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तथा (भा० ३।२२।३७)
(१२४) “शारीरा मानसा दिव्या वैया से ये च मानुषाः ।
भौतिकाश्च कथं क्लेशा बाधेरन् हरिसंश्रयम् ॥ ३४२ ॥
उद्भावन उन से नहीं हो सका। यहाँ विष्णु पुराण के “दन्ता गजानां कुलिशाग्र निष्ठुराः ॥ " प्रभृति वचन समूह अनुसन्धेय हैं । अर्थात् जिस समय, हस्ती समूह प्रह्लाद को वज्रादपि कठोर दन्तों के द्वारा निपीड़न करने लगे थे, तब कोमला भक्ति शक्ति के प्रभाव से कठिन दन्त समूह अति सुकोमल हो गये थे। इस प्रकार अग्नि- चन्द्र से भी सुशीतल, विष- अमृत से स्वादु हुये थे । अर्थात् विरुद्ध धर्मं प्राप्त हुये थे । भक्ति
विष-अमृत शक्ति के प्रभाव से मायामयी जड़ाशक्ति पराभूत होती है, उस की दृष्टान्त द्वारा दर्शाया गया है । भा० १०।६।३’ में वर्णित है-
न यत्र श्रवणादीनि रक्षोघ्नानि स्वकर्मसु ।
कुर्वन्ति सात्वतां भर्त्तार्यातु धान्यश्च तत्र हि ।'
श्रीशुक देवने कहा, - हे राजन् ! जिस यज्ञ प्रभृति कर्म में भक्त जन वल्लभ श्रीहरि के राक्षस विनाश कारी श्रवण कीर्त्तनादि भक्तयङ्ग का अनुष्ठान नहीं होता है। वहाँ, राक्षसी गण, निज प्रभाव प्रकाश करने में समर्थ होती हैं । इस से व्यतिरेक
व्यतिरेक मुख से भक्ति का
से भक्ति का दुष्ट जीव भय निवारकत्व का प्रदर्शन
हुआ। वृहन्नारदीय पुराण में उक्त है-
“यत्र पूजा-परो विष्णोस्तत्र विघ्नो न बाधते ।
राजा च तस्करश्चापि व्याधयश्च न सन्ति हि ॥ ३४० ॥
प्रेताः पिशाचाः कुष्माण्डा ग्रहा बालग्रहास्तथा ।
डाकिन्यो राक्षसःश्चैव न बाधन्तेऽच्युताच्चकम् ॥ ३४१ ॥
जहाँपर विष्णु भक्त गण निवास करते हैं, वहाँपर विघ्न, बाधा उपस्थित कर नहीं सकता है । राजा, चोर, व्याधि का आगमन वहाँ नहीं होता है । प्रेत, पिशाच, कुष्माण्ड, ग्रह, बालग्रह, डाकिनी, राक्षस प्रभृति, श्रीहरि के अर्च्चन कारी को बाधा प्रदान करने में असमर्थ होते हैं ।
श्रीनारद श्रीयुधिष्ठिर को कहे थे ॥ १२३॥
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उस प्रकार श्रीमद् भागवत के ३।२२।३७ में वर्णित है-
“शारीरा मानसा दिव्या वैयासे ये च मानुषाः ।
भौतिकाश्च कथं क्लेशा बाधेरन् हरिसंश्रयम् ॥ ३४२ ॥
टीका - दिव्यास्त्वन्तरीक्षाः । मानुषाः शत्रु प्रभवाः । भौतिकाः– शीतोष्णादि प्रभवाः । वैया से विदुरः ।
क्रमसन्दर्भ - शारीराः- मानसाश्चाध्यात्मिकाः,
दिव्या आधि दैविकाः । मानुषा
भूतान्तरजाश्चाधिमौतिकाः । तत्तदवान्तर भेद विवक्षया तु द्वयोभेदः ।
हे वैयासे ! हे व्यास नन्दन विदुर ! शारीर, मानस, आध्यात्मिक, दिव्य, आधिदैविक, मानुष, आधिभौतिक प्रभृति क्लेश समूह श्रीहरि पदाश्रित, व्यक्ति वृन्द को बाधा प्रदान करने में कैसे सक्षम होंगे ?
एवमप्युक्तं गारुड े,-
[[२४३]]
“न च दुर्वाससः शापो वज्रञ्चापि शचीपतेः । हन्तुं समर्थः पुरुषं हृदिस्थे मधुसूदने । । " ३४३ ॥ इति ।
श्रीमैत्र यो विदुरम् ॥