२२८ १३०
अविद्या- हरत्वमाह, (भा० ४।११।३०) -
(१३०) “त्वं प्रत्यगात्मनि तदा भगवत्यनन्त, आनन्दमात्र उपपन्न समस्तशक्तौं ।
भक्त विधाय परमां शनकैरविद्या, -ग्रन्थ विभेत्स्यसि ममाहमिति प्ररूढम् ।" ३५४॥ तथा च पाद्म े-
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“कृतानुयात्रा विद्याभिर्हरिभक्तिरनुत्तमा । अविद्यां निर्दहत्याशु दावज्वालेव पन्नगीम् ॥ " ३५५ ॥ इति ।
क्रमसन्दर्भ –यानि प्रायञ्चित्तानि उक्तानि, तैस्तान्यधानि पूयन्त एव, किन्तु अधर्माज्जातं तेषामधानां हृदयं संस्काराख्यं न शुध्यति, तदपीशाङ्घ्र सेवयैव शुध्यति, तदीय दुर्वासना समूह स्त्वीशानुगत्यैव पूयत इत्यर्थः । पाद्म े च -
“अप्रारब्धफलं पापं कूटं वीजं फलोन्मुखम् ।
क्रमेणैव प्रलीयेत विष्णु भक्तिरतात्मनाम् ॥“३५३॥
अत्र अप्रारब्ध फलं - वक्ष्यमाणेभ्योऽन्यत्, कूटं वीजत्वोन्मुखम्, वीजं प्रारब्धत्वोन्मुखम्, प.लोग्मुखं- प्रारब्धमित्यर्थः ।
जिस कर्म का फल भोग आरम्भ नहीं हुआ है, इस प्रकार पाप एवं कूट अर्थात् पाप करने का संस्कार एवं वीज-वासना, एवं फलोन्मुख पाप–विष्णु भक्ति में निष्ठा प्राप्त होने से क्रमशः विनष्ट होता है, यहाँ अप्रारब्ध फल शब्द से वक्ष्यमाण पाप राशि से भिन्न पाप को जानना होगा । कूट शब्द का अर्थ वीजत्व की उन्मुखावस्था । वीज शब्द से प्रारब्धोन्मुख अवस्था को जानना चाहिये । फलोन्मुख शब्द से प्रारब्ध अवस्था को जानना होगा ।
श्रीविष्णुदूतवृन्द– यमदूत गण को कहे थे ॥१३॥
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श्रीभगवद् भक्ति का अविद्याहरत्व का वर्णन करते हैं - भा० ४।११।३० में उक्त है–
(१३०) “त्वं प्रत्यगात्मनि तदा भगवत्यनन्त, आनन्दमात्र उपपन्न समस्तशक्तौ ।
भक्त विधाय परमां शनकैरविद्या–, ग्रन्थि विभेत्स्यसि ममाहमिति प्ररूढम् ॥ " ३५४॥
टीका—तदन्वेषणफल माह त्वमिति । तदा-अन्वेषणकाल एव ।
श्रीमनु, श्रीभगवद् भक्ति की अविद्या विनष्ट करने की क्षमता का वर्णन करते हैं—तुम, बाल्य काल में ही अनन्त स्वरूप, विशुद्ध आनन्द मूर्ति, सर्व शक्ति, युक्त, परमात्मा, भगवान् में परमा भक्ति प्राप्त कर क्रमशः ‘मैं मेरा’ भाव से निबद्ध अविद्या ग्रन्थि भेदन करने में सक्षम होगे (१३०)
पद्म पुराण में भी उस प्रकार उक्ति है—स्वायम्भुव मनु श्रीघ्र व को कहे थे–
[[२५२]] श्रीमनुध्रुवम् ॥