपा भी निर्गुण है । अतएव निर्गुणा भगवत् कृपा से उत्थित ब्रह्म ज्ञान भी निर्गुण ही होगा। उसके उत्तर में कहते हैं द्विविध उपासक के हृदय में ब्रह्म ज्ञान आविर्भूत होता है । भगवदुपासक वृन्द के हृदय में जो ब्रह्म ज्ञान आविर्भूत होता है, वह अ नुसाङ्गक रूप से अर्थात् अप्रधान भाव से होता है । किन्तु ब्रह्म उपासक के हृदय में जो ब्रह्मज्ञान आविर्भूत होता है, वह स्वतन्त्र अर्थात् प्रधान रूप से होता है । भगवत् उपासक वृन्द, भगवत् शक्ति रूपा भक्ति के प्रभाव से ‘त्वं पदार्थ” जीव चैतन्य के सहित भेद से ही ब्रह्म स्वरूप का अनुभव करते हैं, किञ्चित् भेद रूप से जो करते हैं, उसका उल्लेख श्रीभगवद् गीता में सुस्पष्ट रूप से है - ( गी० १८।५४)

तन्मध्य में

“ब्रह्मभूत प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति । समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्त लभते पराम् ॥

अनुभव

टोका - ततश्वोपाध्यपगमे सति ब्रह्मभूतः अनावृत चैतन्यत्वेन ब्रह्मरूप इत्यर्थः । गुण मालिन्यापगमात् । प्रसन्नश्चासावात्माचेति सः, ततश्च पूर्वःशायामिव नष्ट न शोचति । न च । प्रप्त काङ्क्षति, देहाद्य– भिनानाभ व दिति भावः । सर्वेषु भूतेषु भद्राभद्रेषु बालक इवसमः, वाह्यानुसन्धानः भावादिति भावः । तश्च निरिन्धन ग्नाविव ज्ञाने शान्ते ऽप्यनश्वरां ज्ञानान्तर्भूतां मद् भक्त श्रवणकीर्त्तनादि रूपां लभते, तस्या मत्स्वरूप शक्ति वृत्तित्वेन माया शक्तिभिन्नात् । अविद्या विद्ययोपगमेऽपि अनपमात् । अतएष परां - ज्ञ नादन्यां श्रेष्ठां निष्काम कर्म ज्ञानादुर्व रत्त्वेन केवलामित्यर्थ । लभते इति पूर्वं ज्ञान वैर ग्यादिषु मोक्ष सिद्धयर्थं कलया वर्त्तमानाया अपि सर्व भूतेषु अन्तर्थ्यामिन इव तस्य । स्पष्टोपलब्धि नसीदतिभाव । अतएव कुरुत इत्यनुक्त्वा लभते इति प्रयुक्तम् । माषमुद्गादिषु मिलिता हां तेषु ष्टष्वपि अनश्वरां काञ्चन माणिक्यमिव तेभ्यः पृथक् तया केवलं लभते इतिवत् । सम्पूर्णाभाः प्रेमभक्तस्तु प्रायस्तदानीं ल भ सम्भवो अस्ति, नापि तस्या फल सायुज्यं । इत्यतः परा शब्देन प्रेमलक्षणंति व्याख्येयं ॥

कोई कोई भक्ति साधक, क्रममुक्ति के रीत्यनुसार सुख अनुभव की आशा से ब्रह्म स्वरूप में अवथित होकर सर्वदा ही चित्तप्रसन्नता को प्राप्त करते हैं । विनष्ट वस्तु के निमित्त न तो शोक करते हैं, और अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति हेतु आकाङ्क्षा भी नहीं करत हैं । सर्वभूत में ब्रह्म सत्ता की उपलब्धि करते हैं, अतः समभ वपन्न होते हैं। इस प्रकार अवस्था प्राप्ति के पश्चात् मुझ में अर्थात् श्रीभगवान् में लय विक्षेप शून्या, तेल धारावत् अनवच्छिन्ना पराभक्ति को प्राप्त करते हैं । भा० १ ७१० में उक्त है-

“आत्मारामाश्च मुनय निर्ग्रन्था अप्यरुक्रमे ।

[[२६१]]

