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क्वचित् प्रारब्धपापहारित्व मप्याह द्वाभ्याम्, (भा० ३।३३।६-७)—
“ततो गतो ब्रह्मगिरोपहूत ऋतम्भर ध्यान निवारिताघः ।
॥”
पापस्तु दिग्देवतया हतौजास्तं नाभ्यभूदवितं विष्णुपत्न्या ॥ "
टीका - ततः, इन्द्रः स्वर्गं गतः प्राप्तः । कथम्भूतः ? ब्रह्मगिरा–ब्राह्मणवाक्येन उहूतः सन्, ऋतम्भर सत्यपाल को हरिः, तस्य ध्यानेन, निवारितम्घ येन । प्रागपि तु पापो ब्रह्मबधस्तमिन्द्रं नाभ्यभूत्, तस्याभिभवं नाकरोत् कुतः ! दिग्देवतया प्रागुदीच्यां दिशि स्थितया श्रीरुद्रेण अवितं रक्षितं सन्तम् ।
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इस श्लोक में वर्णित है-श्रीहरि ध्यान के द्वारा वृत्रासुर बध जनित पाप निवृत्ति होने पर ब्रह्मर्षि वृन्द जो पाप नाश हेतु अश्वमेध यागानुष्ठान कराये थे इसका उद्देश्य था केवल साधारण लोक में प्रसिद्ध पाप निवृत्ति साधन का अनुष्ठान प्रचलन करना । अर्थात् भगवद्धयान के द्वारा जो पाप विदूरित हुआ, साधारण लोकों का वह बोधगम्य नहीं हुआ, अतएव बोध सम्पादनार्थ पुनर्वार इन्द्रको अश्वमेघयज्ञानुष्ठान कराये थे । भा० ६।१३।८ में वर्णित है-
“तञ्च ब्रह्मर्षयोऽभ्येत्य हयमेधेन भारत !
यथावद् दीक्षयाञ्चक्रः पुरुषाराधनेन ह ।”
टोका - पुरुषस्य हरेराराधनं यस्मिन् तेन ।
यहाँ संशय हो सकता कि -असुर देह प्राप्ति समय में भी परम भागवत श्रीमान् वृत्र में भगवत् प्रीति का आविर्भाव हुआ था । अतएव उसकी हत्या से जो अपराध हुआ, उसकी निवृत्ति, भगवदाराधन के द्वारा कैसे हो सकती है ? महदपराध भी भोग द्वारा विनष्ट होता है, एवं महत् के अनुग्रह के द्वारा भी विनष्ट होता है, शास्त्र सिद्धान्त भी यही है ।
उत्तर में कहते हैं- यद्यपि शास्त्र सिद्धान्त उस प्रकार ही है, तथापि श्रीभगवत् प्रेरणा से ही इन्द्र वृत्रासुर को बध करने में प्रवृत्त हुये थे, अतः तादृश दोष न होने के कारण ही देवराज के पक्ष में श्रीभगवद् आराधन ही विहित हुआ। श्रीभगवान् भी श्रीवृत्र का असुर भाव विदूरित करने के निमित्त ही श्रीवृत्र को बध करने का उपदेश प्रदान किये थे । इस प्रकार सिद्धान्त से ही उक्त संशय का अनवद्य समाधान होता है ।
प्रकरण प्रवक्ता श्रीशुक हैं ॥ १२७॥ १२८ । कभी भक्ति, प्रारब्धपापापहरण भी करती है-उसका उदाहरण भा० ३।३३।३।७ में है -
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(१२८)
के
“यन्नामधेय-श्रवणानुकीर्त्तनाद्-, यत्प्रहृणाद्य त् मरणादपि क्वचित् । श्वादोऽपि सद्यः सवनाय कल्पते, कुतः पुनस्ते भगवन्नु दर्शनात् ॥ ३४८ ॥ अहो वत श्वपचोतो गरीयान्, यज्जिह्वाग्रे वर्त्तते नाम तुभ्यम्,
