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तथा च (भा० ६।१।१५) -

(१२६) “केचित् केवलया भक्तचा वासुदेवपरायणाः ।

अघं धुन्वन्ति कार्त्स्न्येन नीहारमिव भास्करः ॥ ३४७॥

विधित्व का बोध होगा । भा० २।११५ में साक्षात् विधित्व का भी श्रवण है

तस्माद्भारत ! सर्वात्मा भगवान् हरिरीश्वरः ।

"

श्रोतव्यः कीर्त्तितव्यश्च स्मर्त्तव्यश्चेच्छता भयम् ॥” ३४६

श्रीशुकदेवने कहा- हे भारत ! अतएव सर्वात्मा भगवान् ईश्वर श्रीहरि, मोक्षाभिलाषी मानव के पक्ष में अवश्य श्रोतव्य, कीर्त्तितव्य एवं स्मर्त्तव्य है । “तस्मात्” हेतु निदेश के कारण अकरण जन्य प्रत्यवाय भी सूचित हुआ है । तथापि अननुसन्धान से भी दहन स्वभाव वह्नि लक्षण वस्तु के दृष्टान्त के द्वारा यह भक्ति विधिसापेक्ष नहीं हो सकती है । अर्थात् विधि पूर्वक भक्ति अनुष्ठान से ही फललाभ कर सकते हैं, इस प्रकार सिद्धान्त हो ही नहीं सकता है, कारण जिस किसी प्रकार से भक्ति का अनुष्ठान करने से ही फल लाभ से विमण्डित हो सकते हैं । अतएव भा० १ २ ३५ में कहा गया है, - “यानास्थाय नरोराजन् ! ’ “न स्खलेन पतेदिह " एवं “नेत्रे निमील्य” अर्थात् श्रुति–स्मृति ज्ञान शून्य होकर विधि को अतिक्रम करके भो यदि भक्ति को अनुष्ठान करते हैं, तथापि स्खलन पतन होने की सम्भावना ही नहीं है ।

विशेष कर - " यथाग्निः सुसमिद्धाच्चिः " इस प्रकार दृष्टान्त के उल्लेख के द्वारा भगवद् भक्ति का साधनान्तर सापेक्षत्व, अशक्यसाध्यत्व, एवं विलम्बितत्व का निरास किया गया है । अर्थात् भक्ति, स्वयं ही अचिन्त्य प्रभाव शालनी होने के कारण, अपर किसी साधन की सहायता की अपेक्षा इस में नहीं है, एवं निज साध्य प्रेम प्रदान में सामर्थ्य होना भी नहीं है, प्रेम प्रदान में भी विलम्ब नहीं करती है । उस का ही सुस्पष्ट कथन पद्म पुराण के पाताल खण्ड के वैशाख माहात्म्य में -

“यथाग्निः सुसमिद्धाच्चिः करोत्येधांसि भस्मसात् । पापानि भगवद् भक्ति स्तथा दहति तत्क्षणात् ॥”

“तत् क्षणात् " पदके द्वारा हुआ है ।

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भा० ६।१।१५ में कथित है-

प्रवक्ता श्रीभगवान् हैं ॥१२५॥

(१२६) " केचित् केवलया भक्तचा वासुदेवपरायणाः ।

अघं धुन्वन्ति का स्नेचन नीहारमिव भाक्करः ॥ ३४७ ॥

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टीका च - “केचिदित्यनेनैवम्भूता भक्तिप्रधाना विरला इति दर्शयति- केवलया तपआदि- निरपेक्षया, ‘वासुदेवपरायणाः’ इति नाधिकारि-विशेषणमेतत्, किन्तु अन्येषामश्रद्धया तत्रा- प्रवृत्तेरर्थात्तेष्वेव पर्य्यवसानादनुवादमात्रम्” इत्येषा । अव भास्करो हि केवलेन स्वरश्मिना स्वभावत एव नीहारं निःशेषं धुनोति, न तदर्थं प्रयत्नतस्तथा वासुदेवपरायणा अपि भक्तेति ज्ञेयम् ॥