पराख्यभक्तिपरिकरो भवतीति । ब्रह्मोपासकैस्तु पूर्व्ववदभेदेनैव गृह्यते, तत्फलस्य (भा० ३।१५।४८) “नात्यनिकं विगणयन्त्यपि ते प्रसादम्” इत्युक्तदिशा परैरात्यन्तिकत्वेन मतस्यापि परमविद्वद्भिरनादृत्तत्वात्, तथा भक्तिविरुद्धत्वेन (२०६।१०।२८) “स्वर्गापवर्ग- नरकेष्वपि तुल्यार्थदर्शिनः” इत्युक्तया, नरक वदपवर्गस्यापि हेयत्वात् प्रसादाभास एवासौ ।

(

कुर्वन्त्यहैतुकीं भक्तिमित्यम् भूतो गुणः हरिः ।”

टीका - निर्ग्रन्थाः ग्रन्थेभ्यो निर्गताः । तदुक्तं गीतासु-यदा ते मोह कलिलं वुद्धिर्व्यतितरिष्यति तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च । इति । यद्वा ग्रन्थिरेव ग्रन्थिः, निवृत्तः क्रोधाहङ्कार रूपो ग्रन्थिर्येषां ते निवृत्त हृदय ग्रन्थय इत्यर्थ । ननु मुक्तानां किं भक्त च ेति, सर्वाक्षेप परिहारार्थमाह इत्थम्भूतो गुणो हरिरिति ॥

आत्माराम मुनिगण श्रीहरि के गुण से आकृष्ट होकर श्रीहरि में अहैतुको भक्ति करते रहते हैं, इत्यादि प्रमाणानुसार भक्ति साधक में ब्रह्मानुभव, श्रीभगवदीय परराख्य भक्ति के प्ररिकर रूप में ही प्रकाशित होता है । किन्तु ब्रह्मोपासक गण, जीव चं न्य के स हरु अभेद रूप से ही ब्रह्म स्वरूप वा अनुभव करते भा० ३।१५।१८ में उक्त है-

“नात्यन्तिकं विगणयन्त्यपि ते प्रसादं

किम्मन्यदर्पितभयं भ्र व उन्नयैस्ते । येऽङ्गत्वदङ घ्रि शरणा भवतः कथायाः

कीर्त्तव्यतीर्थ यशसः कुशला रसज्ञाः ॥

टीका - स्वयमपि भक्ति प्रर्थयितुं भक्तानां सुखातिशयमाहुः । आत्यन्तिकं मोक्षाख्यमपि तव प्रसादं तेन विगणयन्ति नाद्रियन्ते । किमु किमुत, अन्यदिन्द्रादि पदम् । ते भ्र व उन्नयैरुज्जृम्भः- अर्पित निहित भयं यस्मिन् तत् । ते के ? अङ्ग हे भगवन् ! ये भवतः कथाया रसज्ञाः । कथम्भूतस्य ? रमणीयत्वेन च पावनत्वेन च कीर्त्तव्य कीर्तनाहं तीर्थञ्च यशो यस्य, तस्य ।

चतुःसन श्रीवैकुण्ठ नाथ को स्तव करते हुये कहे थे - हे नाथ ! जो आप के चरणों में एकान्त शरणागत हैं, वे आप के मोक्ष नामक आत्यन्तिक प्रसाद का भी आदर नहीं करते हैं । इस उक्ति से प्रतिपादित हुआ है कि अन्य मोक्षार्थिवृन्द के निकट आत्यन्तिक रूप से समादृत वह जीव एवं ब्रह्म चैतन्य का अभेदानुसन्धान के फल रूप मोक्ष को भी परम विज्ञ भक्त गण समादर नहीं करते हैं। भक्ति विज्ञ महानुभव गण उस अभेद अनुसन्धानात्मक ज्ञान साधन का मुख्य फलरूप मोक्ष का आदर नहीं करते हैं, यही नहीं किन्तु भक्तिः विरुद्ध होने के कारण - भा० ६।१०।२८