- तेपुस्तपस्ते जुहुवुः सस्नुराय, ब्रह्मानुचुर्नाम गृणन्ति ये ते ॥” ३५० ॥ श्वादत्वमत्र श्वभक्षकजातिविशेष त्वमेव । श्वानमत्तीति निरुक्तौ वर्त्तमानप्रयोगात्, क्रव्यादव तच्छीलत्व प्राप्त ेः । कादाचित् क- श्व भक्षणप्रायश्चित्तविवक्षायां त्वतीतप्रयोगः क्रियेत । “रूढ़ियोगमपहरति” इति न्यायेन च तद्विरुध्यते । अतएव श्वपच इति तर्व्याख्यातम् । सवनश्चात्र सोमयाग उच्यते । ततश्चास्य भगवन्नाम-श्रवणाद्य कतरात् सद्य एव सवनयोग्यता-
-
।
(१२८) “यन्नामधेय-श्रवणानुकीर्त्तनाद्, यत् प्रह्वणाद्यत् स्मरणादपि क्वचित् । श्वादोऽपि सद्यः सवनाय कल्पते, कुतः पुनस्ते भगवन्नु दर्शनात् ॥ ३४६ ॥
अहो वत श्वपचोऽतो गरीयान्, यज्जिह्वाग्रे वर्त्तते नाम तुभ्यम् ।
ते पुस्तपस्ते जुहुवुः सस्नुरार्य्या, ब्रह्मानुचुर्नाम गृणन्ति ये ते ॥ ३५० ॥
टीका - अत स्तद् दर्शनादहं कृतार्थोऽस्मीति कैमुत्यः यायेनाह । यन्नामधेयस्य श्रवणमनु कीर्तनञ्च तस्मात् । क्वचित् कदाचिदपि । श्वानमत्तीति-श्वादः, श्वपचः, सोऽपि सवनाय - सोम यागाय कल्पते योग्यो भवति । अनेन पूज्यत्वं लक्ष्यते । ६ । तदुपप दयति- अहोवतेत्याश्चय्यें, यस्य जिह्वाग्र े तव नाम वर्त्तते स श्वपचोऽपि अतोऽस्मादेव हेतो गरीयान् यद् यस्माद् वर्तते अत इति वा । कुत इत्यत आह । अतएव तपस्तेपुः कृतवन्तः । जुहुवुः - होमं कृतवन्तः । सस्नु तीर्थेषु स्नाताः आर्यास्त एव सदाचाराः । ब्रह्म- वेदम्, अनूचुः - अधीतवन्तः । त्वन्नाम कीर्त्तने तप आद्यन्तर्भूतम्, अतस्ते पुण्यतमा इत्यर्थः । यद्वा जन्मान्तरे तैस्तपो होमादि सर्वं कृतमस्तीतित्वन्नाम कीर्त्तन महाभाग्योदय गम्यते - इत्यर्थः । (७)
भगवान् श्रीकपिल देव, जननी श्रीदेवहूति को कहे थे - हे भगवन् ! जब तुम्हारे न म श्रवण कीर्त्तन से एवं तुम्हारे चरणों में प्रणाम -स्मरण से कुक्कुर भक्षक जाति विशेष भी सोमयागकारी व्यक्ति के समान पूज्य होता है, तब तुम्हारे दर्शन से जाति से अपवित्र व्यक्ति भी पवित्र होगा, यह अधिक क्या है ? अतीव आश्चर्य एवं आनन्द का विषय यह है कि - जिस की जिह्वा के अग्रभाग में तुम्हारे सुख हेतु तुम्हारे नाम विद्यमान है, इस प्रकार व्यक्ति श्वपच होने पर भी गुरु जन के समान पूजनीय तथा आदरणीय होता है । कारण, जो लोक, तुम्हारे नाम ग्रहण करते हैं, उनके द्वारा समस्त तपस्या, समस्त यज्ञ, सकल तीर्थ स्नान, यावतीय भगवत् स्वरूप का अर्चन एवं निखिल वेदाध्ययन भी सम्पन्न हो जाते हैं ।
पूर्वोक्त श्लोक द्वय की स्वामिपाद कृत व्याख्या का अर्थ यह है- जो लोक, श्रीभगवन्नाम का श्रवण एवं निरन्तर कीर्तन करते हैं वे कुक्कुर मांस भोजी होने पर भी सोम यागकारी के समान पूज्य होते हैं । श्वानमत्तीति निरुक्ति हेतु वर्त्तमान प्रयोग हुआ है, अथवा जिस का कुक्कुर मांस भक्षण करना स्वभाव ही है, इस से जातिगत एवं व्यक्ति गत आचरण का ग्रहण हुआ है। किन्तु कदाचित् आपद काल में कुवकुर मांस भक्षण जनित पाप का प्रायश्चित्त स्वरूप हरिनामोच्चारण का फल नहीं है, ऐसा होने पर अतीत काल वाचक प्रत्यय का प्रयोग होता। रूढ़ि अर्थ एवं यौगिक अर्थ के मध्य में रूढ़चर्थ ही बलवान होता है । अतएव प्रकृति प्रत्यय के द्वारा अर्थ करके कदाचित् कुकुक्र मांस भक्षणकारी के प्रायश्चित्त विषय रूप में
