१२२

२१४ १२२

तथा, (भा० ३।२१।२४)

(१२२) " न वै जातु मृषैव स्यात् प्रजाध्यक्ष मदर्हणम् । । भवद्विधेष्वतितरां मयि संगृभितात्मनाम् ॥ " ३३७॥

मयि संगृभितः संगृहीतो बद्ध आत्मा येषाम्, तथा (भा० ११०१४।१८) " बध्यमानोऽपि इत्यादिक-मप्यत्रोदाहरणीयम् । अत्र प्रायो बाध्यमानत्वं कदाचित् कदाचित्तद्धयानादित आकृष्यमाणत्वमवगम्यते, तथाप्यनभिभूतत्व (भा० ११/२०१२१) “वेद दुःखात्मकान् कामान् कभी भी विघ्न के द्वारा अभिभूत नहीं होते हैं । एवं श्रुति, स्मृति ज्ञान रूप नेत्र द्वय निमीलन करके धावत होने पर भी भागवत धर्म मार्ग से कभी भो स्खलन पतन नहीं होता है ।

२१५ १२२

उस प्रकार कथन भा० ३।२११२४ में है-

ब्रह्मादि देवगण श्रीभगवान् को कहे थे – १२१ ॥

(१२२) “न वे जातु मृषैव स्यात् प्रजाध्यक्ष मदर्हणम् ॥

भवद्विधेष्वतितरां मयि संगृभितात्मनाम् ॥” ३३७॥

टीका-मयि संगृभितः संगृहीतः एकाग्रोकृतः आत्मा चित्तं यैः तेषांयनुमदर्हणं तादृशेषु अतितरां सर्वथा मृषा निस्फलं न स्यात् ॥'

श्रीभगवान् श्रीकर्दम ऋषि को कहे थे, - हे प्रजाध्यक्ष ! प्रजापते ! जिन्होंने मुझ में चित्तार्पण किया है, उनका मदचर्च्चन कभी भी विफल नहीं होता है, तन्मध्ये आप के सदृश महानुभव गण जो मदच्चन करते हैं, वह कैसे विफल हो सकता है ? ।

गोस्वामि पाद कृत व्याख्या - हे प्रजापते ! जो व्यक्ति, मुझ में संगृहीत अर्थात् बद्ध चित्त हैं, के सब जो मेरी अर्चना करते हैं, वह ही विफल नहीं होती है। उस प्रकार उदाहरण - भा० ११।१४ १८ में है–

“बाध्यमानोऽपि मद्भक्तोविषषैरजितेन्द्रियः ।

प्रायः प्रगल्मया भक्तया विषयैर्नाभि भूयते ॥

टीका-अपि च आस्तां तावदुत्तमभक्तकथा यतः प्राकृतोऽपि भक्तः कृतार्थ एवेत्याह बाध्यमान इति द्वाभ्याम् । विषयैराकृष्यमाणोऽपि । प्रगल् भया समर्थया ।

श्रीभगवान् श्रीउद्धव को कहे थे - हे उद्धव ! मेरे अजितेन्द्रिय भक्तगण, विषय के द्वारा बाध्यमान होने पर भी प्रगल्भा भक्तिके प्रभाव से विषय के द्वारा अभिभूत नहीं होते हैं । यहाँ समझने का यह है कि- “बाध्यमान” पद का प्रयोग वर्त्तमान काल में हुआ है । अर्थात् जब ही बाधित होती है, तब ही विषय के द्वारा अभिभूत नहीं होता है । जिस प्रकार ज्वर प्रतिषेधक औषधि सेवन जिस दिन करते हैं, उस दिन ज्वर का आक्रमण होता है, किन्तु वह अभिभूत नहीं कर सकता है । उस प्रकार विषय वासना की प्रतिषेधक औषधि स्वरूप श्रीहरि भक्ति का अनुष्ठान करने से विषय वासना आकर आक्रमण करना तो चाहती है, किन्तु भक्ति साधन में बाधा दे नहीं सकती । यहाँ प्रायशः बाधित होने पर भी भगवद् ध्यानादि द्वारा आकृष्यमाण होते हैं, । अर्थात् भगवद् ध्यान के प्रभाव से चित्त श्रीभगवान् मे आकृष्ट होकर रहता है, चित्त

[[२४१]]

परित्यागेऽप्यनीश्वरः” इत्यादि-न्यायेन । तत्रापि भगवन्तं प्रति निजदैन्यादि-निवेदनादिना भक्तेरेवानुवृत्तिरिति ज्ञेयम् ॥ श्रीशुक्लः कर्द्दमम् ॥