“नारायण पराः सर्वे न कुतश्चन विभ्यति

स्वर्गापवर्गनरकेष्वपि तुल्यार्थ दर्शिनः ॥

टीका- स्वर्गादावेव तुत्योऽर्थः प्रयोजन मति द्रष्टु ं शीलं येषां ते तथा ॥

जो लोक, नारायण परायण हैं, वे सब किसी से भी किञ्चिन्मात्र भीत नहीं होते हैं । कारण, वे सब स्वर्ग, मोक्ष, एवं नरक को तुल्य कार्य्यकारी रूप में देखते हैं । अर्थात् पुण्य कर्म साध्य स्वर्ग, अभेदानु– सन्धानात्मक ज्ञान साध्य मोक्ष, पाप कर्म साध्य नरक, पृथक् वस्तु होने पर भी, भक्ति साधक के जीवनी शक्ति रूप परम अभीष्ट श्रीभगवान् के सहित निज दास्यादि एकतर सम्बन्ध का विधातक होने के कारण स्वर्ग, मोक्ष, नरक में वे सब तुल्य दृष्टि करते रहते है। इस प्रमाण के अनुसार नरक के समान मोक्ष के

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स्वमत्यनुसारेण प्रसादतया गृह्यमाणश्चेन्मति-कल्पितत्वात् सगुण एव । ततः कैवल्य ज्ञानमपि तथा, विशेषतस्तस्य गुणसम्बन्धेन जन्माङ्गीकृतमिति । ननु अन्तर्व हिश्च करणं पुरुषस्य गुणमयमेव, तदुद्भवयोर्ज्ञानक्रिययोः कथं निर्गुणत्वम् ? उच्यते, - ज्ञानशक्तिः क्रियाशक्तिर्वा न तावज्जड़स्य त्रैगुण्यस्य धर्मः, घटस्येव, न च चिद्रूपस्यापि जीवस्य ईश्वर धोनशक्तित्वेना- मुख्यत्वात्, देवताविष्टपुरुषस्येव, ततः परमात्म चैतन्यस्यैवेत्ययाति तथोत्तम ( भा० ६।१६।२४) “देहेन्द्रिय-प्राणमनोधियोऽमी, यदंश विद्धा प्रचरन्ति कर्म्मसु” इति, तथा च श्रुतिः ( वृ० ४।४।१८)

प्रति भी भक्तगण हेयत्व दृष्टि करते हैं। तज्जन्य अभेदानुसन्धानात्मक ज्ञान साध्य मोक्ष को वे सब प्रसादाभास ही मानते हैं। यदि कोई निज बुद्धि के अनुसार मोक्ष को श्रीभगवत् प्रस द मानते हैं, तो वह निजमति कल्पित हेतु सगुण ही है ।

तात्पर्य यह है कि - पहले जो प्रश्न हुआ था–कि-भक्ति, निर्गुण साधु सङ्ग से आविर्भूत होने पर यदि वह निर्गुण होती है तो, ब्रह्मानुभव भी भगवत् प्रसाद तो उद्भूत होने के कारण, वह निर्गुण क्यों नहीं होगा ? इसका समाधान यह हुआ कि - निर्भेद ब्रह्मानुसन्धान रूप मोक्ष श्रीभगवत् प्रसाद से उत्थित नहीं है, कारण, परम विज्ञ भक्ति तत्त्ववेत्ता श्रीनारद, प्रह्लाद, ध्रुव, उद्धव एवं आदिज्ञानिगुरु सनकादि ऋषिगण भी परावस्था में उस प्रकार मुक्ति को अर्थात् अभेदानुसन्धान त्मक ज्ञान साध्य जीव चैतन्य के सहित सर्वथा अभेद ब्रह्मानुभवात्मक मोक्ष को श्रीभगवत् प्रसाद नहीं मानते हैं । केवल कतिपय मोक्षार्थी गण ही उस मोक्ष को भगवत् प्रसाद मानते हैं । कारण, जो लोक श्रीभगवान् में विद्वेष करते हैं, वे सब श्रीहरि के हस्त से निहत होकर सायुज्य मुक्ति लाभ करते हैं । बहु काल श्रवण मनन, निदिध्यासन नियम प्रभृति श्रमसाध्य साधन करके भी उस सायुज्य मुक्ति प्राप्त करने पर उस को कैसे भगवद् प्रसाद कहा जा सकता है ? कारण, जो भगवद्विद्वेषीजन प्राप्य है, वह साधक जन के साधन के द्वारा तुष्ट श्रीभगवान् कर्त्तृक प्रदेय नहीं हो सकता है । अतएव कैवल्य ज्ञान भी सत्त्व गुण से समुत्थित होने के कारण, वह सगुण ही है । विशेषतः उस कैवल्य ज्ञान का जन्म, सत्त्व गुण के सम्बन्ध से ही स्वीकृत हुआ है । यहाँ कहा जा सकता कि- मानवीय अन्तः करण वहिः करण प्रभृति इन्द्रिय समूह गुणमय ही हैं, अर्थ गुण

