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किञ्च, (भा० ६।१।१६) -

(१२७) “न तथा ह्यघवान् राजन् पूयेत तप-आदिभिः ।

यथा कृष्णापितप्राणस्त पुरुष- निषेवया ॥” ३४८ ॥

टीका च - " एतच्च ज्ञानमार्गादपि श्रेष्ठमित्याह - न तथा प्रयेत शुध्येत्, यथा तत्-

श्रीशुकदेव ने कहा, - हे राजन् ! कोई कोई सौभाग्यवान् वासुदेव परायण भक्तगण, तपस्या प्रभृति निरपेक्षा भक्ति के प्रभाव से, सूर्य्य जिस प्रकार, कुज्झटिका को विनष्ट करते हैं, उस प्रकार सम्पूर्ण पापराशि को विनष्ट करते हैं । इस प्रकार महानुभाव वृन्द की संख्या अतीव विरल है । श्रीधर स्वामिपाद कृत टीका का अर्थ यह है- “केचित्” पदविन्यास के द्वारा सूचित हुआ है कि - एतादृश भक्ति प्रधान सम्प्रदाय अति विरल है । भक्ति के विशेषण रूप में “केवलया” पदोल्लेख द्वारा सूचित हुआ है कि, तपस्या प्रभृति साधनान्तर की अपेक्षा नहीं करती है । “वासुदेव परायणाः” पद,

भक्ति “वासुदेव परायणाः” पद, अधिकारी का विशेषण्ड नहीं है, किन्तु, साधारण जनगण, भक्ति मार्ग में अविश्वस्त होने के कारण, उनकी प्रवृत्ति, भक्ति मार्ग में नहीं होती है । तज्जन्य, जो लोक, वासुदेवपरायण हैं, उनकी प्रवृत्ति हो, अन्य निरपेक्षा भक्ति में होती है । एतज्जन्य, “वासुदेव परायणाः ।’ पद- अनुवाद मात्र है। यह ही टीका का अर्थ । उक्त श्लोक में “भास्कर” पदोल्लेख के द्वारा यह सूचित हुआ है कि- भास्कर, जिस प्रकार निज रश्मिके द्वारा स्वभावतः ही कुज्झटिका समूह को विनष्ट करते हैं, प्रयत्न नहीं करना पड़ता है, उस प्रकार ही वासुदेवपरायण जनगण भी अन्य निरपेक्षा भक्ति के द्वारा निखिल पाप राशि को अनायास विनष्ट करते हैं । इस प्रकार समझना होगा ॥ १२६ ॥

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और भी भा० ६।१।१६ में उक्त है-

(१२७) “न तथा ह्यघवान् राजन् पूयेत तप-आदिभिः ।

यथा कृष्णापितप्राणस्तत् पुरुष- निषेवया ॥ " ३४८ ॥

राजन् ! पापीयान् जन, तपस्या द्वारा उस प्रकार पवित्र नहीं होता है । श्रीकृष्णापितप्राण भक्त, भगवद् भक्त की सेवा के द्वारा जिस प्रकार विशुद्ध होता है । टीका का अभिप्राय - यह कथन-ज्ञान मार्ग से भी श्रेष्ठत्व प्रदर्शन हेतु हुआ है। ज्ञान प्रभृति मार्गानुशीलन से मानव उस प्रकार पवित्र नहीं होता है, जिस प्रकार, भगवद् भक्त की सेवा के द्वारा पवित्र होता है । कारण, भगवद् भक्त श्रीकृष्ण में प्राणार्पण करने में सक्षम है । यह है टीका की व्याख्या । भा० ६।१।११ में कहा गया है - “प्रायश्चित्तं विमर्शनम् " अर्थात् ज्ञान को भी पाप का प्रायश्चित्त रूप में उल्लेख किया गया है । अतएव टोका कारने कहा है भक्ति मार्ग, ज्ञानमार्ग से श्रेष्ठ है, “एतच्च ज्ञान मार्गादपि श्रेष्ठम्” इस प्रकार होने पर भा० ६।१३।१७ में उक्त प्रसङ्ग का समाधान होता है।

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पुरुषनिषेवया, कृष्णे अपिताः प्राणा येन” इत्येषा । अत्र (भा० ६।१।११) “प्रायश्चित्तं विमर्शनम्’ इति ज्ञानस्यापि प्रायश्चित्तत्वं पूर्व्वमुक्तम् । तत एव टोकोक्तम्- ‘एतच्च’ इत्यादि । तदा (भा० ६।१३।१७) “ऋतम्भर ध्यान-निवारिताघः” इत्याद्य क्तया भगवद्ध्यान-निवारित वृत्रहत्या पापस्येन्द्रस्य (भा० ६।१३।१८) “तञ्च” इत्यादौ पुनरश्वमेधविधानं साधारणलोके पापप्रसिद्धेरेव निवारणार्थमिति ज्ञ ेयम् । ननु कथं तदानीमप्याविर्भूत-भगवत्प्रेमत्वात् परमभागवतस्य वृत्रस्य हत्या भगवदाराधनेनापि गच्छतु ? महदपराधमात्रमपि भोगेक-नाश्यं तत्प्रसाद नाश्यं वेति मतम् ? उच्यते, – तथापि भगवत्प्रेरणया तत्र प्रवृत्तस्येन्द्रस्य न तादृशो दोष इति तदाराधनमेव तत्र प्रायश्चित्तं विहितम् । श्रीभगवतापि तदासुरभावनिवारणायैव तथोपदिष्टमित्यनवद्यम् ॥ श्रीशुकः ॥