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प्रतिकूल- दुर्जातित्वप्रारम्भक- प्रारब्धपापनाशः प्रतिपद्यते । तस्मात् (भा० ११।१४।२१) ‘भक्तिः पुनाति मन्निष्ठा श्वपाकानपि सम्भवात्” इति तु कैमुत्यर्थमेव प्रोक्तमित्यायाति । किन्तु योग्यत्वमत्र श्वपचत्व प्रापक-प्रारब्धपापविच्टित्वमात्र मुच्यते । सवनार्थन्तु गुणान्तराधानमपेक्षत एव । ब्राह्मणकुमाराणां शौक़ जन्मनि योग्यत्वे सत्यपि सावित्र दक्षजन्मापेक्षावत् सावित्रादि- जन्मनिमित्तसवन सदाचारप्राप्तः, इति सबने प्रवृत्तिर्नास्य युज्यते । तस्मात् पूज्यत्वमात्र- तात्पर्य्यमित्यभिप्रेत्य टीकाकृद्भिरप्युक्तम्- “अनेन पूज्यत्वं लक्ष्यते” इति । तथापि प्रारब्ध– हारित्वं तु व्यक्त-मेवायातम् । तदुपपादयति, – ‘अहो वत’ इत्याश्चर्थ्ये, यस्य जिह्वाग्र े तब
श्रीहरि नामका ग्रहण प्रसङ्ग यहाँ नहीं है, किन्तु स्वभाव अथवा जाति रूप में प्राप्त व्यक्ति को भी शुद्धि नाम ग्रहण से होती है।
अनएव स्वामि पादने श्वपच शब्द का अर्थ “श्वानमत्तीति श्वपचः " किया है। “सवन” शब्द का अर्थ सोमयाग है । अतएव श्रीभगवन्नामः ग्रहण प्रभृति के द्वारा सवन यागानुष्ठान कारी के पक्ष में प्रतिकूल जो दुर्जाति आरम्भक पाप है, अर्थात् प्रारब्ध पाप है, उस का भी विनाश सद्यः होता है । अतएव भा० ११।१४ २१ में उक्त है-
“भक्तचाह मेकयाग्राह्यः श्रद्धयात्माप्रियः सताम् ।
भक्तिः पुनाति मन्निष्ठा श्वपाकानपि सम्भवात् ॥”
टीका- श्रद्धया या भक्तिस्तया । सम्भवात् जातिदोषादपीत्यर्थः ।
क्रमसन्दर्भ - श्रद्धया भत्ता - श्रद्धा पूर्विकया— केवलया भक्त या वहमेव ग्राह्यः - क्रमाद् वशीकार्थः, सैवमन्निष्ठा - मयि दाढ्य गतासती ।
दुर्जाति में उत्पन्न व्यक्ति भी मुझ में भक्ति निष्ठा प्राप्त कर ही पवित्र होता है । इस श्लोक में कैमुत्तिक न्याय से प्रारब्ध पाप हारित्व वर्णन हुआ है। “श्वादोऽपि सद्यः सवनाय कल्पते” यहाँ कल्पले शब्द का अर्थ है - योग्य होता है। वह योग्यता क्या है, उसको कहते हैं-
資源 जिस पाप के द्वारा श्वपच कुल में जन्म हुआ है, वह प्रारब्ध पाप है, श्रीहरिनाम ग्रहण
से उस प्रारब्ध पाप विनष्ट ही होता है । किन्तु ‘सवनाय कल्पते’ अर्थात् सोमयाग का अधिकारी होता है, इस कथन का अभिप्राय है कि - गुणान्तराधान की अपेक्षा उस श्वपच जाति के व्यक्ति में अवश्य है, अर्थात् यथारीति कार्योपयोगी शिक्षा एवं आचरण की अपेक्षा अवश्य ही है। जिस प्रकार ब्राह्मण के वीर्य से उत्पन्न होने से ब्राह्मण होता है, किन्तु उस ब्राह्मण कुमार का तब तक सवनादि देवाच्चन में अधिकार नहीं होता है, जब तक उसका