विकार हैं, अतएव गुण विकार इन्द्रिय वृन्द से समुत्थित ज्ञान क्रियादि कैसे निर्गुण हो सकता है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहते हैं-

ज्ञान शक्ति एवं क्रिया शक्ति- त्रिगुणमय जड़धर्म नहीं है। जिस प्रकार जड़ीय घट में ज्ञान वा क्रिया शक्ति नहीं है । यह भी कहा नहीं जा सकता है कि- ज्ञान वा क्रिया शक्ति, चतन्य स्वरूप जीवधर्म है । कारण, जीव चैतन्य की क्षमता, स्वतन्त्र रूप से कुछ करने की नहीं है । ईश्वर प्रेरणाधीन होकर ही उस में ज्ञान वा क्रिया शक्ति प्रकाशित होती है । अतएव चैतन्य स्वरूप जीव में भी ज्ञान वा किया शक्ति मुख्य रूप से प्रकाशित नहीं होती है । देवताविष्ट पुरुष के समान ईश्वर दत्त चिदाभास संक्रमित होकर ही जीव में ज्ञान वा क्रिया शक्ति प्रकाशित होती है । तज्जन्य ज्ञान एव क्रिया शक्ति परमात्म चैतन्य स्वरूप का ही मुख्यधर्म है । यही निर्णीत सित्तान्त है ।

श्रीमद् भागवत के ६।१६।१४ में उक्त है—

“देहेन्द्रिय प्राणमनोधियोऽभी यदंशविद्धाः प्रचरन्ति कर्मसु ।

नैवान्यदा लौहमिवाप्रतप्तौं स्थानेषु तद्द्रष्टुपदेशमेति ॥

टीका - तेषां तदज्ञाने हेतुमाह । देहेन्द्रियादयोऽमी यदंशविद्धाः यच्चैतन्यांशेन आविष्टाः सत्तः

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“प्राणस्य प्राणमुत चक्षुषश्चक्षुरुत श्रोत्रस्य श्रोत्र मनसो मनः” इति (ऋक्०) “न ऋते तत् क्रियते किचनारे” इत्यादिका । तदेवं सति न गुण्य कार्य्यप्राधान्येन भवन्त्यौ ते गुणमयत्वेनोच्येते, परमेश्वरप्राधान्येन तु स्वतो गुणातीते एव, तदुक्तं देवामृतपानाध्याये श्रीशुकेन ( भा० दाहारह) -

“यद्युज्यतेऽसुवसुकर्म्ममनोवचोभि-, व्हात्मजादिषु नृभिस्तदसत् पृथक्त्वात् ।

तैरेव सद्द्भवति यत् क्रियतेऽपृथक्त्वात् सर्व्वस्य तद्भवति मूलनिषेचनं यत् ॥ ३७२ ॥ पृथक्त्वात् परमात्मेतराश्रयत्वात्, अपृथक्त्वात् तदेकाश्रयत्वादित्यर्थः । अतो युक्तमेव ज्ञानक्रियात्मकाया हरिभक्तेनिर्गुणत्वम् । विशेषतस्तस्या गुणसम्बग्ध्न जन्माभावश्र्वाङ्गीकृतः

कर्मसु स्व स्व विषयेषु प्रचरन्ति, जाग्रत् स्वप्नयोः । अन्यदा सुषुप्ति मूर्च्छादौ नैव प्रचरन्ति । यथा अप्रतप्त लौहं न दहति । अतो यथा लौहमग्नि शक्तःचव दाहक सदग्नं न दहति । एवं ब्रह्मगत ज्ञान क्रिया शक्तिभ्यां प्रवर्त्तमाना देहादयस्तन्न स्पृशन्ति न विदुश्चेतिभावः । जीवस्तहि द्रष्टृत्वाज्जानातु नेत्याह, स्थानेषु जाग्रदादिषु द्रष्टुपदेशं द्रष्टसंज्ञां तदैवेति प्राप्नोति नान्यो जीवोनामास्ति । नान्योऽतोऽस्ति द्रष्टेत्यादि श्रुतेः । यद्वा द्रष्टुपदेशं द्रष्ट संज्ञं जीवमपि तदेव एति जानन्ति न तु जीव तज्जानातीत्यर्थः । तदुक्त हंस गुह्यस्तोत्रे । देहोऽसवोक्षा इत्यादि ॥”

