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दुष्टजीवादि भय निवारकत्वमाह, (भा० ७२५१४३ –४४) -
(१२३) “दिग्गज र्दग्दशू केन्द्रैरभिचारावपातनैः ।
मायाभिः सन्निरोधैश्च गरदानैरभोजनैः ॥ ३३८ ॥
हिमवाय्वग्निसलिलैः पताक्रमणैरपि ।
न शशाक यदा हन्तुमपापमसुरः सुतम् ।
चिन्तां दीर्घतमां प्राप्तस्तत् कत्तु नाभ्यपद्यत ॥ " ३३६ ॥
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अत्र (वि० पु० १।१४।४४) " दन्ता गजानां कुलिशाग्रनिष्ठुराः” इत्यादिकं वैष्णव-वचन- जातमनुसन्धेयम्, (भा० १०१६।३) " न यत्र श्रवणादीनि" इत्यादिकञ्च यथा वृहन्नारदीये-
को आकृष्ट करने की क्षमता, विषय वासना का ह्रास हो जाता है । यद्यपि विषय, श्रीभगवान् से चित्त को आकृष्ट करता है, तथापि, भा० ११ २०।२७ में उक्त है
“वेद दुःखात्मकान् कामान् परित्यागेऽप्यनीश्वरः ।
ततो भजेत मां प्रीतः श्रद्धालु दृढ़निश्चयः ॥ "
टीका - भक्तयधिकारिणो भक्ति योगमाह-जातश्रद्ध इति - नवभिः । मत् कथासु जातश्रद्धः । अतएव अन्येषु कर्मसु निर्विण्ण उद्विग्नो नतु तत् फलेषु विरक्तः, तदाह वेदेति । यद्यपि वेद, तथापि तत् परित्यागेऽप्यनीश्वरोऽशक्तः ।
इत्यादि न्याय से, — अर्थात् विषय भोग अतीव दुःखावह है, इस प्रकार अनुभव करके भी परित्याग करने में असमर्थ है। उस अवस्था में भी श्रीभगवान् में निज दैन्यादि निवेदन के द्वारा श्रीहरि भक्ति की अनावृत्ति होती है । अर्थात् लय विक्षेप से निज को उद्धार करना असम्भव जानकर श्रीप्रभु के चरणों में भक्त सकातर निवेदन करता रहता है । उस से चित्त तिरन्तर अभिमान शून्य होकर दीन भाव से बिगलित होता है । उस से श्रीभगवान् की कृपाराशि आकृष्ट होती है । इस प्रकार भक्ति की अनुवृत्ति, विषय के द्वारा बाध्यमान अवस्था में भी प्रकाशित होती रहती है । श्रीशुक्ल - कर्दम को कहें थे ॥१२२॥
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दुष्टजीवों से श्रीभगवद् भक्ति का भय निवारकत्व का वर्णन भा० ३।५।४३ - २४ में कहते हैं–
(१२३) “दिग् गजै दन्दशू केन्द्र र भिचारावपातनैः ।
मायाभिः सन्निरोधैश्च गरदानैरभोजनः ॥ ३३८ ॥ हिमवाय्वग्निसलिलैः पर्व्वताक्रमणैरपि ।
न शशाक यदा हन्तुमपापमसुरः सुतम् ।
चिन्तां दीर्घतमां प्राप्तस्तत् कत्तु ं नाभ्यपद्यत ॥ ३३६ ॥
हिरण्यकशिपु, निजपुत्र प्रह्लाद को बध करने के निमित्त दिग् गजगण के द्वारा, विषधर सर्प समूह द्वारा, अभिचार यज्ञ द्वारा गिरि पातन द्वारा, आसुरिक माया समूह के द्वारा, गर्भावरोध द्वारा,
गर्त्तावरोध द्वारा, विष भक्षण
के द्वारा, हिम, वायु, अग्न, सलिल में निक्षेप द्वारा अनाहार द्वारा, पर्वत क्षेपण द्वारा, जब निप्पापचित्त पुत्र को बध करने में असमर्थ हुये थे, तब दुरत्यय चिन्ता को प्राप्त किये थे । किन्तु प्रतिकार का कोई उपाय
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“यत्र पूजा-परो विष्णोस्तत्र विघ्नो न बाधते । राजा च तस्करश्चापि व्याधयश्च न सन्ति हि ॥ ३४० ॥ प्रेताः पिशाचा कुष्माण्डा ग्रहा बालग्रहास्तथा । डाकिन्यो राक्षसाश्चैव न बाधन्तेऽच्युताच्चकम् ॥ ३४१ श्रीनारदः श्रीयुधिष्ठिरम् ॥