सावित्र जन्म एवं दीक्षा ग्रहण जन्म नहीं होता है, कारण, सवनादि कर्म में सावित्र्यादि जन्म संस्कार सम्पन्न व्यक्ति ही अधिकारी होता है । यही सदाचार है। अतएव श्रीहरिनाम ग्रहण से श्वपच व्यक्ति सोमयाग करने का अधिकारी नहीं होता है, कारण, वह कार्य करना उसके पक्ष में असम्भव ही होगा, अतएव ‘सद्यः सवनाय कल्पते’ शब्द का तात्पर्य है- सोमयाग कारो व्यक्ति जिस प्रकार पूज्य-आदरणीय होता है, उस प्रकार श्रीहरिनाम ग्रहण कारी श्वपच व्यक्ति भी पूज्य - अर्थात् आदरणीय होता है। इस अभिप्राय से ही श्रीधर स्वामिपादने कहा भी है- “अनेन पूज्यत्वं लक्ष्यते " अर्थात् ‘सवनाय कल्पते शब्द से पूज्यत्व ध्वनित होता है । इस प्रकार अर्थ की प्राप्ति होने पर भी श्रीहरिभक्ति का प्रारब्ध हारित्व सुस्पष्ट प्रकाशित हुआ है ।
उस का प्रतिपादन करते हैं- “अहोवत्” शब्द के द्वारा । अर्थात् अतीव आश्चर्य की कथा है-
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नाम वर्त्तते, स श्वपचोऽपि, अतोऽस्मादेव हेतोर्गरीयान, यद् यस्माद् वर्त्तते, अत इति वा । कुत इत्यत आह- ‘त एव तपस्तेपुः’ इत्यादि, त्वन्नाम-कीर्तने तप- आद्यन्तर्भूतम्, अतस्ते पुण्यतमा इत्यर्थः । एवं प्रारब्धपापहेतुक व्याध्यादिहरत्वञ्च, स्कान्दे-
“आधयो व्याधयो यस्य स्मरणान्नाम कीर्त्तनात् । तदैव विलयं यान्ति तमनन्तं नमाम्यहम् ॥”३५१॥
।
उक्तञ्च नामकौमुद्यां प्रारब्धपापहरत्वं क्वचिदुपासकेच्छावशादि’त ॥ श्रीदेवहूतिः ॥ १२६ । तद्वासन हारित्वमाह (भा० ६।२।१७) -
S
(१२६) “तैस्तान्यघानि पूयन्ते तपोदान-वृतादिभिः ।
नाधर्म्मजं तद्धृदयं तदपोश ङ्घ्रिसेवया ॥” ३५२ ॥
जिसकी जिह्वा के अग्रभाग में तुम्हारे नाम विद्यमान है, वह श्वपच होकर भी भक्ति के प्रभाव से ही गुरु जन के समान पूज्य होता है । श्रीहरिनाम जिह्वा में विलसित होने से क्यों श्वपच गुरु के तुल्य पूज्य होता है ? उत्तर में कहते हैं— कारण, जिह्वा में श्रीहरिनाम विद्यमान है, अतः वह पूज्य है। अतएव श्रीहरिनाम ग्रहण कारी व्यक्ति गण के द्वारा सर्व तपस्यादि सर्वतीर्थ स्नानादि सम्पन्न होते हैं ? तपस्या प्रभृति तुम्हारे नाम कीर्तन में ही अन्तर्मुक्त होते हैं । अतएव श्रीहरिनाम कीर्त्तन कारी व्यक्तिगण पुण्यतम हैं । उक्त श्लोक का इस प्रकार अर्थ जानना होगा।
इस प्रकार स्कन्द पुराण में श्रीहरि भक्ति का प्रारब्ध पापहेतुक व्याधि प्रभृति विनाशकत्व का वर्णन है-
“आधयो व्याधयो यस्य स्मरणान्नामकीर्त्तनात् ।
तदैव विलयं यान्ति तमनन्तं नमाम्यहम् ॥” ३५१ ॥ इति
जिनके स्मरण एवं नाम कीर्तन से आधि व्याधि प्रभृति तत्क्षणात् विनष्ट होते हैं, उन अनन्त शक्तिमान् श्रीभगवान् को मैं प्रणाम करता हूँ । 15
नाम कौमुदी में भी उक्त है—उपासक की इच्छा से प्रारब्ध पापापहरण, श्रीहरिभक्ति करती है यह कथन श्रीदेवहूति का है ॥ १२८ ॥