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ज्ञानवैराग्यादि-सर्व्व सद् गुणहेतुत्वमुक्तम्, (भा० ५।१८।१२) -

(PUP)

“यस्यास्ति भक्तिर्भगवत्य किञ्चना, सर्वैर्गुणैस्तत्र समासते सुराः ।

हररावभक्तस्य कुतो महद्गुणा, मनोरथेनासति धावतो वहिः ॥ ३५६ ॥ इति । स्वर्गापवर्ग-भगवद्धामादि- सर्व्वानन्द हेतुत्वमपुयक्तम, (भा० ११/२०१३२) –यत् कर्म्मभिर्यत्तपसा "

समय, संवाद पाकर महाराज उत्तानपाद सुनीति एवं सुरुचि नाग्नी महिषीद्वय के सहित पथ में श्रीध्र व को मिले थे, तब श्रीघ्र व पहले विमाता सुरुचि को प्रणाम करने से सुरुचि ने ध्रुव को उठाकर गले मे लगा लिया एवं वाष्प रुद्ध कण्ठ से ‘जीवित रहो, जीवित रहो’ कहकर आशीर्वाद किया । विद्वेषिणी होकर इस प्रकार आचरण सुरुचि ने क्यों किया - उसको कहते हैं-

जिस के प्रति मित्रता प्रभृति गुणों के द्वारा भवान् श्रीहरि, सु प्रसन्न होते हैं, निम्नदेश में जल जिस प्रकार स्वाभाविक गति से जाता है, उस प्रकार समस्त प्राणी उस भगवत् प्रिय व्यक्ति को प्रणाम करते हैं । सुरुचि, माता सुनीति की सपत्नी एवं निज विद्वेषिणी थी, तथापि श्रीभगवदाराधना करके समागत उस ध्रुव को देखकर सुरुचि ने स्नेहाशीर्वाद किया इस से - भगवद् भक्ति के प्रभाव से परम शत्रु भी सु प्रसन्न होता है, यह दर्शाया गया पद्म पुराण में भी उक्त है-

‘येनाचितो हरिस्तेन तर्पितानि जगन्त्यपि ।

रज्यन्ति ज तवस्तत्र जङ्गमाः स्थावरा अपि ॥ " ३५८ ॥

जिन्होंने श्रीहरि की अच्चना की है, उन्होंने निखिल जगत् को सु तृप्त किया है। स्थावर जङ्गम प्राणीमात्र ही उनके प्रति अनुरक्त होते हैं ।

श्रीमत्रेय कहे थे - ॥ १३१ ॥

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श्रीभगवद् भक्ति का ज्ञान वैराग्यादि सर्व सद् गुण हेतुत्व का वर्णन भा० ५।१८।१२ में है-

“यस्यास्ति भक्तिर्भगवत्यकिश्चना, सर्व्वैगुणैस्तत्र समासते सुराः ।

हरावभक्तस्य कुतो महद्गुणा, मनोरथेनासति धावतो वहिः ॥ " ३५६ ॥

क्रमसन्दर्भ - किश्व, यस्येति । अकिञ्चना - निष्काम । सर्वे सुरा-भगवच्छिवब्रह्मादयो ज्ञान- वैराग्यादिभि सर्वगुणैरिति यदृच्छयैवेत्यर्थः । समासते, - सम्यग सते, वशीभूय हिन्तीत्यर्थः ।

टीका - मानसमलापगमफलमाह-यस्येति’ अकिञ्चना- निष्कामा । मनः शुद्धौ हरेर्भक्तिर्भवति, ततश्च तत् प्रसादे सति सर्वे देवाः सर्वैर्गुणैश्च धर्म ज्ञानादिभिः सह तत्र सम्यगासते नित्यं वसन्ति । गृहाद्यासक्तस्य तु हरिभक्तयसम्भवात् कुतो महतां गुणा ज्ञान वैराग्यादयो भवन्ति ? असति विषय सुखे मनोरथेन वहिर्घावतः ।

श्रीभगवान् में जितको अकिञ्चना, निष्कामा भक्ति है, भगवद् भक्त वृन्द अर्थात् पार्षद् वृन्द समस्त सद् गुणों के सहित उक्त भक्त में आसक्ति के सहित निवास करते हैं, जिनकी भक्ति श्रीभगवान् में नहीं है, उनमें महापुरुषोचित सद्गुणों का अवस्थान कैसे हो सकता है ? कारण, भगवद् विमुखतादोष से उनकी चित्त वृत्ति दोषमय मायिक विषयों में धावित होती रहती है । इत्यादि श्लोकों के द्वारा कथित है कि– श्रीभगवान् में भक्ति होने से ज्ञान वंरागादि समस्त सद् गुण स्वतः ही होते हैं ।

श्रीभगवान् में भक्ति करने से स्वर्ग- अपवर्ग एवं भगवद् धाम प्राप्ति जनित जो आनन्द लाभ होता

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इत्यादिना स्वतः परमसुख- दानेन कर्मादिज्ञानान्त-साधनसाध्यवस्तूनां हेयत्वकारितामाह, (भा० ११।१४११४) -

(१७२) " न पारमेष्ठ्यं न महेन्द्रधिष्ण्यं, न सार्व्वभौमं न रसाधिपत्यम् ।

न योगसिद्धीर पुनर्भवं वा, मय्यपितात्मेच्छति मद्विनान्यत् ॥ ३६० ॥

रसाधिपत्यं पातालादि-स्वामित्वम्, अपुनर्भवं ब्रह्मकैवल्यरूपं मोक्षम्, कि बहूना ? यत् किञ्चिदन्यदपि साध्यजातम्, तत् सव्र्व्वं नेच्छत्येव, किन्तु मत् मां विना तादृश-भक्तिसाध्यं मामेव सर्व्वपुरुषार्थधिकमिच्छतीत्यर्थः । मय्यपितात्मा कृतात्मनिवेदनः ॥ श्रीभगवान् ॥