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अथ साक्षाद्भक्तनिर्गुणत्वं वक्तुं भगवदर्पित-कर्मरभ्य सर्व्वेषां कर्म्मणां तावत् सगुणत्वमाहैकेन, (भा० ११।२५।२३) -
(१३३) “मदर्पणं निष्फलं वा सात्त्विकं निजकर्म तत् ।
राजसं फलसङ्कल्पं हिंसाप्रायादि तामसम् ॥” ३६१॥
है उसका वर्णन भी भा० १११२० ३२ में है–
" यत् कर्मभिर्यत्तपसा ज्ञ न वैराग्यत्श्चयत् योगेन दानधर्मेण श्रेयोभिरितरैरपि सर्वं मद्भक्तियोगेन मद्भक्तो लभतेऽञ्जसा ॥
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श्रीकृष्ण, उद्धव को कहे थे - हे उद्धव ! कार्य्यं कर्म समूह का अनुष्ठान, तपस्या, ज्ञान साधन, विषय वैराग्य, अष्टाङ्ग योग, दान धर्म, एवं तीर्थ यात्रा, व्रत प्रभृति के द्वारा जो फल लाभ होता है, मदीय भक्तगण तत् समुदय फल लाभ मदीय भक्ति योग के प्रभाव से अनायास प्राप्त कर सकते हैं ।
श्रीभगवद् भक्ति स्वयं इस प्रकार परमानद प्रदान करती है, जिस से कर्म, ज्ञान, योग प्रभृति स धन के प्रति एवं उक्त साधन समूह के द्वारा प्राप्य वस्तु के प्रति भी तुच्छता बुद्धि हो जाती है। उसका वर्णन भा० ११।१४।१४। में हैं -
(१३२) “न पारमेष्ठ्य ं न महेन्द्र धिष्ण्यं, न सार्वभौमं न रसाधिपत्यम् ।
न योगसिद्धीर पुनर्भवं वा, मर्थ्यापितात्मेच्छति मद्विनान्यत् ॥ ३६० ॥
श्रीकृष्ण, उद्धव को कहे थे- जिन्होंने मुझ को आत्मसमर्पण किया है, वह मुझ को छोड़कर पारमेष्ठ्य सुख, अर्थात् सत्य लोक में ब्रह्मा होकर त्रिभुवन के आधिपत्य प्राप्ति करने से जो सुख होता है, पातालादि का स्वामित्व से जो सुख होता है, ब्रह्म कैवल्य रूप मुक्ति में जो सुख, अष्टाङ्ग सिद्धि लाभ से जो सुख होता. है, एतद् व्यतीत साधन समूह के साध्य वस्तु लाभ से जो सुख होता है, मेरा भक्त, यह सब कुछ
भी प्राप्त करना नहीं चाहता है । किन्तु अकिञ्चना भक्ति प्राप्य लिखित पुरुषार्थ श्रेष्ठ मुझ को प्राप्त करना चाहता
। मय्यपितात्मा शब्द से आत्म समर्पण कारी को जानना होगा ।
श्रीभगवान् कहे थे ॥ १३२ ॥
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अनन्तर साक्षाद् भगवद् भक्ति जो गुणातीता है-उस को कहने के निमित्त श्रीभगवान् में अर्पित कर्म से आरम्भकर समस्त साधनों का सगुणत्व प्रति पादन एक श्लोक के द्वारा करते हैं- (भा० ११।२५।२३) में उक्त है–
(१३३) “मदर्पणं निष्फलं वा सात्विकं निजकर्मतत् ।
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मयि अर्पणं यस्य मर्दार्पितमित्यर्थः, निष्फलं निष्कामम्, फलं सङ्कल्प्यते यस्मिंस्तत्, आदि
शब्दाद्दम्भमात्सर्य्यादिभिः कृतम् ॥