देह, इन्द्रिय, प्राण, मन एवं बुद्धि, यह सब परमात्मचैतन्य शक्ति में आविष्ट होकर अग्निशक्ति आविष्ट लौह के समान निज निज कार्य सम्पादन में समर्थ होते हैं । स्वतन्त्र रूप से कुछ करने की शक्ति उन सब में है ही नहीं । श्रुति में भी उस प्रकार वर्णित है - ( वृ० ४।४।१८)

“प्राणस्य प्राणमुत चक्षुषश्चक्षुरुतश्रोत्रस्य क्षोत्रं मनसो मनः ॥”

"

न ऋते तत् क्रियते किञ्चनारे ॥” परमात्म प्राण वा प्राण, चक्षु का चक्षु श्रोत्र का क्षोत्र, मन का मन, उनके चैतन्य को छोड़कर कोई कुछ कर नहीं सकते हैं । इत्यादि श्रुति प्रमाणों से प्रतिपादित होता कि - चैतन्य का आभासमात्र अ विष्ट होकर देहेन्द्रिय प्रभृति में निजोचित कार्य करने की क्षमता आती है, तद् व्यतीत स्वतन्त्ररूप से किसी भी इन्द्रिय में कार्य करने की सामर्थ्य नहीं है ।

इस प्रकार स्थिर सिद्धान्त होने पर-ज्ञान शक्ति एवं क्रिया शक्ति की प्रवृत्ति जहाँपर प्रधान रूप से त्रिगुणमय काय्यं में होता है, वहाँ उस ज्ञान क्रिया को गुगमय धर्म कहा जाता है, और जहाँपर त्रिगुणातीत परमेश्वर को ही प्रधान रूप से लक्ष्य करके अनुष्ठित होता है, वह ज्ञान-क्रिया-स्वभावतः ही गुणातीत

। इस अभिप्राय से ही श्रीशुक ने भी (भा० २ ) देवगण के अमृत पान प्रसङ्ग में कहा है-

“यद्युज्यतेऽसुव सुकर्म्म मनोवचोभि- देहात्मजादिषु नृभिस्तदसत् पृथक्त्वात् ।

The

"

तैरेव सद्भवति यत् क्रियतेऽपृथक्त्वात् सर्व्वस्य तद्भवति मूलनिषेधनं यत् ॥ ३७२ ॥

टीका- एतदेवोपपादयति यदिति । असुः प्र णः, वसु-धनम्, प्राणादिभि देहात्मजादिषु नृभिर्यद् युज्यते - प्रयुज्यते देहाद्यर्थं यत् किञ्चित् क्रियते इत्यर्थः । तदसत् व्यर्थं भवति । पृथक् स्वात् भेदाश्रयत्वात्- शाखानिषेचनवत् तैरेव प्राणादिभिरीश्वरोद्द शेन यत् क्रियते तत् तु सत् महाफलं भवति । कुतः अपृक् स्यात्- ईश्वरस्य सर्वानुगतत्वात् । तत्र दृष्टान्तः । यत् तरोर्मूल नषेचन तद् यथा सर्वस्य स्कन्धशाखादेरपिभवतीति । यद्वा, — व्यव् लोपे पञ्चभ्यौ, पृथक् त्वं पर्यालोच्य भेददृष्टया देहाद्युद्द शेन यत् क्रियते तदसत् । अपृथक्त्वं पर्यालोच्य ईश्वर दुष्टया तैरेव तेष्वेव च यत् क्रियते तत् सम्भवतीति शेषं समानम् ॥”

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न तु ब्रह्मज्ञानस्येव गुणसम्बन्धेन जन्मभाव इति । अतोऽसौ भक्तिस्तस्यापि प्रीणनत्वादि- गुणैरुदाहरिष्यते । यत्तु श्रीकपिलदेवेन भक्तेरपि निर्गुणसगुणावस्थाः कथितास्तत्पुनः पुरुषान्तःकरणगुणा एव तस्यामुपचर्यन्त इति स्थितम् ॥